दादरी कांड एक बार फिर अचानक चर्चा में आ गया है, कश्मीर जल रहा है देश भर में साम्प्रदायिक माहौल भंगुर प्रतीत हो रहा है, समाजिक नफरत तेजी से बढ़ रही है। आखिर ऐसा क्यो? क्यों बढ़ता जा रहा नफरत का माहौल? नेता या तो इसके इस पार हैं या उस पार, सब इस में समिधा डाल रहे हैं। किसी के भीतर अपने करने पर संशय पैदा होता नहीं दिख रहा है। नफरत से जुड़ी घटनाएं ही प्रमुख समाचार बन रहीं हैं और जिस किसी से मिलिये वह दूसरे से मतविरोध को समस्या बना कर पेश कर रहा है। चाहे वह मध्यपूर्व की घटना हो या अपने देश के राजनीतिज्ञों के भाषण सबकी पृष्ठ भूमि में यही है। यह बात नयी नहीं है।
विश्व मानव के ह्रदय नि:द्वेष में
मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का
चाहता लड़ना नहीं समुदाय है
फैलती लपटें विषैली व्यक्तियों की सांस से
इस दुनिया में जब हम या अन्य लोग किसी से मिलते हैं तो वह परिचित हो या अपरिचित हम अपने तराजू से उसे तौलते हैं। उसका बारे में अपने विचार बनाते हैं। सबसे पहले जो बातें मन आतीं हैं वह है कि सामने वाला हममे से या हमसे अलग है। यह आदमी का चिरंतन स्वभाव है। हमारे मन में अपने लोगों के प्रति सकारात्मक भ्रम होता है और दूसरे लोगों के प्रति नकारात्मक। हम अपने लोग या अपने समूह के नैतिक मूल्यों को दूसरों या दूसरे समूह के नैतिक मूल्य से बेहतर मानते हैं। यह चरम गुणारोपण भ्रांति है। हम दूसरों या दूसरे समूहों की मंशा पर संदेह करते हैं और उसे अपने से विलोम या बहुत बुरा कहें तो अपना शत्रु समझने लगते हैं। यह दूसरों के प्रति एक निर्दयता भाव को जगाता है वहीं अपने के प्रति या जो हमारे सामाजिक , नैतिक मूल्यों की तरफदारी करते हैं उनके प्रति एक खास किस्म का मोहभाव। इसमें वफादारी की अपनी भूमिका होती है। प्राचीनकाल में समाज से या जाति से निष्काषन मृत्युदंड के बराबर होती थी। इसलिये इंसान में निष्ठा भाव को पैदा किया जाता है जो बाद में उसका स्वभाव बन जाता है। यहां मुश्किलें तब आतीं हैं जब हम दूसरे समूह, जाति या नस्ल के लोगों से मिलते हैं। हम अपने समूह या जाति या नस्ल के विविधतापूर्ण आचरण या फितरत पर बिना सोचे दूसरे समूह के एक व्यक्ति के आचरण को समूचे समूह का सामूहिक आचरण मान लेते हैं। मसलन यदि किसी समुदाय या सम्प्रदाय का एक आदमी आतंकवादी हुआ तो यह दूसरा समुदथय उस पूरे सम्प्रदाय को आतंकवादी समझने लगता है। हम अपने समुदाय के लोगों की ऐसी प्रकृति को आत्मकेंद्रित कहते हैं और दूसरे समुदाय के लोगों उसी स्वभाव को ‘डेवियेंट’ कहने लगते हैं। अगर कोई आपसे पूछे कि आप जिस सम्प्रदाय या जाति के हैं उसके किस खास गुण से आप प्रभावित हैं। तो आपका उत्तर बड़ा भ्रमित होगा। आप किसी खास आदमी के किसी गुण का सर्वस्व प्रभाव खुद पर नहीं स्वीकार पायेंगे और आपका मानना होगा कि जाति या धर्म के समस्त दर्शन ही प्रभावोत्पादक हैं। हर आदमी में अलग अलग खूबियां या खराबियां होतीं हैं जैसे हाथ की सारी उंगलियां बराबर नहीं होतीं उसी तरह हमारे समाज के सारे लोगों में सारी खूबियां या खराबियां नहीं हैं। पर यही बात जब दूसरे समूह या जाति या सम्प्रदाय के सम्बंध में होती है तो हर आदमी उन्हें समान व्यवहार का मानने लगता है। जब कोई बात हम सच मान लेते हैं तो आप सबूतों से उसे जल्दी झूठला नहीं सकते हैं। हम इधर उधर से हकीकत के चंद टुकड़े जोड़ कर एक सम्पूर्ण सच का स्वरूप बना देते हैं और असके प्रतिगामी किसी भी तथ्य को मानने सेइंकार कर देते हैं। हमारे भीतर एक भरोसा पैदा हो जाता है कि जो वे जानते हैं वही सही है। अब जो उसे झुठलाता है चाहे इंसान हो, या सबूत हम उसे स्वीकार नहीं करते। इस भरोसे को दृढ़ बनाने में जाति और धर्म सबसे ज्यादा ताकतवर तंत्र हैं। हम अपनी जाति या धर्म के लोगों के बचि ज्यादा सुकूनभरा या महफूज मानते हैं औरों के बीच हालात थोड़े तकलीफदेह हो जाते हैं। राजनीति पर इसका प्रभाव साफ दिखता है और राजनीतिज्ञ इस सामूहिक स्वभाव का पूरा लाभ उठघ्ते हैं। आज हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यही है। राजनीतिज्ञ इंसान या जातियों की इसी कमजोरी का इस्तेमाल करते हैं और उसे दूसरा नाम देते हैं।
जो आप तो लड़ता नहीं
कटवा किशोरों को मगर
आश्वस्त होकर सोचता
शोणित बहा, लेकिन ,
गयी बच लाज सारे देश की
इसलिये जरूरी है कि हम पहले समस्या को समझें।
कुरुक्षेत्र में जली चिता
जिनकी वह शांति नहीं थी
अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली
वह दुश्क्रांति नहीं थी
अत: जरूरी है कि इसमें राजनीतिज्ञों और निहित स्वार्थी तत्वों को शामिल ना कर अपने ही समूह या इतर समूहों से विचार करें। खुद को प्रशिक्षित करना जरूरी है वरना इंसानी नस्ल के बदल जाने का खतरा पैदा हो सकता है।
शांति-बीन बजती है,तब तक
नहीं सुनिश्चित स्वर में
सुर की शुद्ध प्रतिध्वनि जबतक
उठे नहीं उर उर में
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