हाल में एक रिपोर्ट आयी थी जिसमें बढ़ती आबदी और खेतो के सिकुड़ने की समीक्षा की गयी थी। यह एक खतरनाक संकेत था। रपट के मुताबिक आज दुनिया की आाबदी 7.2 अरब है। 26 वर्ष पहले यानी 1990 में यह 1.6 अरब थी। 26 वर्षों मे आबादी साढ़े पांच गुना बग्ढ़ गयी। यह केवल दुनिया भर की बात नहीं है बल्कि भारत में भी जनसंख्या बढ़ रही है। इस जन संख्या के आवास निवास के लिये जमीन सिकुड़ती जा रही है क्योंकि शहर फैल रहे हैं। खेत कम हो रहे हैं जंगल कट रहे हैं और उनपर कंक्रीट के वन उग रहे हैं। रपट के मुताबिक वैश्विक आबदी के बढ़ने की वतर्नमान दर कायम रही तो 2050 में दुनिया की आबदी 9.6 अरब और सन 2100 में यह 10.9 अरब हो जायेगी। भारत की त्रासदी और ज्यादा है। यूरोप और उत्तरी अमरीका में जहां 4 से पांच प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है वही भारत में 47 प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर हैं। अगर , जैसा कि सरकार कह रही है कि सर्विस सेक्टर और उत्पादन क्षेत्र में भारी विकास होगा तब भी हमारी जनसंख्या वृद्धि की जो दर है उसके अनुसार 2030 तक हमारे देश की आबादी चीन से ज्यादा हो जायेगी और उस समय भी लगभग 42 प्रतिशत लोग खेती पर ही निर्भर होंगे। अतएव इस क्षेत्र का विकास और इसकी समृद्धि हमारे देश के लिये बेहद महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि 2016 के बजट में सरकार ने कृषि के लिये पृथक आवंटन किया है। 2020 तक किसानों की आमदनी बढ़ाने महत्वाकांक्षी योजना बनायी गयी है। इसके लिये भूमि सुधार ,ग्रामीण सड़क निमार्ण सिंचाई, उरवर्क, और प्रभावशाली फसल बीमा योजना बनायी जा रही है। लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है अनाज उत्पादन में वृद्धि के प्रयास , इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। किसानों की आय बढ़ाने के लिये जरूरी है कि खेती में लागत को कम किया जाय और फसल को बढ़ाया जाय। इसके लिये जरूरी है कि कृषि में वैज्ञानिक विकास हो और इेसी तकनीक तैयार की जाय जिससे किसानों को फसल की हिफाजत के लिये रासायनिक खादों पर निर्भर ना रहना पड़े। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अक्सर कहा करते थे कि ‘सभी चीजें बाद में करने के लिये छोड़ी जा सकती हैं पर खेती नहीं।’ आजादी के बाद इस पर बल दिया गया और बड़े बड़े बांध बनाये गये। इसका उद्देश्य था बिजली उत्पादन और बड़े क्षेत्र में सिंचाई की व्यवस्था। लेकिन 1960 के आसपास भारत में अनाज का भारी असंतुलन हो गया। इसके लिये वामन (ड्वार्फ) प्रजाति के धान गेहूं की बुवाई शुरू हुई और कहा जाता है कि एशिया में हरित क्रांति आ गयी। आई आर 36 और आई आर 64 जैसी धान की किस्में अभी भी भारत में लोकप्रिय हैं। इनका विकास फिलीपींस में हुआ था। इसके बाद माइक्रो बायलॉजी के क्षेत्र में विकास हुआ ओर जेनेटिकली मोडिफायड अनाज का आविष्कार हुआ। इसका उद्देश्य था उत्पादन में वृद्धि। लेकिन पता नहीं किस निहित स्वार्थ के चलते इसके बारे में यह अफवाह फैल गयी कि यह सुरक्षित नहीं है। जबकि यूरोप और अमरीका में गत 15 वर्षों से इसका उपयोग हो रहा है और शिकायत देखने को नहीं मिली है। 2025 में हमारे देश में 30 करोड़ टन अनाज की आवश्यकता आंकी गयी है और इसके लिये जरूरी है कि हम हर वर्ष कृषि उत्पादन में 4 प्रतिशत वृद्धि की दर बनाये रखे जो एक अत्यंत कठिन लक्ष्य है। क्योंकि हमारे प्राकृतिक साधन सिकुड़ते जा रहे हैं और कृषि में निवेश घटता जा रहा है साथ ही आबादी बढ़ती जा रही है। खद्यान्न में वर्तमान की स्थिति बनाये रखने के लिये जरुरी है कि हम 50 लाख टन खाद्यान्न की वार्षिक वृद्धि की दर कायम रखें। भारत सरकार की संस्था कृषि अनुसंधान परिषद लगातार प्रयास कर रही है कि कुछ इेसी किस्में विकसित की जाएं जो हालात का मुकाबला कर सकें। इसके अलावा वैकल्पिक फसलों की भी योजना है। इसके लिये जरूरी है कि उपज को अस्थिर बनाने वाले कारकों की पड़ताल की जाय और उन्हें समाप्त कर दिया जाय। इससे उम्मीद है कि आने वाले दिनों में हम विकास का लक्ष्य कायम रख सकते हें और देश की जनता को भूख से निजात दिला सकते हैं। यदि अनाज की किस्मों और संकरों में रोधिता को वांछित स्तर दिया जाय और कीट विनाशक तकनीक को बढ़ावा दिया जाय तो अनाज की बर्बादी रुक सकती है। इसके लिये जरूरी है कि हम खुद के भीतर झांके और यह पता करें कि अगले दशक में उत्पादन की वर्तमान दर बनाये रखने में हम सक्षम हैं या नहीं।
Friday, July 8, 2016
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