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Sunday, July 24, 2016

महसूस कीजिए जिन्दगी के ताप को

इन दिनों गाय को लेकर दलित और समाज के दूसरे वर्ग आमने सामने हैं पूरा देश गौ राजनीति (‘काउटिक्स’ यानी काउ पॉलिटिक्स) के विभिन्न पहलुओं पर सक्रिय है। वैसे गाय हमारे देश में ऐतिहासिक काल से पूजनीय मानी जाती रही है और यह सही दर्शन भी है। लेकिन इसका एक पक्ष है जो सियासत की डोर से बंधा है वह है राजनीति में सत्ता हासिल करने के लिये गाय का उपयोग। अभी हाल में गाय को लेकर ही सियासत में गर्मी आ गयी। इसका नतीजा जो हुआ उससे अगर गौ राजनीति करने वाले लोग सबक नहीं लें तो परिणाम बड़े घातक हो सकते हैं। गो हत्या के आरोप में अक्सर बलवा हो जा रहा है। हालात इतने नाजुक हो गये हैं कि गृह मंत्रालय द्वारा संसद में पेश रपट के अनुसार विगत पांच महीनों में देश में 278 दंगे हुये जिनमें , इन दंगों का कारण या तो गाय थी या साम्प्रदायिक विद्वेष। अभी हाल में गुजरात के उना में एक मृत गाय का चमड़ा उतारते कुछ लोगों पर गौरक्षा के ‘योद्धा’ टूट पड़े और अन्हें जम कर पीटा। चार घंटे तक उन्हें मारते पीटते रहे और उना शहर में उनको घुमाया गया। पुलिस से शिकायत की गयी पर पुलिस ने कुछ नहीं किया। जो लोग मार खा रहे थे वे उस अतिदलित वर्ग की एक जाति के थे जिनका पुश्तैनी काम मृत गायों का चमड़ा उतारना, हड्डी को अलग करना , गय के पृत अवशेष का हटाना  और बाद में चमड़ा तथा हड्डी का व्यापारिक उपयोग करना रहा है। इस घटना के पश्चात दलितों में गुस्सा उबल पड़ा। गुजरात के कई क्षेत्रों में पथराव हुये, हमले हुये और कई लोगों आत्मदाह की होशिश की। इसकी चिंगारी देश भर में यहां तक संसद में भी छिटक कर आयी और वहां भी धुआंता सा गुस्सा दिखायी पड़ा। गुस्से से प्रदर्शन इत्यादि देश में कोई नयी बात नहीं है पर इस बार इन्होंने जो किया वह एक अजूबा था। उनलोगों ने राज्य भर में मृत पशुओं को उठाने का काम छोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि दो ही तीन दिनों में राज्य भर में मृत पशओं की बड़ी संख्या पड़ी पड़ी सड़ने लगी। इसमें गाय , बैल , भैस और कुत्ते ज्यादा हैं। पूरे गुजरात में कितने पशु मरे पड़े हैं इसका अंदाजा अभी नहीं लगाया जा सकता है। फकत उना के पिंजरापोल में 22 जुलाई तक 38 गायों की मृत देह पड़ी हुई थी। कल्पना करें, अगर देश भर के दलितों ने यह फैसला कर लिया तो क्या होगा? एक विकराल नागरिक समस्या पैदा हो जायेगी। हालांकि सरकारी तौर पर इस पर रोक है पर आज भी मानव मल इत्यादि भरे टैंक्स या नालियों तक की सफाई का कार्य दलित समुदाय के जिममे है। विखयात समाज शास्त्री आंद्र बीटिल ने भारत के दलितों की प्रशंसा करते हुये लिखा था कि ‘कुछ लोगों को जुगुप्सापूर्ण कार्य इसलिये करना पड़ता है कि समाज के बाकी लोग साफ- सफाई से रह सकें।’ हड़तालियों का कहना था कि ‘हम सभी अत्यंत गंदे काम करते हैं और उसे करने के लिये पीटे भी जाते हैं तो फिर हम वैसा क्यों करें?’ हमलावर जानते हैं कि यह उनका पुश्तैनी काम है और ना करें तो भारी सामाजिक विपर्यय हो सकता है। फिर भी ऐसा करते हैं। अखबारों की खबर के मुताबिक जिस वाहन पर हमलावर सवार हो कर आये थे उस पर शिव सेना का स्टीकर चिपका था। आंदोलनकारी दलितों के नता से सुंदरनगर के जिला मजिस्ट्रेट ने बातें करने का प्रयास किया। गुजरात में एक गाय या अन्य पशु की मृतदेह हटाने के लिये नगरपालिका 250 रुपये देती है। दलितों के नेता ने वार्ता के दौरान जिला मजिस्ट्रट को ऑफर दिया कि ‘जो सरकारी अधिकारी इन मृतदेहों को हटायेगा उन्हें हम 500 रुपये देंगे। ये गायें आप सबों की मां है न, आप इनका क्रियाकर्म करें।’ कुछ आंदोलनकारियों ने तो अन्य स्थानों से मरी गाएं लाकर सरकारी कार्यालयों के सामने गिराना शुरू कर दिया है। वहां एक ट्वीट चल रहा है ‘आप सबों की माएं हैं आप सब इनका संस्कार करें।’ गैरक्षा के नाम पर कुछ लोग देश भर में इसी तरह का उत्पात मचाये हुये हैं। वे पशु विक्रताओं को भी मार पीट रहे हैं। ये लोग खुल्लम खुल्ला कहें या पोशिदा ढंग से कहें दक्षिणपंदा सियासी पार्टियों की शह पर ऐसा कर रहे हैं। हालांकि यह कानून और व्यवस्था का मसला है जो राज्य के अधीन आता है पर जबसे दिल्ली मे मोदी जी की सरकार आयी है तबसे इन घटनाओं में तेजी आ गयी है। दादरी की घटना पर मोदी की चुप्पी के बाद गुजरात की इस घटना पर उनका कुछ नहीं कहना इसी बात की ओर संकेत दे रहा है। यकीनन इस घटना का देश भर में असर पड़ेगा खास कर उत्तर प्रदेश में जहां अगले साल चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश में 21 प्रतिशत दलित हैं और उनका वहां की राजनीति पर व्यापक असर है। हमारे यहां गावों में एक कहावत है कि ‘गाय पालेंगे तो गोबर कौन उठायेगा।’ अगर अभी नहीं चेते तो दक्षिणपंथी राजनीति के इस कार्य का प्रतिफल पूरे देश को भुगतना पड़ेगा। एक बार बात बिगड़ी और अगर इसका कोई सिरा पहचान की राजनीति से जुड़ा तो आने वाले दिन बड़े दुखदायी हो सकते हैं। क्योंकि भारतीय राजनीति का उदय ही पहचान की बात से हुआ है। अभी समय है वरना आइडेन्टीटी पॉलिटिक्स बहुत बड़ा नुकसान करेगी।

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