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Friday, March 17, 2017

विजेता और पराजित

विजेता और पराजित 

भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश में भरी विजय हो सकता है उसमें प्रचंड आत्मविश्वास भरा दम्भ पैदा कर दे जो स्वाभाविक भी है लेकिन अगर विपक्षी दलों की हार से उनमें हताशा जन्य भीरुता भर जाये तो क्या होगा? दोनों स्थितयां स्वाभाविक हैं। नरेंद्र मोदी ने लाजवाब राजनितिक विजय हासिल की हैं। चुनाव के पहले तमाम खोखली अटकलें चल रहीं थीं और चुनाव के जब नतीजे आये तो विश्लेषणों की झड़ी लग गयी। साड़ी बातों में एक ठोस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता कि मोदी जी भारत के लोकलुभावन  राजनितिक इतिहास के अद्वितीय फिनोमिना होंगे। उन्होंने मुकाबले में खड़े होने वालों को मामूली बना दिया।उन्होंने सकल भविष्य वाणियों को अंगूठा दिखा कर  अपने हाथ की लकीरें खुद खीचीं।कोई भी अभिसामयिक व्याख्या मोदी के सन्दर्भ में लागू नहीं होगी। मोदी जी की सबसे बड़ी खूबी है कि उन्होंने सभी विरोधी दलों को क्लांत, भ्रष्ट और अतीत के नकारात्मक प्रतीक के रूप में बदल दिया। देश की जनता ने मोदी को सदाचारी , आशाजनक ,सदाचारी भविष्य के संचालक के तौर पर स्वीकार किया है। चुनाव के नतीजों ने भा ज पा के वर्चस्व को और शक्तिपूर्ण बना दिया। यह शक्ति तब और ज्यादा बढ़ जाती है जब हम उसे सामाजिक वर्चस्व के सन्दर्भ में व्याख्यायित करते हैं। भ ज प् का सामाजिक आधार बहुत ठोस और विस्तृत हो गया है। उन्होंने जातीय अंकगणित की कठोर दलीलों को झुठला दिया।इसने जातिगत सियासत के नियमों को बदल दिया और एक नई  कथा लिख दी। सतही समाज शास्त्रियों ने इस तथ्य को इंकार कर दिया कि लोग मिली जुली पार्टियों की सरकारों से ऊब चुके हैं और किसी एक को विजयी बनाना चाहते हैं। अब मोदी जी की विजय देश की कई लोकतान्त्रिक संस्थाओं को नया स्वरुप देने में कामयाब होगी। वे हो सकता है कि नए संविधानिक संशोधन भी कर सकते हैं।
अब देश भ ज पा के असाधारण वर्चस्व के युग में प्रवेश कर रहा है।सभी संस्थानों की नए ढंग से परीक्षा होगी। हम मोदी की चाहे जितनी आलोचना कर लें पर उसका कोई औचित्य नहीं होगा। हम यह ज़रूर सोच सकते हैं कि मोदी को इतनी बड़ी फतह कैसे मिली? अगर मोदी जी को इतनी बड़ी सफलता मिली है तो इसमें अमित शाह और उनकी टीम की भी बहुत बड़ी भूमिका है।  लेकिन इस सबमें किसी सैद्धान्तिक आख्यान की पड़ताल बहुत कठिन है। क्या यह राष्ट्रवाद है या नोट बंदी से निर्मित एक सामाजिक वातावरण है या बहुलतावाद की एकजुटता का परिणाम है या फिर केवल यह भाव कि मोदी काम से कम कुछ करना चाहते हैं।  ये सारे विकल्प विश्लेषक के राजनितिक संबद्धता को बता सकता है न कि हकीकत को। हो सकता है बहुतों ने इसे न समझा हो पर 2014 से एक नयी राजनितिक भाषा और आकांक्षा का विकास हो रहा है।इसमें लोक प्रलोभन तो है पर प्रलोभन देने वाला इतना तो कहता है कि थोड़ा बर्दाश्त करें हमारा साथ दें। जनता ने उनका साथ दिया। इसमें राष्ट्रवाद और बहुलतावाद तो है पर साथ ही इसमें प्रोग्रेसिव उम्मीदें भी जुड़ी हुईं हैं।  लेकिन जो बात विपक्ष को चिंतित कर रही है वह है कि मोदी जी ने उन्हें राजनीती के हर स्तर पर धूल चटा दिया। उन्होंने नोट बंदी को लेकर भ्रष्टाचार विरोधी छवि बना ली है। साथ ही उसने गरीब परिवार की अपनी छवि को भी चमका लिया है। विपक्ष के पास ऐसा कोई मसला नहीं है जिससे वह मोदी को किनारे कर सके।कांग्रेस को फकत यह तसल्ली है कि आम आदमी पार्टी उसे विपक्ष के स्तर  से विस्थापित नहीं कर सकी। लेकिन कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि राहुल गांधी कांग्रेस के लिए बोझ  बन चुके हैं। मोड़सी ने राहुल को यह बताया कि सत्ता विरासत में नहीं मिलती इसे हासिल करना होता है।
यह परिणाम बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को भरी आघात पहुंचाया है।अगर कोई चमत्कार नहीं होता है तो शायद ही बसपा इस हालत से उठ कर कड़ी हो सके।संकीर्ण जातिगत आधार पर बनी पार्टियों के दिन अब लद गए।   मोदी के इस वर्चस्व के लाभ और हानि क्या हैं इसपर तो बाद में चर्चा होगी पर इस समय केवल यही कहा जा सकता है कि मोदी के सितारे बुलंद हैं। मोदी की विजय पर छाती पीटने वालों से यह पूछा जा सकता है कि उनकी सियासी साख क्यों खत्म हो गयी?

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