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Monday, March 13, 2017

यू पी के चुनाव नतीजों से मिलते संकेत

यू पी के चुनाव नतीजों से मिलते संकेत 

पांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनावों के नतीजों से तीन महत्वपूर्ण राजनितिक निष्कर्ष प्राप्त हो रहे हैं। फलक कि यह कि भारत के सभी सियासी दलों पर नरेंद्र मोदी बहुत भारी पड़ रहे हैं और भारत एक ऐसे वक्त में प्रवेश कर रहा जिसे भारतीय जनता पार्टी के वर्चस्व का युग कहा जा सकता है। इसे रोकने या कहें कि इसके दौड़ते घोड़े की लगाम पकड़ने का एक ही तरीका है कि 1976 में जो राजनितिक गोलबंदी हुई थी वह दुबारा हो। स्पष्ट रूप से विपक्षी एकता. लेकिन अभी देश के राजनितिक क्षितिज पर लोक नायक जय प्रकाश नारायण के कद का नेता दिख नहीं रहा है।दूसरा जो निष्कर्ष है कि कांग्रेस कायम रहेगी। पंजाब में जीत कर कांग्रेस ने यह बता दिया कि वह विपक्ष में सर्वोत्तम है। वह भा ज पा के दिग्विजय की राह में खड़ी रहेगी, अड़ी रहेगी। 
तीसरा निष्कर्ष है कि आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय स्तर पर खड़े होने की अभिलाषा फिलहाल धूल धुसरित हो गयी। पार्टी ने पंजाब में विजय प्राप्त कर राष्ट्रिय कथानक बनना  चाहती थी। साथ ही यह भी पता चल गया कि राजनीती की  परंपरागत प्रक्रिया ख़त्म हो रही है और नई शैली का विकास हो रहा है। आम आदमी पार्टी की इस पराजय से एक सवाल भी उभर कर आ रहा है कि क्या वह अब गुजरात में चुनाव लड़ेगी या दिल्ली में अप्रैल में निगम के चुनाव होने वाले हैं , क्या उस चुनाव में यह पार्टी जीत सकेगी? केंद्र सरकार से पहले से ही इसकी रस्साकशी चल रही है और चुनाव में तो यह निशाने पर रहेगी। 
चुनाव के पूर्व यह कहा गया था कि मोदी की लोकप्रियता की यह  कसौटी है। हवा कुछ ऐसी बानी थी कि कई बड़े नेताओं ने चुनाव लड़ने से किनारा कर लिया। लेकिन मोदी अडिग रहे उन्होंने एक योद्धा की भूमिका निभायी। भा जा पा की विजय यकीनन मोदी की विजय है और उनकी पार्टी चुनावी उपलब्धियों के लिए उन्हीके कन्धों पर टिकी है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि आने वाले दिनों में मोदी भारत और भाजपा दोनों पर छाये रहेंगे।मोदी ने यू पी चुनाव पर इसलिए इतना ध्यान दिया कि जीत का  अंतर ही उनकी ऊंचाई का सबूत होगा। उनका कद जितना बड़ा होगा उनकी पकड़ उतनी मजबूत रहेगी।  वे सत्ता को अपनी मुट्ठी में रखना चाहते हैं और जब तक वे विजयी होते रहेंगे तबतक कोई जबान नहीं खोलेगा। अगले दो वर्षों में देश का राजनितिक आख्यान मोदी के ध्रुवीकरण की ताकत के चारों तरफ बुना जाएगा।एक तरह से ध्रुवीकरण राष्ट्रवाद , सुरक्षा और हिंदुत्व के ध्रुवों पर होगा। ये तीनो मोदी के नेतृत्व में एक दूसरे से  गुंथ चुके हैं। 8 नवम्बर के नोट बंदी की आड़ में गरीबी और ईमानदारी के नाम पर ध्रुवीकरण किया गया। मोदी जी शुरू में ही भांप लिया था कि पश्चिमीउत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट भिखर रहे हैं इसलिए उन्होंने चुनावी हवा को पूरब की और आने दिया और उसके बाद मामले को सांप्रदायिक मोड़ दे दिया।इसके अलावा जो लोग राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, देशभक्ति और संस्कृति  के विरोद में पंजे लड़ा रहे हैं उन्हें अब निजात नहींब मिलने वाली क्योकि यही अब राजनीति की मुख्य धारा बन गयी है।जो लोग हिन्दू भावना की मुखालफत की दिशा में सोचते हैं उन्हें किनारा कर दिया जा सकता है। इस नजरिए से देखें तो महसूस होगा कि भारतीय राजनीति दक्षिण पंथ की ओर मुड़ रही  है। देश की राजनीति का यह मुड़ना केवल सामाजिक सांस्कृतिक आयामों तक नहीं सिमित रहेगा बल्कि इसकी झलक  आर्थिक सतहों पर भी दिखेगी। नोट  बंदी का गरीबों पर भरी असर पड़ा है पर आशाजनक संदेशों के व्यूह में फंसा गरीब इंसान उसे महसूस नहीं कर पा रहा है। जब संदेशों का तिलस्म टूटेगा  तब बात समझ में आएगी। जबतक लोग नीतियों के अच्छे नतीजों के बारे में मुतमईन रहेंगे तबतक आथिक दुस्साहस के अच्छे परिणाम के मामले में मुतमईन रहेंगे तब तक कोई गड़बड़ी नहीं होगी।अब मोदी का कद जैसे जैसे बढ़ेगा विपक्षी लघु से लघुतर होते जायेंगे। वे जितना छोटा होंगे विपक्षी एकता कीजरूरत उतनी ज्यादा बढ़ती जायेगी।हो सकता है भविष्य में मायावती और अखिलेश मिल जाएं । समाजवादी पार्टी के खराब परफॉर्मेन्स के कारण अखिलेश दबाव में आ सकते हैं। हो सकता है वे पिता की शरणमें जाएँ। 
मायावती और उनकी पार्टी का भविष्य बहुत अच्छा नज़र नहीं आ रहा हैमाने वाले दिनों में भा ज पा मायावती की आय की जांच भी करवा सकती है। नोट बंदी के बाद मायावती के भाई ने बैंकों मेंजो रूपए जमा करवाये थे उसके बारे में अखबारों में पहले भी खबर आ चुकी है। सपा की यह स्थिति दलित आंदोलन  के लिए भी ख़राब  खबर  हो सकती है। उन्हें अब खुद के लिए और पार्टी के लिए नए उपाय तलाशने होंगे।हो सकता है वह कांशी राम मार्का सियासत का सहारा लें और नारे लगाने लगे " तिलक , तराजू और तलवार इनको मारियो जूते चार । "  ऐसा भी हो सकता है कि वे भा ज पा की शरण में आ जाएं । 
भा जा पा की मुस्लिम भीति भी बढ़ सकती है। यह भी हो सकता है कि हिन्दू रूढ़िवादी तत्त्व और उदंड हो जाएं तथा गो रक्षा वाला तमाशा फिर से जोर पकड़ ले। अगर होता है तो मुस्लिम खुद को और असुरक्षित महसूस करने लगेंगे और राज्य का मन दो संप्रदायों में विभाजित हो सकता है।
पंजाब में जीतने के कारण जैसे तैसे कांग्रेस की लाज बच गयी। यह महत्वपूर्ण है कि उसे त्रिकोणात्मक संघर्ष में कामयाबी मिली।2004 से इसने एक नयी रणनीति अपनाई है ।जिस राज्य में बहु दलीय मुकाबला है वहाँ वह किसी न किसी से हाथ मिला लेती है। अब अगली परीक्षा गुजरात में होगी जहां कांग्रेस थोड़े आत्मविश्वास के साथ मैदान में उतार सकती है।
इन चुनावों के आईने में अगर 2019 के चुनाव की झलक न दिखे तो बात अधूरी रह जायेगी। आज मोदी इंदिरा गांधीकी तरह बलशाली हो चुके हैं। विपक्ष केवल उन्हें पराजित करने की सोच सकता है पर पर तबतक ऐस्वा नहीं हो सकता जबतक विपक्ष एकजुट ना हो जाए।
इस विजय के कारण देश के सियासी सोच के मामले में भी भरी बदलाव आ सकता है। राष्ट्रपति चुनाव और जी एस टी जैसे मामलों में भा ज पा की बात ही अंतिम होगी। यही नहीं यख अपने वैचारिक एजेंडे को भी लागू कराने की दिशा में कदम बढ़ा सकती है।कश्मीर में धारा 370, सामान नागरिक संहिता इत्यादि को भी हाथ लगाया जा सकता है।

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