जी हां , कठोर परिश्रम जरूरी है पर …
बेशक कुछ खास मौकों के कुछ खास जगहों पर अलग अलग मायने होते हैं। उत्तर प्रदेश में एक चुनाव सभा में भाषण का अर्थ दूसरा होता है और केरल में विश्वविद्यालय में भाषण का अलग अर्थ होता है। बीते एक मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में एक चुनाव सभा में नोटबंदी के विरोधी अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन पर तंज करते हुये कहा कि ‘हार्वड से हार्ड वर्क’ कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस क्रम में प्रधगनमंत्री जी ने हार्वड को बौद्धिक जीवन का बिम्ब बना दिया जो कठोर श्रम का विरोधी है। वे इस क्रम में किसानों की मेहनत को एक वस्तु के रूप में ढाल रहे थे , जी हां ठोस जिनस के स्वरूप में ओर उसे उदाहरण का मेटाफोर बना रहे थे। वे यह अभिव्यकत करना चाहते थे कि विश्वविद्यालय चाहे जो हों फकत किताबी ज्ञान देते हैं जो कि कठोर हकीकतों से दूर होते हैं। उन्होंने इस क्रम में यह बताया कि नोटबंदी का फायदा किसान समझते हैं जबकि हावर्ड के पड़े लोग इसे नहीं महसूस कर रहे हैं।
आंख पर पट्टी रहे अक्ल पर ताला रहे
अपने शाहे वक्त का यूं मर्तबा आला रहे
प्रधानमंत्री का यह ‘प्रवचन’ रामजस कॉलेज में गुंडागर्दी के कुछ ही दिन बाद हुआ। ऐसा लगता है कि अपने भाषण से वे उच्च शिक्षा पर प्रहार करना चाह रहे हों। प्रधानमंत्री के भाषण के ठीक दूसरे दिन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने कोच्चिं में के एस राजमणि व्याख्यान देते हुये जो कहा वह प्रधानमंत्री के भाषण का विरोध करता हुआ सा दिख रहा है। राष्ट्रपति ने कहा कि ‘विश्वविद्यालय में मुक्तचिंतन की अनुगूंज होनी चाहिये। भारत में असहिष्णुता का कोई स्थान नहीं है।’ यहां यह महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री के भाषण की आलोचना जो सेन समर्थकों ने देश भर में, खासकर बंगाल में , शुरू की उसे राष्ट्रपति , जो सेन की तरह बंगाल के ही मूल निवासी हैं, ने भी जारी रखा। अब सवाल है कि क्या सचमुच राष्ट्रपति , जो खुद कॉलेज शिक्षक रह चुके हैं, प्रधानमंत्री के हार्वड वाली टिप्पणी का विरोध कर रहे थे? अगर बारीकी से देखें तो यकीनन वे विरोध कर रहे थे। राजनीति से अलग भी अगर देखें तो अमर्त्य सेन पर प्रदामेंत्री टिपपणी सही नहीं कही जायेगी , क्योकि नोबेल पुरस्कार के अलावा अमर्त्य सेन को भारत रत्न और विश्वभारती विश्वविद्यालय का सर्वोच्च सम्मान ‘देशिकोत्तम’ भी उन्हें प्राप्त है। दिलचस्प यह है कि प्रधानमंत्री ही विश्वभारती के कुलाधिपति हैं। यहां यह बताने की जरूरत नहीं है कि विज्ञान और समाज शास्त्र में उच्च शिक्षा तथा अनुसंधान ओर उसकी प्रयुक्ति के लिये कितना कठोर परिश्रम करना होता है। इसमें बहुत ज्यादा बौद्धिक ओर शारीरिकऊर्जा की जरूरत होती है। अब शिक्षा और बौद्धिकता की खिल्ली उड़ाने का मतलब है कि विकास, जीवन यापन की गीणवत्ता और विश्व के प्रतिचेतना का अनदेखी किया जाना। खासकर एक ऐसे व्यक्ति का जिसने देश और व्यापक तौर पर कहें कि सकल मानवता के विकास के लिये जो किया है वह वोट लोलुप और स्वार्थी सियासत कभी नहीं कर सकती थी।
खुद को जख्मी कर रहे हैं गैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बांकपन तक ले चलो
यही नहीं राट्रपति ने कोच्चि में कुछ और भी कहा जो प्रशंसनीय है। एक तरफ गुरमेहर कौर की जुबान बंद करने कोशिशें की जा रहीं हैं ओर वहीं दूसरी तरफ केरल में, जहां महिला शिक्षादर भारत में सर्वाधिक 92 प्रतिशत है,राष्ट्रपति द्वारा यह कहा जाना कि ‘महिलाओं की सुरक्षा हमारी राष्ट्रव्यापी प्राथमिकता होनी चाहिये। किसी भी समाज की परख उस की महिलाओं और बच्चों के प्रति प्रवृति से होती है। भारत को इसमें नाकाम नहीं होना चाहिये।’ क्या उनका यह कथन गुरमेहर कौर और बेला भाटिया की ओर इशारा नहीं करता। इन दोनों को अपने साहस पूर्ण बौद्धिक के कारण कठिनाइयें का सामना करना पड़ रहा है। इनके अलावा बहुत सी महिलाएं हैं जो सामाजिक कारणों का शिकार हो रहीं हैं।
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है
कल महिला दिवस है। उस दिन यही नेता अपने भाषणों में लक्ष्मी बाई , जीनत महल, प्रीतिलता वाडेदर, कल्पना जोशी, अमृत कौर, लक्ष्मी सहगल इत्यादि महिलाओं के नाम पर तालियां बजवायेंगे। इसमें यदि किसी ने उन आंकड़ों की तरफ इशारा किया कि आखिर क्यों 70 प्रतिशत महिलाएं अपने काम काज में यौन शोषण का शिकार होती हैं और असकी शिकायत नहीं कर पातीं तो सवाल पूछने वाले की दुर्गति निश्चित है। इस डर से जागते सवालों को नींद की गोलियां खिलायीं जा रहीं है।
अब इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी बात पर खुलती नहीं खिड़कियां
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