जो आप तो लड़ता नहीं …
एक नवयुवती की जबान इसलिये बंद करने की कोशिश की जा रही है कि उसने युद्ध को आपसी नफरत का नतीजा बताया और कहा कि यह यानी आपसी नफरत अगर ना हो तो जंग ना हो। विख्यात दार्शनिक बट्रेंड रसल ने कहा है कि ‘युद्ध विखंडतावादी राजनीति की देन है। राजनीतिज्ञ दंश के लोगों को बांट कर उनमें नफरत फैला कर लाभ उठाते हैं। हम लड़ते इसलिये हैं कि हम भीतर से लड़ रहे हैं। भीतर से टूट रहे हैं।’ हमने कभी कोशिश नहीं की घृणा और सदभाव के मध्य खड़े होकर देखें कि दरअसल यह क्या है?
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत || |
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् |
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ||
हमें तो हांका जाता है कि लड़ो और मरो। जवानी की दहलीज पर खड़ी उस लड़की गुरमेहर ने यही तो कहा था कि हमारे पिता को दुश्मनों ने नहीं युद्ध ने मारा अगर युद्ध नहीं होता तो वे अबी जीवित होते। लेकि युद्दा होते हैं और इसके खिलाफ बोले जाने वालों को बहुत कुछ सहना होता है।
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?
आज हमारे देश में दो बातें हो रहीं हैं पहली कि बेवजह बात को बतंगड़ बनाया जा रहा है और दूसरी कि उस बतंगड़ को लेकर चर्चा होने लग रही है। उस चर्चा के बाद तनाव का वातावरण बन जा रहा है। हर बात को देश की लज्जा विषय से जोड़ दिया जा रहा है। कोई नहीं जानता कि यह लज्जा क्या है?
ईश जानें, देश का लज्जा विषय
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
विख्यात इतिहासकार चार्ल्स टिली ने लिखा है कि ‘हमारे नेता और राजनीतिज्ञ बाहरी हमले का स्वांग तैयार करते रहते हैं ओर कई बार तो खुद ही इसकी पटकथा लिख देते र्हैं। ’ यहां कहने का मतलब यह नहीं है कि हमें शासन को अमान्य करना चाहिये या फौज को समाप्त कर देना चाहिये। जरूरी है कि सरकारों द्वारा की जा रही कथित सुरक्षा व्यवस्थाओं की आम जनता द्वारा भी समीक्षा की जानी चाहिये। न कि जिज्ञासा जाहिर करने या सरकार पर उंगली उठाने के लिये हमें दंडित किया जाय। सरकारें अक्सर युद्ध का इस्तेमाल करतीं हैं चाहे वह लड़े जाएं या नहीं। बाज मौकों पर वह इसका उपयोग हमारे ध्यान को विचलित करने के लिये करतीं हैं तो कभी राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिये। बेशक युद्ध में शहीद हो गये फौजियों का सम्मान किया जाना चाहिये पर उनको इतना गौरवान्वित नहीं किया जाना चाहिये कि वह जंग लड़ने का बहाना बन जाय और हम शांति खोजने या शत्रुता समाप्त करने के उपायों पर विचार ही ना करें।
जंग में शहीद होने वालों को इतना ज्यादा गौरवान्वित किये जाने के पीछे सरकारों की चाल यह हुआ करती है कि अमन के उपाय खोजने की मुश्किलों का सामना ना करना पड़े।
और तब सम्मान से जाते गिने
नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
देश की इज्जत बचाने के लिए
या चढा जिनने दिये निज लाल हैं।
युद्ध में शहीद हो जाने पर उन शहीदों को गौरवान्वित करने से बेहतर है कि युद्ध रोके जाएं क्योंकि उन जवानों की जान भी उतनी ही कीमती है जितनी एक राजनीतिज्ञ की। लेकिन हो उल्टा रहा है। फौज की आंतरिक व्यवस्था पर अंगली उठाने वाले तेज बहादुर का शव मिलता है और एक शहीद कैप्टेन की बेटी को मानसिक तौर प्रताड़ित किया जाता है। इनके बीच कितना कुछ अजाना पड़ा है यह भगवान ही जानें।
वह कौन रोता है वहां-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्यावहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है
सरकारें आमतौर पर जंग की आग भड़का देना आसान समझतीं हैं। एक तरफ तो हमारे नेता मैत्री का दिखावा करते हैं, झगड़े सुलझाने का ढोंग रचने हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण है कि जब मोदी नवाज शरीफ के जनम दिन पर अचानक जा पहुंचे। इसे प्रचारित किया गया सद्भाव बड़ाने की कोशिश के रूप में , लेकिन जब एक लड़की पुद्ध को मिटाने की बात करती है तो मोदी जी की ही पार्टी के नेता उसे प्रदूषित दिमाग वाले बताते हैं। कैसी विडम्बना है यह।
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
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