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Wednesday, March 29, 2017

राहुल गांधी के लिए अंतिम मौका

राहुल गांधी के लिए अंतिम मौक़ा 
देश में  बहुत लोगों का मानना है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गंधियो एक नाकामयाब नेता हैं। इस धारणा के क्रांस्वरूप उनका तर्क है कि हर बार वे असफल होते पाए गए।उधर कांग्रेस मुख्यालय से खबरें मिल रहीं हैं कि राहुल गांधी को जल्दी ही शीर्ष पद पर आसीन किया जाएगा।उत्तरप्रदेश की करारी पराजय के बावजूद कांग्रेस यह निर्णय करने जा रही है। राहुल गांधी के विरोधी या यों कहें आलोचकों का कहना है कि यह आत्मघात है, पार्टी खुद को बर्बाद करने की ओर कदम बढ़ा रही है , कुछ कह रहे हैं कि यह " हाराकिरी" है। लेकिन उनके समर्थकों का मानना है कि आज नहीं कल राहुल एक अपराजेय नेता बनेंगे, हपनी नाकामयाबियों से सीखेंगे। पार्टी के एक महासचिव का कहना है कि क्या प्रधान मंत्री बनने के पहले नरेंद्र मोदी की वर्षों  आलोचना नहीं हुई थी। पार्टी के वरिष्ठ नेता शकील अहमद का  कहना है कि" राहुल गांधी को जितनी जल्द हो हमारा सर्वोच्च नेता और पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए। लेकिन यह सोनिया गांधी पर निर्भर करता है कि वे क्या फैसला करती हैं। ये वह तय करेंगी कि कब राहुल को पार्टी की कमान सौंपी जाय। लेकिन पार्टी में सब चाहते हैं कि राहुल हमारे अगले अध्यक्ष बनें।" जो संकेत मिल रहे हैं उन्हें अगर माना जाय तो कहा जा सकता है कि मोदी की भूमि और गुजरात की प्रयोगशाला गुजरात में चुनाव के पहले राहुल गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया दिया जाना चाहिए। इसका अर्थ है कि राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाया दिया जाना लगभग तय है और प्रियंका गांधी उनकी मदद करेंगी। इस  बार राहुल के ही नेतृत्व में कांग्रेस गुजरात में मोदी की चुनौतियों का सामना करेगी। कहा तो यह जा रहा है कि देश भर के प्रति कार्यकर्ता चाहते हैं कि प्रियंका गांधी ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाये। अब यह प्रियंका गांधी पर निर्भर करता है कि वे अमेठी और राय बरेली से आगे कदम बढ़ाएं। यह भी हो सकता है कि गुजरात चुनाव के पहले राहुल गांधी को अध्यक्ष ना भी बनाया जाय।  उन्हें उपाध्यक्ष के रूप में ही "समर संयोजन" का एक मौक़ा दिया जाय , क्योंकि 2014 के लोक सभा चुनाव से अबतक उनकी कजमान में पार्टी हारती रही है और इसके चलते वे मोदी के समर्थकों के लिए   हंसी और व्यंग्य के पात्र बन गए हैं। यहां सबसे बड़ा प्रश्न है कि 2019 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की समर नीति क्या रहेगी? कुछ लोगों का मानना है कि राहुल गांधी की प्रोन्नति सही नहीं कही जा  सकती है, क्योंकि लगातार पराजयों ने साफ़ कर दिया है कि वे नेता के तौर पर माकूल नहीं कहे जा सकते हैं। पार्टी में तो यह भी शिकायत है कि राहुल से मुलाक़ात ही मुश्किल है।" वे पहले पार्टी कार्यकर्ताओं से जुड़ें तब न जानता से जुड़ेंगे।" पार्टी के कार्यकर्ताओं का कहना है कि उनके मुकाबले सोनिया गांधी से मिलना ज्यादा सरल है। दूसरी बात जो पार्टी के नेता कहते सुने जा रहे हैं कि प्रियंका गांधी उनसे ज्यादा समझदार है और उनके साथ काम करना ज्यादा सरल है। 
राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने का फैसला ऐसे वक़्त पर किया जा रहा है जब कांग्रेस दो रहे पर खड़ी है और भा ज पा रोजाना  नए नए राज्यों में जगह बना रही है और सही या गलत जैसे हो नए क्षत्रों में प्रकवेश कर रही है , इससे विपक्ष का दायरा सिकुड़ता जा रहा है।कांग्रेस की नीतियों पर भी भारी आघात पहुंचाए जा रहे हैं। कांग्रेस के सामाजिक न्याय के सूत्र वाक्य " सेकुलरिज्म" का अर्थ मुस्लिम तुष्टिकरण बताया जा रहा है और यही सही यह लोगों को विश्वास दिलाया जा रहा है साथ ही बड़े ही गूढ़ ढंग से बहुलतावादी नीतियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। 500 और 1000 रुपयों के नोट को बंद किये जाने के मोदी के निर्णय ने उन्हें गरीब हितैषी के रूप में चित्रित कर दिया जो कभी कांग्रेस का स्वरुप था। कांग्रेस के " गरीबी हटाओ"के नारे में अब वह आकर्षण नहीं रहा। कांग्रेस का संगठन भी ढीला पड़ रहा है। सभी राज्यों में अंतः कलह और भितरघात बढ़ रहे हैं। राहुल गांधी जिस तरह राज्य पार्टी अध्यक्षों का चयन किया उससे राज्यों में पुराने और नए नेताओं में जोर आजमाइश बढ़ रही है। वास्तविकता तो यह है कि जब कांग्रेस केंद्र में शासनारूढ थी तो राहुल या सोनिया गांधी ने संगठन पर ध्यान दिया ही नहीं।राहुल के सामने दूसरी बड़ी चुनौती है मोदी क्ले लोगों तक पहुंचने की योजनाओं का मुकाबला। भा ज पा और खुद मोदी भी जिस तरह " मोबाइल मैसेज " के माध्यम से लोगो से जुड़ रह है हैं , वह राहुल के लिए भारी पड़ रहा है। खुद मोदी एक अच्छे " कम्युनिकेटर" हैं और वे हरदम इसी कोशिश में रहते हैं कि उनका सन्देश जनता तक सही पहुंचे। कांग्रेस या यों कहें यू पी ए के शासन के खात्मे का सबसे बड़ा कारण था कि इसके तीन बड़े नेता , सोनिया गांधी, राहुल और मनमोहन सिंह' वर्षों तक जनता के बीच गए ही नहीं, किसी से कोई बात ही नहीं की। राहुल को 2013 में कांग्रेस उपाध्यक्ष बनाया गया और साल भर बाद 2014 में लोक सभा चुनाव हुए। इस चुनाव में पार्टी को महज 44 सीटें मिलीं। यह इसका अबतक का सबसे खराब प्रदर्शन था। लेकिन यह अर्धसत्य है। पूरी सच्चाई यह है कि इस चुनाव में कांग्रेस को 19.3% मत प्राप्त हुए थे जबकि भा ज पा को 31% , इसासे ज़ाहिर होता है कि विपक्ष मुकाबला कर सकता है। वह ध्वस्त नहीं हुआ है। राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता। सोनिया गांधी 1998 से पार्टी अध्यक्ष है और 1996 से 2004 तक पार्टी विपक्ष में रही है। इसके बाद पार्टी फिर उठ खड़ी हुई थी। पार्टी को इस समय कड़े फैसले लेने होंगे और निहित स्वार्थी तत्वों से छुटकारा पाना  होगा। राहुल का  राजनीतिक करियर असफलताओं और चुके हुए राजनीतिक अवसरों से  भरा है और यह उनके लिए बेहतरीन प्रशिक्षण की अवधि भी कही जा सकती है। भारतीय युवा कांग्रेस और राष्ट्रीय छात्र संघ का राहुल द्वारा लोकतंत्रीकरण किये जाने की पार्टी में सबने प्रशंसा की। हालांकि इसकी भी आलोचना हुई थी कि अमीरों और ताकतवर लोगों को ही ऊपर लाया गया है। राहुल के सामने कठिन लक्ष्य है और उन्हें दृढ़ता से काम करना होगा। यह उनके लिए आखरी मौक़ा है। सहस के साथ बढाए गए कदम का ही सब अनुसरण करते हैं।

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