हिंदुत्व की सियासत और " तुष्टिकरण "
भारत की राजनीति में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति और उत्तर प्रदेश में उसकी नाकामयाबी के कारणों पर चर्चा के दौरान कोलकाता के एक कारोबारी अयूब सिद्दीकी ने कहा कि ," यह लिख लीजिये की जब तक मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति चलती रहेगी तबतक हिन्दू सियासत भी कायम रहेगी। माइनारिटी समुदाय ने दूसरों की महत्वाकांक्षा का दर्द झेला है।"
हम बड़ों को सोचना होगा बच्चे कैसे जियेंगे इस डर में
दीन कहता है दोस्ती रखो , उनसे रहते हैं जो बराबर में
अयूब सिद्दीकी की यह छटपटाहट तर्कपूर्ण है। देश में जब से वोट की राजनीति शुरू हुई है तबसे अल्पसंख्यक समुदाय एक खास दबाव में वोट डालता आया है। चुपचाप उस दबाव को झेलता रहा है
मैं बोलता गया हूँ , वो सुनता रहा खामोश
ऐसे भी मेरी हर हुई है कभी कभी
अल्पसंख्यक नेताओं के साथ विशेष व्यवहार किया जाता है। विचारणीय यह है कि क्या इससे इस समुदाय की दशा में कोई ख़ास बदलाव आया है? अल्प संख्यक समुदाय की सियासी सोच कांग्रेस के हिन्दू- मुस्लिम एकता के सिद्धांत पर विकसित हुई है। समुदाय को समाज की एक इकाई के तौर पर मालूम नहीं कि सामाजिक न्याय क्या है? विशेष राजनीतिक समर्थन के बावजूद औसत अल्पसंख्यक नौजवान क्या करते हैं,, यह बात किसी से छुपी नहीं है। कुछ को छोड़ दें तो सारे बच्चे छोटे मोटे काम करते हैं। सियासत के अलावा जो लोग बड़े काम से जुड़ गए वे समाज के विकास पर काम और समाज की नेतागिरी में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं।
वो ख्वाब थे ही चमेलियों से,सो
सबने हाकिमों की कर ली बैअत
फिर एक चमेली की ओट में से ,
जो सांप निकले तो लोग समझे
आम लोग कठोर मेहनत से जो थोड़ा बहुत कमाते हैं उसी पर गुजर बसर करते हैं। वह सामाजिक न्याय की बात नहीं करता क्योकि उसके अवचेतन में अपना अलप संख्यक दर्जा इस कदर हावी हो चुका है कि उसे दूसरा कुछ सूझता ही नहीं। कोलकाता की ही मिसाल लें, यहां जो हिन्दू समुदाय या कहें बहुसंख्यक समुदाय की जो समस्याएं हैं लगभग वही मुश्किलें अल्प संख्यकों के साथ भी है। वे अपने लिए कुछ अलग से नहीं मांगते पर उनके लीडर उन विशिष्टता की राजनीति के गिलाफ से ढंके रहते हैं। अब यहां सवाल है कि किसकी महत्वाकांक्षा पूरी होती है, कौम की या उनके लीडर की, जो चाहते हैं लाल बत्ती गाड़ी पर घूमना। फिर क्यों चाँद लोगों की मंशा को पूरा करने का मोल पूरा समुदाय उठाये।
मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मठ्ठा डाल देती है
संसद या विधान सभाओं में समाजी न्याय और बराबरी पर सवाल अल्पसंख्यक नेता उठाते हैं और इस तरह वे पूरी कम्युनिटी को बहुसंख्यकों के खिलाफ खड़ी कर देते है।आज़ाद भर्ड में अगर अल्पसंख्यकों के खिलाफ अगर नफरत बढ़ी है तो इसका कारण उनके नेता है। क्योंकि
हुकूमत मुंह भराई के हुनर से खूब वाकिफ है
यह हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा दाल देती है
आपने अपने गढ़ों में बैठ कर धर्म का पत्ता खेलने वाले इन नेताओं ने पूरी कम्युनिटी को विलेन बना दिया है। चाहे वे अमीरोंके नेता हों या गरीबों के पूरे समुदाय के लिए कोई कुछ नहीं करता सिवा उसकी छवि बिगाड़ने के ।सब अपने स्वार्थ के लिए करते हैं । इसका नतीजा होता है कि हिदुत्व की सियासत भी खड़ी होने लगती है। झगडे शुरू हो जाते हैं, फसादात बढ़ जाते हैं।
तवायफ की तरह अपनी गलतकारी के चेहरे पर
हुकूमत मंदिर और मस्जिद का पर्दा डाल देती है
आज समय की मांग है कि अल्पसंख्यक समुदाय देश की अनेकता का सम्मान करे। विशिष्टता का ईगो छोड़ कर दोस्त का भाव रखे। जबतक अल्पसंख्यक समाज खुद को अलग समझता रहेगा तब तक बहु संख्यक राजनीती या साफ़ कहें हिंदुत्व की राजनीति की चिंगारी को हवा मिलती रहेगी।
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिन्दा न हों
जाति आधारित या अगड़े - पिछड़े की राजनीति चलती रहेगी। अल्पसंख्यक समुदाय बहुसंख्यकों के जातीय चक्रव्यूह में फँस चुका है , जहाँ इसका केवल इस्तेमाल किया जा सकता है वह खुद के लिए कुछ नहीं कर सकता है। यह मान कर चलिए कि जबतक अल्पसंख्यकों की समस्याओं को अलग से देखा जाता रहेगा तबतक बहुसंख्यक सियासत ख़त्म नहीं होगी।
देखोगे तो हर मोड़ पे मिल जाएंगी लाशें
ढूंढोगे तो इस शहर में कातिल न मिलेगा
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