CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Tuesday, March 28, 2017

नए संवत्सर की बधाई

नए संवत्सर की बधाई 
आज हिन्दू नववर्ष का पहला दिन है। शास्त्रों में कहा गया है कि इसी दिन ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना आरम्भ की थी। भारतीय वैदिक ज्योतिर्विज्ञान के महान गणितज्ञ भास्कराचार्य के अनुसार "मधौ सितादेर्दिनमासवर्षयुगादिकानां युगपत्प्रवृतिः" , यानी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के प्रातः सूर्य की पहली किरण के साथ नववर्ष आरम्भ होता है। यही नहीं , ब्रह्मा ने इसी दिन  इस सृष्टि का सृजन आरम्भ किया था और इसी दिन भगवान् के मत्स्यावतार का प्रादुर्भाव भी माना जाता है " मत्स्यरूपकुमार्यांच अवतीर्णो हरि: स्वयं।" इतना ही नहीं अगर आपने ध्यान दिया होगा तो पाया होगा की आज के दिन का प्रकृति भी स्वागत करती है। प्रकृति में ख़ास किस्म की थिरकन शुरू हो जाती है।कोयल की कूक और अमराइयों मंजरी का आम के रूप में परिवर्तन तथा वहाँ फैली हलकी खुशबू कितनी मादक होती है इसकी कल्पना मात्र से मन बौरा जाता है।पेड़ पौधे अपने पुराने पत्तों को त्याग कर नाव पल्लव धारण करते हैं। हवा में तेजी आ जाती भाई लगता है कि पुराने गिरे हुए पत्तों की सफाई का अभियान चल रहा है। पलाश खिलने लगते हैं और हरी चुनरी तथा पीले दुपट्टे में सरसों नाचने लगती है, हवा में खुशबू भर जाती है , चारो तरफ मस्ती छ जाती है। ऐसा लगता है कि प्रकृति खुद आगे बढ़ कर नाव वर्ष का आलिंगन कर रही है। इसी में सुवासित हवा का इठलाना और इसमें कोयल की कूक का संगीत प्रकृति  के कत्थक पर किसी नवयौवना के पद संचालन की तरह महसूस होता है। चारो तरफ एक मादकता भर जाती है। धारा से अंतरिक्ष तक सुसज्जित हो जाता है। खेतों में नए अनाज की लहक , भगवान् राम के आविर्भाव के दिवस की आहट , शक्ति की आराधना का गूंजता शंख, बैशाखी का भांगड़ा और बँगला नव वर्ष की तैयारी में गुनगुनाती बंगाली बाला " ऐशो हे बोइशाख ऐशो ऐशो "  , सब मिल बेहद हर्ष के वातावरण का सृजन करते हैं। आज ही दिन चन्द्रमा की प्रथम कला का प्रथम दिवस है और समस्त वनस्पतियों - ओषधियों के आधार सोमरस का स्रोत चन्द्रमा ही है और इसी प्रतं देवास के लिए कई क्षेत्रों में आम के पल्लवों से घरों को सजाया जाताहै। यह प्रकृति के प्रति एक उदार आभार का द्योतक है, सुखद जीवन की अभिलाषा का परिचायक है। इसी दिन भास्कराचार्य ने पंचांग की रचना आरम्भ की थी। अतएव हिन्दू नाव वर्ष का केवल कैलेंडर मूल्य नहीं है बल्कि प्राकृतिक और आध्यात्मिक कीमत भी है। 
   जिस ग्रेगेरियन कैलेंडर से आज दुनिया का कार्य व्यापार संचालित हो रहा है हमारा कैलेंडर उससे ना केवल सूक्ष्म है बल्कि लगभग 57 वर्ष आगे भी है। आज जहां 2017 चल रहा है हमारा कैलेंडर 2074 तक पहुँच गया। यही नहीं हिन्दू कैलेंडर में ग्रहों की चाल और राशियों की हर करवट का उल्लेख होता है। जिन्होंने इतिहास पढ़ा है वे जानते हैं कि  मैकॉले ने जब वाराणसी में यह देखा की एक साधारण पंडित पंचांग देख कर और ज़मीन पर लकड़ियों से तरेखायें खींच कर चुटकियों में ग्रहों की चाल बता देता है जिसके लिये " हमारी" नवीनतम  ऑब्ज़र्वेटरी को कई दिन लग जाते हैं। मैकॉले सर चकरा गया और उसने तय किया कि " जब तक भारत का यह विज्ञान कायम रहेगा हमारे पांव नहीं जम  सकते।"  इसके बाद बहुत ही साजिश भरे ढंग से भारतीय शिक्षा , ज्ञान , विज्ञान, कला , शिल्प और समाज व्यवस्था को नष्ट किया जाने लगा। इसके बाद हमें यह भुला दिया कि विक्रमादित्य कौन थे, उज्जैनी में महाकाल का महत्व क्या है, वहीं से कालगणना का निर्णय क्यों होता है? इसका पूर्णतः वैज्ञानिक आधार है पर बड़े ही षड़यंत्र पूर्ण ढंग से इसे हमारी स्मृति से उड़ा दिया गया। विख्यात ज्योतिर्विद डा. मंगल त्रिपाठी के मुताबिक़" आज की पीढ़ी भूल गयी है कि   आकाश और अंतरिक्ष हमारे लिए एक विशाल प्रयोगशाला है जहां ग्रहों के आवागमन , युति स्थिति , उदय अस्त के माध्यम से हमें अपना पंचांग अंतरिक्ष में स्पष्ट दृति गोचर होता है। अमावस - पूनम को हम साफ़ देखते हैं, हम जान सकते हैं कि चित्र नक्षत्र के निकट पूर्ण चंद्र हो तो छात्र की पूर्णिमा, विशाखा के निकट हो तो वैशाखी पूर्णिमा और इसी तरह से उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र के आस पास चंद्र दर्शन होते हैं तो फाल्गुन मास की पूर्णिमा। यह नाव वर्ष की दस्तक देता है। बस अबसे केवल 15 दिन और शुरू हो जाती चाँद की उलटी गिनती।"  हम बिना पंचांग या कैलेंडर देखे नाव वर्ष को जान सकते हैं। हमारी नै पीढ़ी को मालूम नहीं कि उज्जैन में महाकाल क्यों हैं? मूर्तियां और कर्मकांड तो फकत एक बिम्ब है सच तो उसमें निहित दर्शन होता है। पश्चिम के इतिहास और दर्शन की शिक्षा हमें काल को विभाजित कर पढ़ना सिखाता है जबकि हमारा दर्शन और इतिहास अतीत को व्यतीत नहीं मानता वह  समय की धारा है जो अतीत से चलती हुई आज यानी वर्तमान में आयी है और भविष्य की और अग्रसर हो रही है। उज्जैन इसी काल गणना का केंद्र विंदु है " कालचक्रप्रवर्तको महाकालः प्रतापनः।"  सिद्धान्त शिरोमणि में भास्कराचार्य ने लिखा है " मेरुगतं बुधैर्निगदिता सा मध्य रेखा भुवः।" 
यहां कहने का अर्थ यह कि जिस काल की गणना इतनी शुद्ध और सटीक हो हम उस काल के आरम्भ को ना मान कर एक ऐसे नाव वर्ष की शुरुवात पर जश्न मनाते हैं जो आयातित है , हमारी रक्त कोशिकाओं में उसका स्पंदन नहीं है , जो हमपर थोपा गया है। आइये हम संकल्प करें कि हम अपने नाव वर्ष का पालन करेंगे , उसपर ही जश्न मनाएंगे। कदम तो बढ़ाएं ज़माना आपके पीछे चलेगा। यह गुरुदेव टैगोर का शहर है और उन्होंने कहा है " एकला चोलो रे।" 

पश्येम शरदः शतम, जीवेम शरदः शतम , शृणुयाम शरदः शतम 

0 comments: