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Friday, March 24, 2017

वाह योगी जी, वाह

वाह योगी जी , वाह 
योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री पद की शपथ लेने के हफ्ते दिन के भीतर अपना असर दिखा शुरू कर दिया है। कत्लगाहों पर हमले होने लगे हैं, " मजनुओं" की पिटाई चालू  हो गयी है, गो रक्षकों की जमातों के अभियान तेज हो गए हैं। जो लोग इसका विरोध अर रहे हैं उन्हें भी और कुछ नहीं तो गालियां ज़रूर सुनानी  पड़  रहीं हैं। बड़े बुद्धिजीवियों की दलील हैकि अगर सियासत मुस्लिम वोट बैंक बन सकता है तो हिन्दू एकजुटता क्यों नहीं?  लेकिन यहां विजय के नशे में लोग एक बात भूल रहे हैं कि यह विजर भा ज पा की नीतियों की नहीं मोदी जी के कौशल की है। मोदी जी की छवि नेहरू और इंदिरा की तरह अपराजेय की हो गयी है और उनका कद पार्टी से बड़ा हो गया है। यह एक खतरनाक संकेत है।  संगठन के सिद्धांत के मुताबिक यह उसके पतन के संकेत हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर प्रदेश की विजय " चुनावी लामबंदी के पुनराविष्कार " की विजय है। इसके चुनावी लाभ तो हैं पर इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं।अल्पसंख्यकों को भा ज पा की चुनावी परिगणना  से बहार रखने के अन्य मानकों छोड़ भी दें तो यह काहा जा सकता है कि इससे समाज में आपसी दूरियां बढ़ेंगी और टकराव के बहाने मिलने लगेंगे और परिणाम भयानक हो सकते हैं। बहुत पहले एक फिल्म आयी थी " गैंग ऑफ़ न्यूयॉर्क " जिसमें " बॉस" का कहना था कि " चुनाव में मतपत्रों से नतीजे नहीं हासिल होते बल्कि गिनती से प्राप्त होते हैं इसलिए गिनते रहिये।" पिछले पांच वर्षों में हुए चुनावो के नतीजों के रचनात्मक अर्थों की अगर व्याख्या करें तो फिल्म वाले " बॉस" कीबात को ऐसे कहा जा सकता है कि " नाटकबाजी और व्यख्या विजय दिलाती है इसी में लगे रहिये।" बहुतों को " ब्रेक्सिट" का जाना देश याद होगा। इसमें सरकार ने भीड़ के हाथ में ताकत दे दी और चुप बैठ गयी। नतीजा क्या हुआ?  एक सुस्त और गैरजिम्मेदार सरकार  हासिल हुई। उत्तर प्रदेश में भी ऐसे ही कुछ हुआ।  विधान सभा में सबसे बड़ी पार्टी को जनादेश के आधार पर  मुख्य मंत्री चुनने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। किसी विशेष सिद्धान्त को लागू किया जा सके इसके लिए जनादेश को ख़ारिज करना बेचैनी पैदा करता है।यहां एक महत्त्वपूर्ण बात यह साने आती है कि जो लोग योगी जी मुख्यमंत्री बनाये जाने के विरोध में हैं  उन्हें बहुमत को नहीं मानने का दोषी बता कर लांछित किया जा रहा है। मौजूदा वक्त में मतदान का मनोविज्ञान बदल चुका है। अब वोट देना नैतिकता की शिनाख्त बन गयी है ना कि वोट लेने वाला। ऐसे में मुठी भर लोगों को एक बहुत बड़ी आबादी वोट देती है और वे गिनती के लोग करोड़ों लोगों के मुकद्दर का फैसला करते हैं, नैतिकता का निर्णय करते हैं। इक़बाल ने कहा था,
जम्हूरियत वह तर्जे हुकूमत है 
जहां गिने जाते हैं , तौले नहीं जाते
जो लोग इस तरह के चुनाव का विरोध करते हैं उनपर तोहमत लगती है कि वे लोकतंत्र के मुखालिफ हैं पर इस तरह कहने वाले लोग यह क्यों नहीं मानते की विरोध लोकतंत्र की ही परंपरा है। जिस तरह से योगी जी को गाडी पर लाया गया और जितनिटेजी से वहाँ के सामाजिक हालात बदल रहे हैं उससे तो लगता है कि जब इसके बाद राज्य सभा में भा ज पा का बहुमत हो जाएगा तो संघ के एजेंडे तेजी से सामने आने लगेंगे। जहां तक यू पी का सवाल है , यहां विचार धारा सामने आती है। कहा जा रहा कि कत्लगाहों पर रोक से बहुतों की रोजी रोटी छीन जायेगी। परिवर्तन के दौर में इस तरह की दलीलें अक्सर आती हैं पर जब यह सब बात नाताजुर्बेकार नेता के साथ जोड़ कर  होती है तो निर्णय करना जल्दबाजी हो जाती है।  सरकार के आधा टर्म पर करने के बाद ही बात कुछ समझ में आती है। योगी जी के गद्दी पर आये अभी जुम्मा जुम्मा आठ दिन भी नहीं हुए हैं पर उन्होंने प्रशासन की सफाई शुरू कर दी। वे बहुत तेज चल रहे हैं, शाबाशी के पात्र हैं पर हनुमान कूद खतरनाक होती है।

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