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Thursday, August 17, 2017

अपने बच्चों को भारत के प्रति जिम्मेदार बनाएं

अपने बच्चों को भारत के प्रति जिम्मेदार बनाएं 

दो दिन पहले देश की स्वाधीनता का  70 वां वर्ष पूरा हुआ और हम एक आज़ाद भारतीय के रूप में 71 वें  वर्ष में प्रवेश कर गए. इतिहास देखें तो आज के दिन एक गुम - सुम , मायूस और उदास भारत की  छवि दिखाई देगी जिसकी पृष्ठ भूमि में सूखे हुए  खून के  थक्के होंगे ,धुंवाते मोहल्ले होंगे , बस्तियां होंगीं , एक दूसरे पर पड़ी संदेह भरी निगाहें होंगीं, ज़िंदा गोश्त  की  घुटी सिसकियां  होंगी और ज़मीन पर खिंची लकीर के कारण भारत और पकिस्तान के तौर पर तकसीम हो गए दिल होंगे. उस भयानक दु:स्वप्न से , उस मनोवैज्ञानिक त्रासदी से गुजरने के लिए हमारे नेताओं ने एक नारा दिया कि “ हमें अपने भारत पर गर्व है .” इस गर्व भाव ने हमारे आहात अहं को सहलाया तो ज़रूर पर एक भारी गड़बड़ी भी हो गयी. देश के प्रति हम हकीकत कि रह से विचलित हो गए. इस नारे ने कई बुराइओं को जन्म दिया. सबसे बड़ी बात है कि चाहे कोई भी हो जिसका जन्म यहाँ हुआ वह इसके लिए व्यक्तिगत क्रेडिट तो नहीं ले सकता. राष्ट्रीयता  इस मामले में सदा एक घटना होती है, संयोग होता है. लेकिन जब एक बच्चा बड़ा होता है तो वही पुराना मन्त्र सिखाया जाता है कि “ हमें भारतीय होने पर गर्व है . ” हमारे दिलो दिमाग में यह भरा जता है कि हमारे भारत ने दुनिया को गणित का शून्य दिया, आयुर्वेदीय चिकित्सा पद्धति दी, भारत विश्वगुरु रहा है. लेकिन कभी आपने सोचा है कि जो हमारे पूर्वजों ने सदियों पहले किया उसके लिए हम  आज हम क्यों गौरवान्वित हों और अगर ऐसा है तो उनके कुछ कामों के लिए हमें शर्मिन्दा भी होना चाहिए. जब हम देश में होते हैं तो रिश्वत देते - लेते हैं, चोर दरवाज़े से अपना काम करवाते हैं, एक नेताओं द्वारा  चुनाव प्राचारों  के दौरान दिए गए लफ्फाजी भरे वायदों पर भरोसा करते हैं और विदेश जाते हैं तो बड़े बड़े भाषण देते हैं. अपने देश कि महानता को बताने का कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं , जबकि हमें यह मालूम नहीं कि सुनाने वालों में से कितने लोग हमारे महान देश के बारे में क्या सोचते हैं. जो भी थोड़ा उत्सुक होता है हम अपने देश के बारे में बात किये बगैर नहीं मानते. जब हम  पढने विदेश जाते हैं तो अपने देश के बारे में बात करने के लिए उत्सुक होते हैं और अपने मुल्क कि कमियों तथा बुराइयों को भूल जाते हैं. विदेशों में जब एक भारतीय छात्र से उसके सहपाठी जाति प्रथा के बारे में पूछते हैं तो वह ख़म थोक कर कहता है कि आधुनिक भारत में यह प्रथा नहीं चलती. लेकिन यह नहीं बताते कि लाख प्रयास के बाद भी यह एक सामाजिक सच्चाई है , एक राजनितिक औज़ार है. कश्मीर या काम शास्त्र के बारे में जब बात होती है तो हम ऐसे मुहावरों का उपयोग करते हैं , ऐसी आत्म वर्जनाओं  का प्रयोग करते हैं कि हमारा गर्वित अहं भाव आहत ना हो. बस मुख्य बात यही है कि ऐसा सोचना जिससे विदेशियों के सामने भारत के प्रति गर्व का हमारा अहं भाव भंग ना हो यह हमारी जिम्मेदारी है. जी हाँ जिम्मेदार होना ज़रूरी है. क्योकि जिम्मेदार होने पर हमें अपनी कमियों को देखने की  दृष्टि हासिल होगी, क्योंकि जिम्मेदारी का एक पक्ष कमियों को स्वीकार करना भी है. जिम्मेदार होने पर हमें अपने इतिहास तथा संस्कृति के नकारात्मक पहलुओं को भी देखना होगा और आधुनिक भारत में उसे दूर करना होगा. अभी गर्वित होने के भाव से ग्रस्त हम इतिहास पढ़ते हैं और उस कमी को आधुनिक भारत में दूर करने कि जगह हम इतिहास ही बदल देते हैं, ताकि गर्व भाव कायम रहे और सामाजिक जिम्मेदारी ना विकसित हो.  जैसे ही गर्व भाव कि बात आती है कि हम देश को हिन्दू , मुस्लिम , सिख, इसाई के तौर पर देखने लगते हैं. परन्तु जैसे ही जिम्मेदारी का भाव आता है हम एक समग्र भारत , एक समन्वित और संतुलित भारत की  बात सोचते है. कई लोग यह भी कहते हैं कि एक ही साथ गर्वित भी हुआ जा सकता है और जिम्मेदार भी. पर ऐसा संभव नहीं है. गर्वित होना एक निहायत व्यक्तिगत मानसिक फिनोमिना है जबकि ज़िम्मेदारी हमेशा और हर हाल में एक साझा भाव है. स्वाधीनता के 70 वर्ष के बाद क्यों न हम अपनि भविष्यत् पीढ़ी को आधुनिक भारत के प्रति जिम्मेदार बनाएं ना कि अतीत के  किसी “ स्वर्ण युग  ” के प्रति गर्वित. 

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