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Sunday, August 20, 2017

फिर जल प्रलय

फिर जल प्रलय

देश के 71 वें स्वाधीनता दिवस के दिन देश तीन राज्यों की  लगभग 50 करोड़ आबादी भूख, भय और भविष्य से आक्रांत रही और उनके लिए मोदी जी का लाल किले कि प्राचीर से गूंजते भाषण में लहराते आश्वासनों का कोई मूल्य नहीं था. जिस गंगा की  शपथ लेकर मोदी जी सत्ता में आये उसी गंगा के बेसिन में आयी बाढ़ ने इसबार ज्यादा तबाही मचाई है. गंगा की  जल प्रदायी नदियों – कोसी, महानंदा , राप्ती, घाघरा, बागमती, गंडक और कमला बलान – में उफान है. ऐसा अतीत में शायद ही देखा गया है. बिहार और उत्तर प्रदेश के बाढ़ पूर्वानुमान केन्द्रों का कहना है कि यह तो अभी शुरुआत है गंगा की इस उफान का असर बंगाल और बंगलादेश तक पडेगा . पश्चिम बंगाल में, सरकारी सूत्रों के अनुसार, अलीपुर दुआर और जलपाईगुड़ी सबसे प्रभावित क्षेत्र है . इसके अलावा दिनाजपुर , कूचबिहार और मालदह में नभी तबाही हुई है. इस बाढ़ से सात लोग मरे हैं तथा 1 लाख प्रभावित हैं. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रभावित लोगों को अहर्निश मदद का निर्देश दिया है.

   आखिर इस विनाशकारी बाढ़ के कारण क्या हैं., अबतक कि हर सरकार ने बाढ़ के दौरान अह्वास्नों से रहत पहुंचाने कि कोशिश कि है पर कुछ हुआ नहीं. हर साल बाढ़ आती है  और पिछले ज्यादा प्रचंड वेग से आती है. बाढ़ विशेषज्ञों का कहना है कि इस बार कि बाढ़ ने विगत 50 वर्षों का रिकार्ड तोड़ा है. आंकड़े बताते हैं कि विगत चार दशक में लगभग पञ्च – सवा  पांच अरब लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हैं. हालांकि मानव सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है. इसलिए मानव समुदाय इस विभीषिका को झेलने का अभ्यस्त हो चुका है. और उसके  इसी अभ्यास का हर वक्त कि सरकारें लाभ उठती रहीं हैं.

  देश की  सबसे बड़ी नदी गंगा है और सभी नदियाँ सागर में समाने के पहले उसमें मिलतीं हैं .    इसीलिए  मुख्य समस्या गंगा के उत्तरी तटवर्ती क्षेत्रों  में है. गंगा बेसिन के इलाके में गंगा के अलावा यमुना, घाघरा,गंडक, कोसी,सोन और महानंदा आदि प्रमुख नदियां हैं जो मुख्यत: उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल,हरियाणा, दिल्ली,मध्य प्रदेश,राजस्थान, बिहार सहित मध्य एवं दक्षिणी बगांल में फैली है. इनके किनारे घनी आबादी वाले शहर बसे हुए हैं.इस सारे इलाके की आबादी अब 50  करोड़ से भी ऊपर पहुंच गई है और यहां की आबादी का घनत्व500 व्यक्ति प्रति किमी का आंकड़ा पार कर चुका है. उसका परिणाम है कि आज नदियों के प्रवाह क्षेत्र पर दबाव बेतहाशा बढ़ रहा है, उसके बाढ़ पथ पर रिहायशी कालोनियों का जाल बिछता जा रहा है, सरकारें भी इस दिशा में संवेदनहीन हैं. यह होड़ थमने का नाम नहीं ले रही है. इसमें दो राय नहीं कि हिमालय से निकलने वाली वह चाहे गंगा नदी हो, सिंध हो या ब्रह्मपुत्र या फिर कोई अन्य या उसकी सहायक नदी, उनके उद्गम क्षेत्रों की पहाड़ी ढलानों की मिट्टी को बांधकर रखने वाले जंगल विकास के नाम पर जिस तेजी से काटे गए, वहां बहुमंजिली इमारतों रूपी कंक्रीट के जंगल,कारखाने और सड़कों के जाल बिछा दिए गए,विकास का यह रथ आज भी निर्बाध गति से जारी है. नतीजन इन ढलानों पर बरसने वाला पानी बारहमासी झरनों के माध्यम से जहां बारह महीनों इन नदियों में बहता था, अब वह ढलानों की मिट्टी और अन्य मलबे आदि को लेकर मिनटों में ही बह जाता है और अपने साथ वहां बसायी बस्तियों को खेतों के साथ बहा ले जाता है. दरअसल इससे नदी घाटियों की ढलानें नंगी हो जाती हैं.उसके दुष्परिणाम रूवरूप भूस्खलन,भूक्षरण, बाढ़ आती है और बांधों में गाद  का जमाव दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है. जंगलों की कटाई  के बाद बची झाडिय़ां और घास-फूस चारे और जलावन के लिए काट ली जाती हैं. इसके बाद ढलानों को काट-काट कर बस्तियों, सड़कों का निर्माण और खेती के लिए जमीन को समतल किया जाता है. इससे झरने सूखे,नदियों का प्रवाह घटा और बाढ़ का खतरा बढ़ता चला गया. दरअसल हर साल दिन-ब-दिन बढ़ता बाढ़ का प्रकोप इसी असंतुलन का नतीजा है.

 इस बाढ़ में फरक्का बाँध कि बात जल्दी ही उठने वाली है. बाँध को ख़त्म कर देने की  मांग पिछले साल भी उठी थी. पिछले साल नितीश कुमार  ही मुख्यमंत्री थे पर वे महागठबंधन के साथ थे . नितीश कुमार ने बिहार में बाढ़ के लिए फरक्का बाँध को जिम्मेदार बताते हुए जोरदार मांग कि थी . इस बार वे राजग के साथ हैं , देखना है कि इस बार उनकी मांग का असर होगा.शायद सरकार अभी इस आतंक को समझ नहीं पा रही है और ना ही उसे यह पता चल रहा है कि नदियों जमा होने वाली गाद और तलछट में जमा कूड़ा इसमें क्या भूमिका निभाता है.  

       हालांकि फरक्का के मामले में हमें शीघ्र ही एक स्वतंत्र अध्ययन समिति का गठन कर इसकी उपयोगिता, इसकी लागत और बाँध से हो रही हनी – लाभ का विश्लेषण किया जाना चाहिए. इसके सभी पक्षों पर विचार होना चाहिए. उम्मीद है कि इस बार सरकार इस मामले में फैसला करेगी और लोगों को इससे राहत मिलेगी.

 

 

 

 

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