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Wednesday, May 30, 2018

500 में 499 ! हे भगवान !!

500 में 499 ! हे भगवान !!

एक जमाना था जब हायर सेकेंडरी या माध्यमिक की परीक्षाओं में 60 या 65 प्रतिशत अंक वाले वाले छात्र की चर्चा होती थी , प्रशंसा होती थी। 60 या 70 के दशक में मेडिकल या इंजीनियरिंग में इतने अंक लाने वालों के सीधा नामांकन हो जाते थे। वे बच्चे कोर्स के अलावा अंग्रेजी या हिंदी की क्लासिक इतना पड़ जाते थे कि आज के एम ए पास छात्रों को भी उतने मालूमात ना होते। यकीन नहीं होगा यह सुन कर कि यहां के एक विख्यात विश्वविद्यालय से हिंदी में एम ए पास एक कन्या से पूछा गया कि गालिब कौन था? तो उसने दिमाग पर बहुत जोर दे कर कहा कि एक पोलिटिकल लीडर था। आज वह कन्या मीडिया में रिपोर्टर है। यहां कहने का अर्थ यह है कि इन दिनों स्कूल और कॉलेज कारखाने बन गये हैं भारी- भारी अंकपत्रों के साथ नौजवान मैन्युफैक्चर करने के। इन दिनो सुबह एक अजीब नजारा दिखता है छोटे छोटे बच्चे अपने वजन के बराबर किताबों का वजन उठाये स्कूल जा रहे हैं। उनके पीछे दौड़ते से चल रहे हैं उनके मां- बाप। 

इसलिए, जब सीबीएसई कक्षा 12 बोर्ड परीक्षाओं में एक लड़की को 499/500 मिलते हैं, तो खुशी नहीं हैरत होती है। बेशक यह एक बड़ी उपल​ब्धि है। कोई इस बात को काट नहीं सकता। जिस छात्रा को ये नम्बर आये हैं उसकी प्रतिभा और परिश्रम की प्रशंसा किये बिना नहीं रहा जा सकता। परंतु, यदि भारतीय संदर्भ में इस ​िस्थति की व्याख्या करें तो लगता है कि ऐसे छात्र पूरे साल या सम्पूर्ण छात्र जीवन हाइबरनेशन में चले जाते हैं और रिजल्ट के बाद ही उस हाईबरनेशन से निकलते हैं। सोचिये, इस पूरे सिस्टम में बच्चे से ज्यादा महत्वपूर्ण उसे मिलने वाले नम्बर हैं। एक बच्चे की एग्जाम को लेकर आतंकित मां- बाप भी सामान्य जीवन नहीं बिता पाते। ऐसा लगता है कि उनकी भी परीक्षा है। वही नहीं उनके पड़ोसियो तथा रिश्तेदारों के लिये भी नम्बर ही प्रमुख है। इसके अलावा जहां तक नम्ब्ग्रगें का सवाल है इसमें एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि एक छात्र नागरिक शास्त्र या ह्यूमैनिटीज या अंग्रेजी लिटरेचर में सौ में सौ कैसे ला सकता है जबकि इन दोनों विषयों में कल्पना और विश्लेषण की असीम संभावनाएं हैं। बाइबिल के उस प्रसंग की तरह " ऐज द लॉर्ड एप्रोच्ड द सी " की तरह। जिसकी असंख्य व्याख्याओं में से एक व्याख्या थी " शी बीकैम ब्लशड।" यह व्याख्या 12 साल के एक बच्चे ने की थी जो आगे जा कर महाकवि बायरन बना। यहां कहने का अर्थ है कि एक छात्र अंग्रेजी में 99 या मनोविज्ञान में 100 कैसे ला सकता है। क्योंकि इन विषयों में कल्पना और रचनात्मकता के लिए एक अनंत गुंजाइश है। यह एक व्यक्ति को बताने के लिए है कि आपने जो लिखा है वह परम है। रचनात्मक लेखन को इतनी हद तक कैसे प्रमाणित किया जा सकता है कि कोई भी इसे बेहतर नहीं कर सकता? एक विषय के रूप में भाषाएं कैनवास की तरह हैं, वे निर्बाध हैं और उनकी कोई सीमा नहीं होनी चाहिए। यहां इसके बजाय हमारे पास एक दूसरे के पीछे एक एक नम्बर से  पीछा करने वाले छात्र हैं, सात बच्चे  देश भर में तीसरे स्थान पर आने के लिए 497 अंकों के साथ छटपटा रहे  हैं। इस साल सीबीएसई बोर्डों की कक्षा 12 में लगभग 12,000 छात्र 95 प्रतिशत से ऊपर रहे हैं, इसके  प्रभावों को कल्पना करना भी मुश्किल है। 

पिछले साल दिल्ली विश्वविद्यालय में नामांकन के लिये "कट ऑफ"  99.6 प्रतिशत था। यानी 90 प्रतिशत से ऊपर नम्बर वाले छात्रों के लिये भी कॉलेज में प्रवेश मिलने की कोई गारंटी नहीं है। जो नम्बर 70 या 80 के दशक में ॣाोल्डेन माने जाते थे आज वे फकत औसत हैं और किसी काम के नही हैं। 

यह एक ऐसी शिक्षा प्रणाली है जहां नम्बर तर्क के किसी भी स्तर से  आगे बढ़ गए हैं? यह अंकन प्रणाली अनगिनत अन्य बच्चों को कहां छोड़ती है जिन्होंने "अच्छी तरह" से स्कोर नहीं किया? अंक अर्जित करने को इतना महत्व देकर और टॉपर्स हम अपने बच्चों को बहुत कम उम्र में विजेताओं और हारने वालों में विभाजित नहीं कर रहे हैं, इसके बजाय हमें सभी को बराबर के रूप में प्रोत्साहित करना चाहिए?

हमारे छात्रों के बीच अवसाद और चिंता एक बढ़ती वास्तविकता है और ये मुद्दे  एक अक्षम स्कोरिंग सिस्टम के साथ बोझ बन रहे हैं। पढ़ाई  के  दबाव के कारण खुदकुशी करने वाले छात्रों के आंकड़े हम सी देखते हैं पर पर कुछ करते नहीं। मनोचिकित्सकों की चेतावनियां हम नहीं सुनते। वे बार बार कहते हैं कि परीक्षा का भय हमारे बच्चों में एक खतरनाक बीमारी के रूप में बढ़ता जा रहा है। पिछली ही साल का वाकया है कि एक बच्चे की कॉपी का जब पुर्नमूल्यांकन हुआ तो उसका स्कोर 68 अंकों से उस विशेष विषय में 84 हो गया  और माता पिता समझ नहीं पाए थे कि स्कोरिंग में इतना बड़ा अंतर कैसा हुआ था। ऐसी ​िस्थतियों भाग्य को प्रोत्साहित करती है। एक अन्य छात्र ने पांच के प्रश्न  अनुत्तरित  छोड़ दिये थे  फिर भी इस विषय में उसे 99 प्रतिशत मिले। हम 12 वीं कक्षा के नतीजे को सबसे बड़ी उपलब्धि क्यों मानते हैं? हम में से कितने पिछले टॉपर्स को याद करते हैं या उस मामले के लिए जब आखिरी बार किसी ने आपको अपने रसायन शास्त्र के बारे में पूछा था? दुनिया बदल गई है, इंजीनियरिंगया मेडिकल  ही एकमात्र पेशा नहीं है, लेकिन हम भारतीयों का तर्क है  कि चांद पर जो पहला आदमी गया था उसका नाम सब जानते हैं दूससरे को कोई याद नहीं करता। यानी, अंत में केवल आपके अंक मदद करते हैं। शायद वे करते हैं, लेकिन किस कीमत पर? हमारे बच्चे सभी प्रतिभाशाली हैं, बस एक ही क्षेत्र में नहीं। हमें कब पता चलेगा कि संगीत या नृत्य में उत्कृष्टता एक बड़ी उपलब्धि है और इसके लिए भौतिकी में 100 प्रतिशत वास्तव में जरूरी नहीं है? हमे सदा यह याद रखना चाहिये ​कि एक बच्चा अंकों के स्कोर से हमेशा अधिक महत्वपूर्ण होता है। जिस बच्चे ने इस साल 500 में से 499 अंक पाये हैं उससे पूछें कि वह आखिरी बार कब बारिश में भीगा था, पक्षियों का कलरव सुना था शायद उसे याद नहीं होगा। नम्बरों की इस भूल भुलै्यया में ना जाने कितने बचपन भटक गये। 

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