गरीबी नहीं गरीबों को मिटाने में लगे हैं
साठ के दशक में महाकवि रामधारी सिंह दिनकर लिखा था
मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं
वसन कहां? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं।
साठ के दशक की एक कविता हमें याद दिलाती है उस समय भी हमारे देश हैं गरीबों की भोजन का अभाव और भयानक गरीबी थी । इस अवधि के पार लगभग सात दशक हो गए । हालात अभी भी नहीं सुधरे। रोटियों के लिए आंदोलन हो रहे हैं।सरकारी आती है वादा करती हैं और चली जाती भुखमरी और गरीबी नहीं मिटती । बड़े-बड़े विद्वान मुख्य कारणों की तलाश करते हैं और अपने-अपने विचार देते हैं सरकारें तरह - तरह के वादे करती है चुनाव लड़ती है , जीतती है और उसके बाद सब कुछ भूल जाती है। 5 वर्ष निकल जाते हैं और दूसरे चुनाव की तारीख आ जाती है। नेता यह बताने में झुक जाते हैं उनके काल में भूख पर कितने बजे आएगी गरीबी गरीबी कितनी मिटी लेकिन सच में कुछ नहीं हो पाता। गरीब और गरीब होता जाता है अमीर और अमीर होता जाता है सरकार फरेबी आंकड़े पेश करती है।
तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ,दावा किताबी है
नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन से लेकर विख्यात अर्थशास्त्री ज्यां देरेज तक के शोध बताते हैं कि भारत में 68.7 प्रतिशत लोग गरीब है या नहीं देश की दो तिहाई आबादी गरीब है राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण आंकड़ों के अनुसार जिन लोगों को 24 सौ कैलोरी आहार नहीं मिलता वह गरीब है आंकड़े बताते हैं 1973 में ऐसे लोगों की संख्या 72 प्रतिशत थी शहरी आबादी के 49.6 प्रतिशत लोग 21 सौ कैलोरी नहीं खा पाते थे यानी मुझे इतना भी नहीं मयस्सर था। उस समय से आज तक अनगिनत अर्थशास्त्रियों ने बकाया है गांव की गरीबी से ज्यादा शहर की गरीबी i है। लेकिन 1910 के आंकड़े बताते हैं उस समय गांवों में 90.5 प्रतिशत लोग गरीब और शहरों मे 73 प्रतिशत। इससे साफ पता चलता है कि उस समय से अब तक कि सरकारें भुखमरी दूर नहीं कर सकी । सभी सरकारों ने इसे कम करने के लिए आंकड़ों का फरेब किया । नतीजा हुआ गरीबी बढ़ती गई और वर्तमान सरकार के काल में या और ज्यादा बढ़ गई मोदी जी ने वादा किया था करो लोगों को रोजगार मिलेगा और यह वादा कुछ लाख रोजगार देकर फिस्स हो गया । अर्थशास्त्री अभी तक नोटबंदी के नकारात्मक प्रभावों का विश्लेषण करने में जुटे हैं अभी भी यहीं बस चल रही है की करेंसी की कमी कितनी ज्यादा थी और ए टी एम् इतनी जल्दी कैसे सूने हो गये । मोदी जी का मेक इन इंडिया कार्यक्रम क्या हुआ? भारत में उत्पादन के लिए विदेशी पूंजी तभी आएगी जब यहां बाजार होगा लेकिन यहां की अधिकांश आबादी में खरीदने की क्षमता अगर है ही नहीं तो विदेशी पूंजी हाथियों आकर उत्पादन शुरू करेगी अगर बाजार के लिहाज से देखें भारत का बाजार बहुत छोटा है। इलेक्ट्रॉनिक सामान जैसे, लैपटॉप, कंप्यूटर, मोबाइल फोन इत्यादि को चीनी उत्पादन से मुकाबला करना पड़ेगा। विविधतापूर्ण चीनी उत्पादन और बड़ी समस्या पैदा कर रहे हैं। यही कारण है कि अमरीका ने चीनी आयात को कम करने के लिए उस पर तरह तरह के शुल्क लगा दिए। सही नहीं है और भी क्षेत्र हैं जहां समस्याएं हैं, जैसे मनरेगा। यह भी छोड़ रहा है और यह पाया गया है गाँवों की गरीबी देखते हुए इसके लिए कोष आवंटित किया गया है वह बहुत कम है। विशेषज्ञों के अनुसार 36 राज्यों में से 28 राज्यों में मजदूरों को न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता इससे गांव में गरीबी और दुख बढ़ता जा रहा है। सरकार के चुनावी वादों के बाद भी गरीब दुख में है और आगे भी देते रहेंगे। इसका मतलब है कि अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और मध्यवर्गीय लोगों शक्ति घटेगी इससे मध्यम वर्गीय लोगों का स्तर गिर कर निम्नवर्गीय हो जाएगा यानी एक बहुत बड़ी आबादी निम्न वर्ग में बदलने वाली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अच्छे दिन का वादा किया था ताल ठोक ठोक कर कहा था अच्छे दिन आएंगे ।अच्छे दिन आए नहीं और दूर-दूर तक दिखाई पड रहे हैं।
कब्र - कब्र में अबोध बालक भूखी हड्डी रोती है
दूध - दूध की कदम- कदम पर सारी रात होती है
यह कितना क्रूर लगता है की सरकार गरीबों की संख्या घटाने के लिए गरीबी की रेखा को नीचे करती जा रही है। सोमवार को योजना आयोग द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं अब गरीबी की रेखा ₹25प्रतिदिन से घटकर 28 रुपए 65 पैसे प्रति दिन हो गई है यानी जो लोग शहरों में 28 रुपए 65 पैसे रोज खर्च करते हैं वह गरीब नहीं है ।गांव में यह सीमा 22 रूपए 42 पैसे प्रतिदिन की गई है। जरा इमानदारी से अपने गिरेबान में झांक कर देखिए कि जो लोग शहरों में859 रुपए 60 पैसे तथा गांव में672 रुपए 80 पैसे मासिक खर्च करते हैं वह गरीब नहीं है। कितना क्रूर है यह आंकडा ?
रोटी कितनी महंगी है यह वो औरत बताएगी
जिस्म जिस्म गिरवी रख यह कीमत चुकाई है
विश्लेषकों का कहना है कि योजना आयोग द्वारा जारी आंकड़े भ्रामक हैं और ऐसा लगता है इसका मकसद गरीबों की संख्या घटाना है, ताकि कम से कम लोगों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ देना पड़े। देश में महंगाई लगातार बढ़ती जा रही और ऐसे में खर्च को सीमा पर रखकर गरीबी की रेखा क्या करना जायज नहीं है और यह एक तरह से गरीबों के प्रति बर्बर मजाक है।
इसका असर हो सकता है अपराध में वृद्धि , आंदोलन और आतंकवाद के रूप में दिखाई पड़ने लगे।
हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं
दूध दूध हे वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं
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