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Wednesday, May 16, 2018

महाराणा पर बहस के बहाने

महाराणा पर बहस के बहाने

पिछले हफ्ते महाराणा प्रताप का जन्मदिन था।उन्हें लेकर शहर कोलकता और कई नगरों में बहस चल रही है। बहस के कई कोण हैं और सभी कोणों पर अलग-अलग तर्कों की बल्लियाँ और तख्तियां उठाये लोग भी खड़े हैं। महाराणा इतिहास की वीथियों में पुख्ता मील पत्थर हैं।इतिहास के एक प्रमाणिक दस्तावेज। लेकिन, बकौल जॉर्ज बर्नार्ड शा “ इतिहास से हम यही सीखते कि उससे कुछ नहीं सीखते।´इन पंक्तियों को झुठलाया नहीं जा सकता क्योंकि हम, हमारा समाज और हमारी सरकारें इसे सच बनाने की कोशिश में लगी रहती हैं। हम आप या हमारी तरह हमारे देश के अन्य लोग अब तक पढ़ते आये हैं कि अंग्रेज़ फूट डालो और राज करो की नीति पर चलते थे और चाहते थे कि भारत हिन्दुओं और मुसलमानों में बंट जाय सो भारत बंट गया- हिन्दुस्तान और पकिस्तान में।आंसुओं के दरिया खून के समंदर में बिला गए। अंग्रेज़ भी चले गए।बंटवारे की घटना इतिहास में समा गयी। बंटवारे का घाव भर गया।

ये ज़ब्र भी देखा है तारीख की नज़रों ने

लम्हों ने खता की थी सदियों ने सज़ा पायी

 लेकिन,  हम इतिहास से सीख नहीं पाए। जो काम अँगरेज़ नहीं कर पाए वह हमारे चंद नेता कर रहे हैं। अंग्रेजों ने तो देश बांटा , सियासत बांटी। दिल नहीं बंटे एउर अगर बंटे भी अपने-अपने देश में पड़े रहे। लेकिन , हमारे कुछ नेता तो हमारे विभूतियों को बाँट रहे हैं और कुछ हद तक कामयाब भी हो गए हैं।बिलकुल उसी तर्ज़ में

नफरतों का असर देखो जानवरों का बँटवारा हो गया

गाय हिन्दू हो गयी और बकरा मुसलमान हो गया

हाँ, बात चली थी महाराणा के जन्मदिन की। इसबार जन्मदिन अलग तर्ज़ पर मनाया गया। इसबार उस महाराणा का जन्मदिन नहीं मनाया जा रहा है जो हल्दी घटी के युद्ध के लिए विख्यात हैं।जिन्होंने अकबर से पराजय स्वीकार करने की बजाय अरावली के जंगलों में रहना स्वीकार किया। जिन्हें अपनी धरती से प्यार था और जो उसके लिए जान भी दे सकते थे।

सन्देश यही उपदेश यही

कहता है अपना देश यही

वीरो दिखला दो आत्म-त्याग

राणा का है आदेश यही

लेकिन अब कुछ लोगों के लिए महाराणा आत्म त्याग के प्रतीक नहीं हैं।वे हारे ही नहीं तो त्याग कैसा? अचानक कुछ इतिहासकार पैदा हो गए हैं महाराणा हल्दी घाटी का युद्ध हार ही नहीं सकते थे। वे तो विजयी हुए थे।यहीं पर इन इतिहासकारों ने अंग्रेजों के विभाजन के अजेंडे को एक कदम आगे बढ़ा दिया। इसमें एक बहुत बारीक चाल है कि “ एक मुसलमान एक राजपूत राजा को कैसे पराजित कर सकता है? बस यहीं से शुरू हो गयी सदियों के इतिहास को बदल डालने की साजिश।“ यहाँ इतिहास के बिम्ब अपने अर्थों से स्खलित हो रहे हैं। हमारे लिए महाराणा हिन्दू- मुसलमान से अलग भारतवर्ष की शान थे, आन थे , प्रेरणा के स्रोत थे। प्रताप के लिए देशवासियों को किसी किताब, भाषण या बहस की ज़रुरत नहीं थी।अदम्य वीरता के प्रतीक थे। स्कूलों में इमरान हों या ईश्वरचंद या एडवर्ड वे आपसी बहस में कहा करते थे कि मेरी ये कलम है वह मराना प्रताप की तलवार है। अब प्रताप बंट गए। गाय - बकरे वाले बंटवारे में फँस गए। इन दिनों देश में प्रतीकों का एक नया ट्रेंड शुरू हुआ है। एक पक्ष को सगा बनाने के चक्कर में लोग दूसरे पक्ष को दुश्मन साबित कर रहे हैं। यह ट्रेंड भगवान् राम से शुरू हुआ था।भगवान राम को सगा साबित करने के लिए यह बवंडर खडा किया गया कि उनके घर दूसरी जाति के लोगों ने कब्ज़ा किया हुआ है। इसके बाद यह बढ़ता हुआ अन्य बिम्बों तक चला गया। अब महाराणा भी इस ट्रेंड सेटिंग के शिकार हो गए। इस सारी कवायद का धेय्य है महाराणा को एक ख़ास जाति , एक ख़ास धर्म का घोषित कर दूसरे को दुश्मन बनाना। अभी भी समय है इतिहास के प्रतीकों का राजनीतिकरण होने से बचाया जा सकता है।       

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