कश्मीर में नयी रणनीति की ज़रुरत
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज मैं सोमवार को कहा कि पाकिस्तान से बातचीत कब होगी जब वह आतंकवाद बंद करेगा शांति वार्ता और आतंकवाद दोनों साथ साथ नहीं चल सकते स्वराज ने कहा पाकिस्तान जब तक आतंकवाद बंद नहीं करेगा या उसका साथ नहीं छोड़ेगा तब तक वार्ता नहीं होगी।उन्होंने कहा कि बातचीत के लिए “ हम हमेशा तैयार हैं लेकिन आतंकवाद और बातचीत साथ साथ नहीं चल सकते, जब सीमा पर जनाजे उठते हों तो वार्ता की आवाज अच्छी नहीं लगती। उधर, भारत की प्रमुख खुफिया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख ए एस दुलत ने कहा है कि “ शांति वार्ता के बगैर कश्मीर समस्या का हल हो ही नहीं सकता।” दूसरी तरफ, कश्मीर में हर सफल मुठभेड़ के बाद आतंकवाद में नए नौजवान जुड़ते जा रहे हैं और आतंकवाद को काबू करने के लिए तैनात सुरक्षा एजेंसी इस पहेली में उलझ कर रह जा रहे हैं। एक तरफ, जहां सरकार वार्ता की बात कर रही है दूसरी तरफ कश्मीर में सुरक्षा बल दो परस्पर विरोधी हालात से जूझ रहे हैं। जिस तरह हर क्रिया के विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया होती है उसी तरह सुरक्षा बल द्वारा हर रोज उपद्रवियों को मारे जाने के बाद रक्तबीज की तरह और नौजवान आतंकवाद में शामिल हो जा रहे हैं। अभी हाल में दक्षिण कश्मीर के लोगों की एक बड़ी भीड़ सुरक्षा बल पर लगातार पथराव कर रही थी मजबूर होकर सुरक्षाबलों को समझदारी भरा फैसला लेना पड़ा। सुरक्षा बल के जवानों ने फायरिंग की। इसमें तीन नागरिक और एक आतंकी मारा गया। पथराव करने वाली भीड़ की मंशा थी कि ऐसे हालात पैदा कर दिए जाएँ कि आतंकी सुरक्षा बलों का घेरा तोड़कर फरार हो जाएँ । इसके बाद विरोध और उग्र होता गया तथा मजबूरन सुरक्षाबलों को अपना ऑपरेशन स्थगित करनापड़ा। उस समय हालात और भी ख़राब हो गए जब स्थानीय लोगों का और भी बड़ा हुजूम वहाँ जमा होकर जश्न मनाने लगा। इसके बाद एक वीडियो वाइरल हुआ जिसमें यह दिखाया गया कि आतंकवादियों की रक्षा के
लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा और आतंकवादी मोटर साइकिल पर सवार होकर निकल भागे। उस विडियो में यह बताने की कोशिश की गयी है कि सुरक्षा बल के जवान झुक गए। जबकि हकीकत यह थी कि अगर कार्रवाई की जाती तो सैकड़ो लोग मारे जाते।
यहाँ यह कहना बेमानी होगा कि मुठभेड़ या हिंसक प्रदर्शन के दौरान सुरक्षा बलों की कार्रवाई में होने वाली हर मौत के बाद प्रदर्शन में और लोग जुड़ जाते हैं तथा प्रदर्शन और उग्र हो उठता है। यह एक सिलसिला सा बन गया है। लगातार प्रदर्शन और उसके बाद मौतें। हर बार किसी की मौत होती है और पुलिस स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर के तहत उस इलाके में नागरिकों की आवाजाही पर रोक लगा देती है और उस इलाके में इंटरनेट ब्लॉक कर देती है। इससे गुस्सा और भड़क उठता है। 2018 में बमुश्किल पञ्च महीने गुजरे हैं और 56 नए नौजवानों के आतंकवाद में शामिल होने की खबरें भी परेशान करने वाली हैं क्योंकि इस बीच बड़े पैमाने पर नौजवानों ने हथियार डाले हैं, इसके बावजूद ऐसा हो रहा है। पिछले साल भी ऐसा ही हो रहा था। जितने मारे जाते उससे ज्यादा नए बन जाते। कश्मीर आई बी की रिपोर्ट के मुताबिक़ बड़े पैमाने में निकाले गए जनाजे उस मौत को रोमानी बना देते हैं और उसी रूमानियत के जाल में फँस कर नौजवान आतंकी बन जाते हैं। गुजरते महीने के साथ हालात और बिगड़ते जा रहे हैं।
ऐसे में निर्वाचित प्रतिनिधिओं का कर्तव्य है कि वे युवाओं के बीच जाएँ और उन्हें आतंकवाद से अलग होने के लिए समझाएं पर उन्होंने यह हिम्मत नहीं दिखाई। वास्तव में , कोई भी राजनीतिक पार्टी वहाँ आतंकवाद का विरोध नहीं करती उलटे राजनीतिक नेता कई अवसरों पर आतंकियों के सामने आत्म समर्पण कर देते हैं। इससे साफ़ पता चलता है कि इस समस्या से निपटने में राजनीतिक संस्थान अक्षम हैं। ऐसी स्थिति में भारत को नया दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। फ़्रांसिसी अपराधशास्त्र में अपराध करने की मंशा भी अपराध है। अब छोटी घटना की भारी जांच होती।ऐसे क़ानून लागू करने से आतंकवादियों की भारती और ट्रेनिंग जैसी अन्य लोजिस्टिक सुविधाएं मुहैया कराने वालों पर भी कार्रवाई की जा सकेगी। यही नहीं , शहादत के महिमामंडन की गाथा को तैयार करने और उसका प्रचार करने वालों पर भी रोक लगानी होगी। कुल मिला कर आतंकवाद विरोधी रणनीति में बदलाव की ज़रुरत है।
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