सशक्त विपक्ष का आदर्श बेकार ?
भाजपा का अभियान पूरी ताकत के साथ और निर्दयता के साथ विपक्ष को कुचलता हुआ2019 की तरफ पड़ता है । भारतीय मध्यवर्ग आश्वस्त है कि भाजपा ही जीतेगी । हालांकि, लोकतंत्र में यह विचार या स्वीकृति खतरों से खाली नहीं है । अति बहुमत बहुत कम है राजनीतिक प्रक्रिया को तीव्र करता है और उसमें रचनात्मकता का समावेश करता है। इसलिए एक संरचनात्मक विपक्ष की आवश्यकता है। लेकिन देश को देखते हुए और इसके राजनीतिक हालात को देखते हुए ऐसा लगता है कि विपक्ष शायद ही रह पाए। ताकतवर सत्ता में विचार प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता है। अभी जो हो रहा है उसे देखते हुए हैरत होती है कि विपक्ष रहेगा कैसे । विपक्ष की गतिविधियों को देखकर लगता है सब कुछ ठीक है लेकिन जब शीर्ष पद के लिए बात आती है तो सब कुछ बिखर जाता है। ऐसा महसूस होता है कि विपक्ष की एकता मायावती, ममता, नायडू , स्टालिन और येचुरी के साथ बैठने का एक अवसर है , जो बस उस बैठक तक ही सीमित रहता है। उनके आचरण स्पष्ट रूप से अबूझ होते हैं । इन बैठकों में अव्यवहारिक रणनीतियां सामने आती हैं और उन पर बहस होती है। भारतीय लोकतंत्र को यह स्वीकार नहीं है कि किसी भी ऐसी राजव्यवस्था में विपक्ष उस व्यवस्था की धमनियों में बहने वाला लहू होता है जिसके बिना व्यवस्था चल ही नहीं सकती। बहुलतावाद के इस युग में विपक्ष का अर्थ राष्ट्रविरोध की और बढ़ता जा रहा है। कुछ लोगों का एक पक्ष बार-बार कहता हैं कि लोकतंत्र में विपक्ष की ऐतिहासिक और सेद्धांतिक आवश्यकता है जबकि दूसरा पक्ष कहता है के दो दलीय व्यवस्था लोकतंत्र में ज्यादा व्यवहारिक है इसमें पराजित पक्ष विपक्ष की भूमिका निभाता है। लेकिन इस व्यवस्था को ध्यान से देखें तो लगता है कि विपक्ष एक बहुदलीय या विभिन्न परतों वाला नाटक है। असल में विपक्ष विभिन्न तरह के मतभेदों आकारों और पंथों का एक तरह से न्यासी होता है । विपक्ष मतों की भिन्नता और तर्कों की विभिन्नता को समायोजित कर एक वैकल्पिक समाज की रचना करता है तथा लोकतंत्र के डायनामिक्स को जारी रखता है। इस अर्थ में विपक्ष वर्तमान के भारी बहुमत वाले सत्ता पक्ष से प्रश्न पूछने की संभावनाओं को जागृत रखता है । विपक्ष प्रतिनिधित्व की नैतिकता को कायम रखता है।
आज जिस विपक्ष की बात उठ रही है वह है वित्त आयोग के गठन के बाद उत्तर और दक्षिण के भेद का परिणाम है । उत्तर- दक्षिण विपक्ष स्पष्ट और दोहरे अर्थों वाला है। यह उनकी बात सुनकर ही पता लग जाता है। नई स्थिति विपक्ष के लिए एक बहाना है। उसके लिए निर्देशन नहीं है। इस मामले में जो सबसे ज्यादा बात हो रही है वह है फेडरल व्यवस्था की , और वित्त की। प्रश्न है कैसे सभी राज्य ज्यादा आजाद हों ? ऐसा कि सभी राज्य एक बड़ा फेडरल विश्व बन जायें । यहां पसंद के विपक्ष या विपक्ष की पसंदगी की बात है जो भाजपा को हजम नहीं हो रही है।
सिविल सोसाइटी एक ऐसी दुनिया है जो कई सतहों में बंटी हुई है और यह एक विपक्ष को अपेक्षित कच्चा माल मुहैया करा सकती है। अब यहाँ प्रश्न अल्पसंख्यक विपक्ष का नहीं है। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक विपक्ष असल में विभेद का एक नाटक है या कहें नाटक का एक अंक है। भारत एक बहुत बड़ा और “ बहुत सारे हिस्सों में विभाजित” अपने आप में एक दुनिया है। विभाजन की सीमा रेखाएं भौगोलिक तथा काल्पनिक भी हैं। विपक्ष के लिए जरूरी है की इतने टुकड़ों में तक्सीम समाज को और उनके रहन सहन की आदतों को ढूंढ कर उनका एक नेटवर्क तैयार करे। मतभेद एक बेहतरीन बौद्धिक गतिविधि है। पिछले एक दशक से मतभेद की जो कल्पनाएं हैं या मतभेद में निहित सृजन की जो संभावनाएं हैं उन्हें एक साथ जोड़ना होगा। कल्पना करें राजस्थान के आदिवासी ,नर्मदा बांध विरोधी आंदोलनकारी, सूखे से राहत के लिए आंदोलन करने वाले किसान और बायोटेक्नोलॉजी को लागू करने के लिए जूझ रहे एनजीओ अगर कृषि सुधार के लिए एकजुट हो जाएं और यह विपक्ष के दृष्टिकोण के साथ चलें तो भविष्य में इसका भारी असर हो सकता है । एक विपक्ष का भविष्य बहुमतवाद के वर्तमान के समक्ष नई संभावनाएं प्रस्तुत कर सकता है।
विश्वविद्यालय सदा से ज्ञान का केंद्र रहे हैं और साथ ही आलोचना की कोशिश के तहत सामाजिक आंदोलनों के सहाय्यक भी। विपक्ष को इस बात को उठाना पड़ेगा। एक नई बहस छोड़नी होगी विश्वविद्यालयों को सत्ता पक्ष अगर कब्जे में लेता है और उसकी स्वायत्तता समाप्त करता है तो वाह उसके विश्वविद्यालय होंगे या कहें कि उसके अस्तित्व पर भी असर डालेगा उसकी ज्ञान प्रणाली को चौपट कर देगा और समाज की अर्थव्यवस्था को भी असर पहुंचाएगा। अगर सूक्ष्मता से देखा जाए विश्वविद्यालय विचारों कि एक बहुलतावादी संस्थाएं हैं जिसकी पसंद आमतौर पर विरोध में निहित है। भारत को विचारों के विकल्पों और आविष्कार करने वाले ख्यालों की बहुत ज्यादा जरूरत है क्योंकि वह भाजपा के बड़े नेताओं के मध्यम दर्जे के विचारों के आगे पराजित हो रहे हैं आदर्शों आदर्शों के रूप में विश्वविद्यालय एक बहुलतावादी संस्थान हैं लेकिन दुर्भाग्यवश वे वामपंथी और दक्षिणपंथी आदर्शों में विभाजित गए हैं । अगर एक विपक्ष सिर्फ राजनीतिक है तो आगे चलकर अपर्याप्त हो जाएगा। गांधीजी के अनुसार विपक्ष केवल राजनीतिक है तो आगे चलकर उसकी कल्पनायें समाप्त हो जाएंगी । आज विपक्ष की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि वह खुद को मिट जाने से बचाए। गांधी ने कुछ संभावनाएं पेश की वाह राजनीति की वर्तमान आशा से परे पीड़ा के प्रति संवेदनशीलता है । राजनीति को जीवन शैली के रूप में रिचार्ज करने और प्रयोगिक विचार करने की है कि उसे किस चीज की आवश्यकता है । अगर कोई विपक्ष मौलिक विचारों को नहीं समझता तो वह पार्टी राजनीति के सतहीपन में उलझ कर रह जाएगा और निर्वाचकीय गणित की डफली बजाता रहेगा। एक विपक्ष जिससे भारत का आदर्श और उससे जुड़े विचार अभिव्यक्त हो तो वह टिक सकता है। आज विपक्ष बिखरा हुआ है और उसने भाजपा की विजय स्वीकार कर ली है । स्वीकृति के इस सवाल से उसे आगे बढ़ना होगा।
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