भारत में खुशहाली बढ़ी है पर ख़ुशी नहीं
राष्ट्र संघ के वर्ल्ड हैपीनेस रिपोर्ट 2018 के अनुसार विश्व के 156 देशों में भारत का स्थान 133 वां है। यह रैंकिंग 2015 से 15 अंक नीचे है। यह हालत तब है जब भारत की जी डी पी और स्वस्थ जीवन तथा उम्र सीमा में भी सुधार हुआ है। यह सम्पन्नता की पहचान है। यानि कुल मिलाकर पिछले तीन वर्षों में हालत सुधारे हैं। लेकिन इस रिपोर्ट के लिए जब 2017 में सर्वेक्षण चल रहा था उसमें शामिल लोगों ने काफी इत्मीनान और संतोष ज़ाहिर किया। खास कर के यह संतोष व्यक्तिगत आज़ादी को लेकर ज़ाहिर किया गया। व्यक्तिगत आज़ादी से यहां मतलब है जीवन के बारे में चुनाव से। लोगों ने सरकार के प्रति भी ज्या भरोसा जाहिर किया। लेकिन तब आज वह कौन सी बात है जो भारतियों को पिछले तीन साल के मुकाबले कम ख़ुशी दी है? भारतीय इस उपमहाद्वीप में सबसे कम खुश लोग हैं क्यों ? भारतीय उपमहाद्वीप में जितने भी देश हैं उनमें ख़ुशी के मामले में हमारा स्थान सबसे नीचे क्यों है? रिपोर्ट के मुताबिक़ म्यांमार (130), श्रीलंका (116), बंगलादेश(115), नेपाल (101), भूटान (97), चीन (86) और पकिस्तान (75) । सबके सब भारत से ज्यादा खुश मुल्क हैं। हम भारतीय कमज़ोर सामाजिक समर्थन, उदार समाज के अभाव और और हरदम चिंतित तथा गुस्से में रहने वाले लोग हैं। हम भारत के लोग सकारात्मक भाव को महसूस नहीं करते, खुल कर हंसने - हंसाने से कतराते हैं । यही नहीं, समाज विज्ञानियों के अनुसार सामाजिक –आर्थिक असमानता प्रति व्यक्ति जी डी पी के विकास की राह में रोड़े अटकाता है और लोगों में ख़ुशी के अवसर कम करता है। दरअसल जी डी पी स्वभावतः एक सूचकांक है और यह लोगों की खुशहाली तथा ख़ुशी को प्रक्षेपित करने के उद्देश्य से बनाया गया है और न यह पर्याप्त रूप में ऐसा कर सकता है। यही कारण है कि 2011 में राष्ट्र संघ महा सभा ने सदस्य राष्ट्रों से कहा था कि वे कोई ऐसी विधि विकसित करें जो मनुष्य के आनंद की खोज और खुशहाली को निर्देशित करने वाली सार्वजनिक नीति बन सके। 2012 से राष्ट्रसंघ दुनिया के देशों में ख़ुशी के भाव पट एक रिपोर्ट जारी करता है। इसमें ख़ुशी के कारण और दुःख के सबब की व्याख्या रहती है। भारत ने 2014-15 में जी डी पी में रिकार्ड विकास दर दर्ज किया।आंकड़े बताते हैं कि 2016-17 में भी उसने ऐसा ही किया। प्रति व्यक्ति जी डी पी जीवन स्तर के सूचकांक के तौर पर अक्सर इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन यह उसी समाज में होता है जहां आय और सम्पति का समानता से वितरण हुआ हो। भारत में आय , धन और मानवीय पूँजी में असमानता साफ़- साफ़ दिखती है। यहाँ किसी का भविष्य इस बात पर भी निर्भर करता है कि वह किस परिवार में जन्मा है। यही नहीं जो ढाँचे लोगों में सक्रियता जैसे प्राथमिक शिक्षा का अधिकार या सार्वजनिक स्वास्थ्य रोजना इत्यादि तेजी से ख़त्म हो रहे हैं। मनुष्य में सामाजिक और आथिक सक्रियता तेजी से घघट रही है। अब जबकि प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है तो असमानता भी। 2014 में भारत की जी डी पी बढ़ी थी तो सामाजिक आर्थिक असमानता भी उतनी तेजी से बढ़ी थी। 2013 में भारत में 39 करोड़ लोग देश के कमाने वाले लोगों में से आधे थे जो शीर्ष एक प्रतिशत लोगों की आय का 67 प्रतिशत कमाते थे। इन एक प्रतिशत लोगों की संख्या 78 लाख थी। जबकि 1980 में देश के निचले 50 प्रतिशत लोग देश सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों की आय से 319 प्रतिशत ज्यादा कमाते थे। सामाजिक असमानता ख़ुशी को ख़त्म कर देती है। अमरीकी अर्थशास्त्री रिचर्ड इस्टरलिंग ने 1970 में अपने शोध में दिखाया है कि 1946 और 1970 की आय के अनुपात ने किस तरह ख़ुशी को भी प्रभावित किया है।
विगत तीन साल में भारतीय नागरिकों ने सकारात्मक भाओं को कम अनुभव किया है। उनमें नकारात्मक भाव ज्यादा दिखें हैं। आप खुद में झांक कर देखें कि पूरे दिन खुश रहने के अवसर विगत एक हफ्ते में कितनी बार प्राप्त हुए हैं। ख़ुशी के सूचकांक को तैयार करने के दौरान जब सर्वेक्षण में शामिल लोगों से पूछा गया कि पिछले दिन आप कितने गनते हँसे और खुश महसूस किया तो सबका नकारत्मक उत्तर था। भारत में ख़ुशी के मौके घट रहे हैं और सकारात्मकता के अवसर कम हो रहे हैं। वे ज्यादातर गुस्से में या चिंतित रहते हैं। ख़ुशी विषयनिष्ठ अहसास है और सरकार को चाहिए कि इसका ध्यान रखे क्योंकि हर आदमी के जीवन का लक्ष्य ख़ुशी हासिल करना ही है।
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