कांग्रेस के फंदे में उलझ गए मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। बड़ी-बड़ी बातें करते हैं वे, अक्सर कहा करते हैं कि पहले के मुकाबले अब व्यापार करना भारत में ज्यादा सरल है। लेकिन क्या ऐसा है? हम इस बात की समीक्षा आगे करेंगे।
पिछले हफ्ते मोदी जी की सरकार के 4 वर्ष पूरे हुए। इस अवसर पर कई लेख लिखे गए। मोदी जी के पक्ष में और विपक्ष में भी । बड़े-बड़े आंकड़े खोजे गए और दार्शनिक बातें कही गयीं लेकिन जानने की कोशिश नहीं की गई की मोदी जी कहां उलझ गए और क्यों उलझ गए। 4 वर्षों के शासनकाल में मोदी जी ने दो बड़ी गलतियां कीं और इससे इनकी सारी बातें व्यर्थ साबित हो गयीं।
उनकी पहली सबसे बड़ी गलती थी राहुल गांधी की सूट बूट की सरकार जैसी टिप्पणी पर कुछ कहना। यह टिप्पणी बहुत चालाकी से लगाया गया फंदा था और उसमें बड़ी-बड़ी बातें करते हुए मोदी जी फंस गए। मोदी जी ने अपने जवाब में कहा कि हम इतनी आर्थिक समृद्धि लाना चाहते हैं जिस देश का निर्धनतम व्यक्ति भी सूट बूट खरीद सके। इसी जुमले के साथ वह फंदे में उलझ गए। उनकी बात से जो संदेश गया वह था कि वह भारत को नई आर्थिक दिशा नहीं देंगे बल्कि उसी रास्ते पर ले चलेंगे जिस पर कांग्रेस चला करती थी वही समाजवादी रास्ता। उन्होंने इस घोषणा के साथ ही यह व्यक्त कर दिया कि वह गरीबों के साथ हैं । इसका साफ अर्थ है की वह गरीबों को प्यार करते हैं क्योंकि गरीबी मिटने वाली नहीं है। यह रहेगी। यह शाश्वत है। शायद उन्हें याद होगा उन्होंने संपन्नता का वादा किया था गरीबी को गौरवान्वित करने का नहीं । यही नहीं, वह गरीबी को गौरवान्वित करने के चक्कर में रामदेव बाबा का पागलपन कर बैठे वही काले धन का मामला। हम में से बहुतों को इंदिरा गांधी का वो ज़माना याद होगा जब राजनीतिज्ञों की जेब गर्म करने वाले दरबारी सेठों को छोड़कर अन्य पूंजीपति अपराधी माने जाते थे। उद्यमी भारतीयों के सपनों को कुचल दिया जाता था और केवल सरकारी नौकरी ही विकल्प थी। अब मोदी जी की विपदा देखिए कि वह खुद को गरीबों का साथी कहते है और विपक्ष उन पर आरोप लगाता है कि वह अमीरों के सहयोगी हैं। यदि उन्होंने साहस दिखाया होता और नई आर्थिक राह पकड़ी होती, मनरेगा पर खर्च कम किया होता और किसानों की कर्जमाफी के बदले ग्रामीण भारत में रोजगार का बंदोबस्त किया होता है तो आज परिदृश्य ही दूसरा होता। 2019 के चुनाव में विजय सुनिश्चित होती । भारतीय किसान विश्व बाजार में खड़ा होता। मनरेगा में जो खर्च हुआ उसे अगर कृषि आधारित ग्रामीण उद्योग पर खर्च किया गया होता तो हवा का रुख दूसरा होता। मोदी जी की दूसरी सबसे बड़ी भूल थी कि उन्होंने हिंदुत्व झंडा उठाए लोगों के हुजूम को खुलकर खेलने दिया । यह लोग गौरक्षा के नाम पर मुसलमानों को मारते हैं और प्रधानमंत्री चुप रहे इससे यह समझा गया की इस मारकाट में उनकी सहमति है। एक बार उन्होंने हिंदुत्व से जुड़े लोगों के खिलाफ कहा था और वह तब जबकि हमले का शिकार व्यक्ति दलित था। इसलिए मुस्लिम समुदाय यह मानता है कि उसे खतरनाक साजिश के तहत दूसरे दर्जे का नागरिक बनाया जा रहा है ताकि इस देश को हिंदू राष्ट्र घोषित किया जा सके । चूंकि वह अल्पसंख्यक हैं इसलिए इसमें उनकी कोई जगह नहीं होगी। वैसे उनका यह सोचना भी गलत है क्योंकि वह अल्पसंख्यक नहीं भारत के दूसरे सबसे बड़े समुदाय के सदस्य हैं और जैसा कि यह हिंदुत्ववादी कहते हैं कि उन्हें पाकिस्तान चला जाना चाहिए अगर अगर वह जाते हैं तो भारत माता का एक बहुत बड़ा हिस्सा भी निकल जाएगा।
पिछले हफ्ते कर्नाटक में नए मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में विपक्ष के नेताओं के हुजूम को बहुतों में देखा होगा। देखकर हैरत होती है की धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सनकी लोगों का यह गिरोह जमा हुआ है। यह वही लोग हैं जो बार-बार कहते रहे हैं कि अगर मोदी जी प्रधानमंत्री हुए तो मुसलमानों पर कहर बरपा होगा। आज वे हैं कि उनकी बात सही हो गई। गौ मांस के नाम पर जिस दिन पहला मुसलमान मारा गया था उस दिन अगर मोदी जी ने सख्ती से कुछ कहा होता तो आज यह लोग हिंदुत्व का झंडा उठाए पागलों की तरह नहीं घूमते होते और अपने मारने की वीडियो क्लिपिंग नहीं लगाते होते। नफरत भरा यह खून खराबा बहुत पहले खत्म हो गया होता। मोदी भक्तों का तर्क है कि कथित धर्मनिरपेक्ष सरकारों के शासनकाल में भी भयानक दंगे हुए हैं और मरने वाले ज्यादातर मुसलमान ही रहे हैं। बेशक । लेकिन जब दंगे खत्म हो जाते हैं तो हर आम आदमी चाहे वह किसी भी पेशे का हो अपने सामान्य जीवन की ओर लौट आता है। लेकिन जब दंगों के बदले नफरत भरे अपराध होते हैं तो खतरा ज्यादा होता है। ऐसा वातावरण बनता है जिसमें स्थाई रूप से भाई कायम रहता है। देशभर में मुस्लिम समुदाय के साथ जो हो रहा है जल्दी कुछ नहीं किया गया तो वह एक स्थाई वातावरण में बदल जाएगा।
यह वातावरण वैसा नहीं है जिसमें नेता कारोबार की सहूलियत की बात करें । प्रधानमंत्री कहते हैं कि इन दिनों कारोबार की पहले से ज्यादा सहूलियत है लेकिन यह सच नहीं है। अगर यह सच होता तो निजी निवेश की बाढ़ आ जाती और लाखों रोजगार पैदा होते तथा अर्थव्यवस्था बेहद विकसित हो जाती। जाति पांति की समस्या ,नफरत से पैदा हुई मुश्किलें सब अपने आप सदा के लिए खत्म हो जाती लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ इन 4 वर्षों में।
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