गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की जयंती 7 मई पर विशेष लेख
गुरुदेव को जो डर था वह सच निकला
हरिराम पाण्डेय
आज गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की जयंती है । कोलकाता और गुरुदेव के बीच वही संबंध है जो शरीर और आत्मा के बीच होता है । गुरुदेव अपने समय के दार्शनिक कवि तो थे ही साथ ही युगदृष्टा भी थे। उन्होंने अब से 101 साल पहले1917 में राष्ट्रवाद पर इसी शीर्षक से एक किताब लिखी थी। उस पुस्तक में उन्होंने व्यक्त किया था कि राष्ट्रवाद से कई खतरे हैं । गुरुदेव ने राष्ट्रवाद की यूरोपीय व्याख्या को पूरी तरह खारिज कर दिया था । वर्तमान भारतीय राष्ट्रवाद अतीत के यूरोपीय साम्राज्यवाद के दर्शन से प्रभावित है। वर्तमान का राष्ट्रवाद भारतीय जमीन का दर्शन नहीं है। भारत में अंग्रेजी सत्ता महज साम्राज्यवादी शक्ति का ही प्रतीक नहीं थी। वह शक्ति की उन मान्यताओं का प्रतिनिधित्व करती थी जो एक ऐसी जीवन पद्धति में सन्निहित थीं जिसका सीधा संबंध एक ऐसी विकसित औद्योगिक समाज व्यवस्था से था । इस व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य प्रकृति पर विजय पाना था। ऐसी स्थिति में संभवत: पहली बार गुरुदेव ने किसी यूरोपीय संस्था की परिभाषा पर सोचना आरंभ किया।उन्होंने पश्चिम के राष्ट्र की अवधारणा पर सवाल उठाया। राष्ट्र की पश्चिमी व्याख्या है लोगों का एक ऐसा आर्थिक और राजनीतिक संघ जो एक यांत्रिक उद्देश्य के लिए संगठित है। समाज का इसमें कोई स्थान नहीं होता इसका अपना स्वयं का हित होता है। समाज मनुष्य की जैविक अभिव्यक्ति है और माननीय संबंधों का स्वाभाविक नियम । जिस के पारस्परिक सहयोग से मनुष्य विकास के विचार को विकसित कर सकता है। इसके राजनीतिक पहलू भी हैं लेकिन वह एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए हैं , आत्म संरक्षण के लिए हैं। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर का स्पष्ट मानना था कि “ स्वाभाविक रूप से निर्मित समाज तथाकथित कृत्रिम तौर पर निर्मित राष्ट्रीयता से ज्यादा मानवीय होता है।“ गुरुदेव रवीन्द्र नाथ वर्तमान काल के राष्ट्रवाद को दोषपूर्ण मानते थे। उन्होंने लिखा है “ राजनीति और वाणिज्य का यह संगठन ,जिस का दूसरा नाम राष्ट्र है, अगर उच्च सामाजिक जीवन के सौहार्द्र पर हावी हो जाएगा तो वह दिन मनुष्य के लिए सबसे बुरा दिन होगा।“ टैगोर ने भारतीय राष्ट्रीयता के भाव को 1916 में समझ लिया था जो आज 2018 और बदतर हो गया। आज सामाजिक दंड दिए जाने के बाद विदारक दृश्य उत्पन्न हो जाता है। उन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य का उदाहरण देते हुए कहा कि यह संपूर्ण आबादी का सामूहिक हित है और इस हित में कहीं भी मानवीय और आध्यात्मिक लाभ नहीं है। उनका मानना था कि “ राष्ट्रवाद बुराई की ऐसी महामारी है जिसने वर्तमान समय की सम्पूर्ण मानवता को ग्रस लिया है और नैतिक जिजीविषा का भक्षण किया है।“ एशिया के इस कोने में एक गुलाम देश के युगदृष्टा ने जब यह बात कही उस समय पहला विश्व युद्ध चल रहा था और दूसरे के बादल मंडरा रहे थे। विश्व के समक्ष हिटलर और मुसोलिनी के अति राष्ट्रवाद की परिणति लगभग एक करोड़ लाशों पर विलाप कर रही थी । यही कारण था टैगोर ने राष्ट्रवाद को बुराई की महामारी कहा था। गुरुदेव ने चेतावनी दी थी कि राष्ट्र खुद राष्ट्र का सबसे बड़ा दुश्मन होता है क्योंकि इसके सारे एहतियात इसके विरोध में होते हैं और दुनिया में कहीं भी नए राष्ट्र का जन्म मानवता के लिए एक नवीन संकट के रूप में उभरता है।
टैगोर ने भारत का विभाजन नहीं देखा ना ही 1971 में बांग्लादेश को बनते देखा पर उन्होंने इसके परिणामों को पहले ही देख लिया था और राष्ट्रवाद के बारे में जो उनका भय था वह सच होता जा रहा है । उन्होंने 2018 के राष्ट्र की हकीकत सौ बरस पहले ही बयान कर दिया था। टैगोर का मानना था राष्ट्र दुनिया की अब तक की मानव निर्मित सबसे ज्यादा ताकतवर निश्चेतक औषधि है । इस औषधि के प्रभाव में मनुष्य वह सब करता है जो मनुष्यता के लिए खतरनाक है। वर्तमान भारत में गौरक्षकों और भारत माता की जय के स्वयंसेवकों पर पूरी तरह लागू होता है। टैगोर ने 100 स साल पहले ही यह सब महसूस कर लिया था।
टैगोर ने एक बुनियादी सवाल उठाया था कि “ क्या आधुनिक विश्व को राष्ट्रवाद चाहिए या मानववाद।“ सभ्यता के इतिहास में मनुष्यता ने कई चरण पार किए हैं। उसमें बर्बरता से लेकर सांस्कृतिक मूल्य तक के कई चरण थे। तारीख की निगाहों ने वे दिन भी देखे हैं जब दुनिया के किसी कोने में किसी की भी कोई दौलत नहीं थी , सब कुछ सार्वभौमिक था और आज हम वह दिन भी देख रहे हैं कि दुनिया की99% दौलत पर सिर्फ 1% लोगों का कब्जा है। राष्ट्रवाद और नस्ली शुद्धता के नाम पर दो- दो विश्व युद्ध हुए। 1947 में जब भारत के विभाजन हुआ और राष्ट्रीयता के नाम पर एक नया मुल्क बना तो लाखों लोग मारे गए और करोड़ों लोगों ने विपदा भोगी।
टैगोर ने अपनी पुस्तक “ नेशनलिज्म” में विज्ञान के यूरोपीय मूल्य और आधुनिकता पर सवाल उठाया है , आधुनिकता के बारे में अपने विचार व्यक्त किए है। आजकी सही आधुनिकता मन की आजादी है पसंद की गुलामी नहीं। यह विचार और क्रिया की आजादी है ना कि अंग्रेजों के इशारे पर काम करने वाला कोई गुलाम। उनका मानना था भारत की मूल समस्या राजनीतिक नहीं सामाजिक है। भारतीय समाज के प्रति अंबेडकर के विचार उनसे बहुत मिलते हैं। टैगोर ने राष्ट्रीय इतिहास के विचार को भी गलत बताया था और उनका मानना था इतिहास केवल मनुष्य का होता है।सभी राष्ट्रीय इतिहास समष्टिगत रूप मैं एक अनुच्छेद होते हैं और हम भारत में इससे पीड़ित होकर भी संतुष्ट हैं। भारत के संदर्भ में भी उन्होंने अंधराष्ट्रीयता की तीखी आलोचना की है और कहा है कि यह एक बहुत बड़ा संकट है। यह एकमात्र ऐसी वस्तु है जो भारत की सभी समस्याओं और दिक्कतों के मूल में वर्षो से कायम है।
टैगोर राजनीतिक राष्ट्र की अवधारणा को सही नहीं मानते। क्योंकि, उनका कहना है कि यह मानसिकता को आजादी नहीं प्रदान करता और जब हमारा मानस ही आजाद नहीं है तो आजादी से क्या फायदा। वर्तमान में ट्रंप के शासन में अमरीका एरडोगन के शासन में तुर्की और भारत की सत्ता पर नरेंद्र मोदी - यह सब के सब बुराई की महामारी से पीड़ित हैं और लोगों को भी पीड़ित कर रहे हैं। टैगोर ने चेतावनी दी इन देशों और दुनिया के लोग राष्ट्रीयता के नशे से कब उबरेंगे यह नहीं बताया जा सकता। लेकिन अभी भी वक्त है लोग नींद से जागें और राष्ट्रीयता के ऊपर मानवता को तरजीह दें ।
हम इस चेतावनी को भूलकर ऐसे रास्ते पर बढ़ रहे हैं जो तकनीकी विकास एक ऐसा पैटर्न है जिसे हम अपने जीवन पर आरोपित करना चाहते हैं । हमारे लिए यह सभ्य प्रगतिशील और आधुनिक बनने का शॉर्टकट है। हमने उस बुनियादी सत्य को नजरअंदाज कर दिया जो हमारी समाज व्यवस्था से जीवन की प्रेरणा प्राप्त कर पा रहा है। यह तर्क निराधार है कि औद्योगिक क्रांति के बगैर हमारी गरीबी दूर नहीं हो सकती। सोचना यह है कि क्या हमने कभी इस प्रगति को अपने देश में जातीय गति से जोड़कर देखा है या फिर प्रगति के इस मॉडल को पहली दुकान से खरीद लाए हैं। भारत तो पहले भी गरीब था पर दरिद्र नहीं था। दरिद्रता और विपन्नता उसी ढांचे की देन है जिसने हमें मानवता से काटकर अलग खांचे में फिट कर दिया और उस का नाम राष्ट्र रख दिया। आखिर वक्त आ गया है जब हम फिर से मूल्यांकन करें कि हमें जरूरी क्या है राष्ट्रीयता या मानवता।
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