किसानों का घटता भरोसा
चारों तरफ चर्चा है कि भारत बहुत तेजी से विकसित हो रहा है और विकास दर भी काफी तेज है।विकास दर में सेवा क्षेत्र की भूमिका महत्वपूर्ण है क्योंकि उत्पादन क्षेत्र में विकास स्थिर बना हुआ है और उसका स्तर उभरती अर्थव्यवस्था के लिए संतोषजनक नहीं है। विकास दर में कृषि क्षेत्र का हिस्सा और वह तेजी से घट रहा है। फिलहाल उसका विकास दर 16 प्रतिशत है जबकि उत्पादन क्षेत्र का हिस्सा 58 प्रतिशत है। किसी भी उभरती अर्थ व्यवस्था के लिए यह सामान्य फिनोमिना है कि कृषि क्षेत्र का हिस्सा कम होता जाता है।लेकिन , भारत के मामले में उत्पादन क्षेत्र का भी हिस्सा कम होता जा रहा है। इसमें चिंताजनक बात है कि कृषि भारत के 58 प्रतिशत ग्रामीण लोगों की आजीविका का आधार है और जी डी पी में इसका हिस्सा तेजी से घट रहा है। हम सभी जानते हैं कि ग्रामीण भारत में समस्याएं हैं , मुश्किलें हैं और किसान बेचैन हैं। उधर राज्य सरकारें किसानों की मुश्किलें ख़त्म करने की बजाय उसे रोकने के लिए खेती पर लिए गए कर्जों को माफ़ करने में लगी है। हमारा कृषि उत्पादन तेजी से गिर रहा है। 2010 से 2014 के बीच देश का कृषि उत्पादन 5.2 प्रतिशत था जो 2014 के बाद अबतक 4 वर्षों में घटकर 2.4 प्रतिशत हो गया। घटा विकास दर ही दुःख के बढ़ने का कारण है। अनाज की उगाही की दर भी पिछले सालों की दरों से महज 3 प्रतिशत ज्यादा है। यहाँ फिर उत्पादक और उपभोक्ता के बीच की कहानी सामने आती है। अब अगर उगाही की दर में तेज वृद्धि कर दी जार तो खाद्यस्फीति बढ़ जायेगी और इसके परिणामस्वरूप शहरी मतदाता नाराज हो जाएगा। इसमें संतुलन बनाए रखने का प्रयास हर सरकार करती है और बड़ा कठिन काम है। वर्तमान सरकार भी बेशक स्फीति को नियंत्रित करना चाहती है अतएव उगाही के मूल्य को भी नियंत्रित कर रखी है। अब किसानों के असंतोष को कृषि ऋण की माफ़ी से कम करने की कोशिश की जा रही है और चुनाव तक यह चलता रहेगा। क्योंकि किसान सरकार के महत्वपूर्ण मतदाता हैं।
हमारे प्रधान मंत्री जी ने 2014 में चुनाव प्रचार के दौरान वादा किया था कि उगाही की कीमत उत्पादन लागत से 50 प्रतिशत ज्यादा कर दिया जाएगा। अब यह वादा सरका को चार वर्षों के बाद याद आया। अब यहाँ एक विवाद है कि उत्पादन मूल्य किसे कहते हैं। किसान कुल मूल्य पर 50प्रतिशत ज्यादा मांग रहे हैं जबकि सरकार ने वैकल्पिक मूल्य 38 प्रतिशत कम तय किया है । इससे किसान खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं। प्रधान मंत्री ने एक और बात कही थी। उन्होंने वादा किया था कि वे भारतीय खाद्य निगम में सुधार लायेंगे। इसके अनुसार निगम को छोटे-छोटे खण्डों में विभक्त कर दिया जाएगा जो उगाही और भंडारण का काम देखेंगे। इस दिशा कुछ नहीं हो सका , यद्यपि इस उद्देश्य के लिए गठित समिति ने अपनी रपट दे दी थी। यह ज़रूरी है कि सरकार इन म्मामलों पर अविलम्ब ध्यान दे।
यह दुखद है कि इतनी बड़ी आबादी खेती पर गुजर करती है और उसका विकास दर उतनी तेजी से नहीं बढ़ रहा है जितनी तेजी से सेवा क्षेत्र या उत्पादन क्षेत्र बढ़ रहे हैं। इसका दूरगामी समाधान है शहरीकरण और इसके लिए अर्थव्यवस्था में तेज विकास। लेकिन यह भी काफी दूफ की बात है क्योंकि वर्तमान में विकास दर 7प्रतिशत है। अब ग्रामीण क्षेत्र में बढ़ रहे असंतोष को काबू करने के लिए सरकार को बहुत ज्यादा संसाधन मुहैय्या कराने होंगे। लेकिन पहला काम है कृषि विकास को बढ़ाना।
मीडिया इस दिशा में ध्यान नहीं देती क्योंकि इसकी टी आर पी नहीं है। इसमें एक मनोवृति साफ़ दिख रही है। हम अनाज की कीमतों के बारे में सोचते हैं उसे उगाने वाले लोगों के बारे में नहीं। लेकिन कोई यह नहीं देखता कि वह जो अनाज उगा रहा है वह भी भारतीय है और उसने अपने दम पर देश को अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बनाया है। किसानों का लगातार दुःख हम सब के लिए शर्म की बात है। इस मामले को हारी सहानुभूति की जरूरत है और अगर इस ओर से हम आँखें मूंदते हैं तो हम पाप के भागी होंगे।
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