व्यवस्था के समक्ष एक सवाल
मेरा देश भारत महान है। यहां 27% लोग गरीब और उन्हें 2 जून की रोटी नसीब नहीं है। हम कैसे मुल्क में रहते हैं जहां आसानी से किसी मासूम नाबालिग का बलात्कार किया जा सकता है, फुटपाथ पर सो रहे गरीब लोगों को अपनी आलीशान कार से कुचलकर मारा जा सकता है, जबरदस्ती किसी की जायदाद पर कब्जा किया जा सकता है, ट्रैफिक सिग्नल को तोड़कर आगे बढ़ा जा सकता है, बेजुबान जानवरों का शौक के लिए शिकार किया जा सकता है, जाति धर्म के नाम पर दंगे फसाद करवाए जा सकते हैं और अगर इससे भी संतोष ना हुआ तो बैंकों से अरबों रुपए लेकर विदेश भागा जा सकता है। इतना महान है मेरा मेरा देश। ताकतवर लोगों को कानून का डर नहीं है क्योंकि वे आश्वस्त हैं कि वर्षों तक कुछ नहीं हो सकता। यही नहीं अगर किसी चमत्कार के कारण फैसले का दिन करीब आ भी गया तो जाति धर्म के नाम पर फसाद करवा कर फैसले की तारीख को रोका भी जा सकता है या आगे बढ़ाया जा सकता है। यदि कोई अमीर है उसकी तो और चांदी है क्योंकि वह देश छोड़ सकता है या फैसले को लंबा खींचने के लिए महंगे वकील रख सकता है। दूसरी तरफ गरीब क़ानून की दर से भयभीत है । हर दिन जो खबरें सुनने को मिलती हैं उनसे साधनहीन तथा कमजोर लोगों को न केवल डर बढ़ता है बल्कि एक ऐसा भाव भी आता है कि हम आखिर कानून को मानें क्यों ? क्या देश के सारे कानून हमारे लिए ही हैं और फिर उसका झुकाव कानून की अवमानना करने की ओर होने लगता है और जैसे ही उसकी तरफ कदम बढ़ा तो वह अपराध की ओर बढ़ जाता है। हमारे लिए सबसे ज्यादा लज्जास्पद है हमारे देश की धीमी कानून व्यवस्था। बेहद धीमी चलने वाली अत्यंत खर्चीली न्याय प्रणाली हमारे देश के आम लोगों के लिए दुर्लभ है और उनके लिए न्याय आकाश कुसुम है। तारीख पर तारीख मिलती जाती है पर इंसाफ नहीं मिलता। अगर देश में लंबित पड़े मामलों और न्यायाधीशों की कमी के आंकड़े देखेंगे तो हो सकता है सिर चकराने लगे। आंकड़े बताते हैं हमारे देश में सभी अदालतों को मिलाकर दो करोड़ 68 लाख 94 हज़ार 167लंबित पड़े हैं इनमें एक करोड़ 87 लाख 39 हज़ार 531 मामले आपराधिक हैं। देश के सभी जेलों में कुल दो लाख 82हज़ार 76कैदी हैं और इनमें दो तिहाई कैदी विचाराधीन हैं। देश में जितने जज चाहिए उनसे 40% कम हैं यानी 40% सीटें खाली हैं। कानून का दर्शन है कि न्याय प्रणाली देश में कानून और व्यवस्था बनाए रखने में भूमिका निभाती है। ऐसे में जब सही समय पर न्याय नहीं मिलता तो व्यवस्था पर से भरोसा उठने लगता है। यही नहीं इतनी धीमी चलने वाली कानून व्यवस्था मैं भी बदलाव लाने की कोशिश की जा रही है। जानकर हैरत होगी कि हमारे करीब 1765 सांसदों और विधायकों पर सैकड़ों आपराधिक मामले दर्ज हैं। यह संख्या कुल सांसदों- विधायकों के 36% है। इन माननीय लोगों में कुछ पर महिलाओं के खिलाफ अपराध भी दर्ज हैं।
न्यायिक व्यवस्था में सुधारों और आधुनिकीकरण की भी कोशिश चल रही हैं। करोड़ों लंबित मामलों को जल्द से जल्द समझाने की जरूरत है और इस उद्देश्य के लिए ई - कोर्ट परियोजना लागू की गई थी लेकिन वह भी पूरी नहीं हो सकी। 13 साल से प्रयास चल रहे हैं। यही नहीं न्याय प्रणाली में सरकार की तरफ से धन का आवंटन भी पर्याप्त नहीं किया जाता और जो होता भी है उसका उपयोग कम ही होता है। यही नहीं आर्थिक सर्वेक्षण 2017 रिपोर्ट के मुताबिक प्रत्यक्ष और परोक्ष कर की मुकदमेबाजी की कुल राशि 7.58 लाख करोड़ है जो जीडीपी से 4. 7% ज्यादा है।
जो लोग कानून बनाते हैं या बनाने का अधिकार रखते हैं उन माननीय लोगों की लापरवाही से न्याय प्रणाली के प्रति आम जनता का भरोसा घट रहा है और न्याय पाना मजाक बनकर रह गया है, जबकि संविधान में इसकी मौलिक अधिकार के रूप में गारंटी दी गई है। संपत्ति से या अनुबंध से जुड़े लाखों मामले लंबित हैं । यह लोगों को व्यवसाय करने या संपत्ति अर्जित करने के हक से रोकता है। विश्व बैंक के रिपोर्ट के अनुसार आसानी से व्यापार करने एक साधारण से अनुबंध से जुड़े मामले के समाधान में 4 साल तक अदालतों के चक्कर लगाने होते हैं । अगर यह कहा जाए न्याय के लिए या कहें न्याय की मामूली प्रक्रिया को थोड़ा तेज करने के लिए लगभग हर आदमी को भ्रष्टाचार का सहारा लेना पड़ता है। वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट के लॉ इंडेक्स 2017 के अनुसार 113 देशों की सूची में हमारा भारत 62 वें रैंक पर है। आखिर न्याय व्यवस्था में इस विलंब को कब तक बर्दाश्त किया जा सकता है और अगर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है तो सबसे बड़ा सवाल है कि हम न्याय को या कहें कि कानून को माने ही क्यों ? अगर कानून को मानना आम आदमी छोड़ दे क्या हालत होगी इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। यह तो ऊपर वाले का शुक्र है कि अभी भी देश की आम जनता कानून को मानती है और उसका सम्मान करती है।
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