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Sunday, September 30, 2018

शब्द प्रहारक भी होते हैं

शब्द प्रहारक भी होते हैं
पिछले हफ्ते भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री अमित शाह ने बांग्लादेशी घुसपैठियों को घुन बताया और कहा कि सब के नाम मतदाता सूची में से काट दिए जाएंगे। उन्होंने  असम में जारी  नागरिकों की सूची के मसौदे का हवाला देते हुए कहा कि 40 लाख घुसपैठियों की शिनाख्त की गई है और बीजेपी सरकार एक-एक घुसपैठियों को चुन- चुन कर मतदाता सूची से हटाने का काम करेगी।
       अमित शाह के इस कथन पर बांग्लादेश के सूचना मंत्री हसन उल हक इनु ने तीखी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा कि श्री शाह ने अवांछित टिप्पणी की है। उन्होंने कहा कि श्री शाह भारत-बांग्लादेश संबंध पर बोलने के अधिकारी नहीं हैं और गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने ढाका को आश्वासन दिया है कि जिन लोगों के नाम सूची में नहीं भी होंगे उन्हें बांग्लादेश भेजा नहीं जाएगा । इनु ने स्पष्ट कहा कि यहां हम ढाका में श्री शाह के बयान को कोई महत्व नहीं दे रहे हैं।  इसे सरकारी बयान की गंभीरता और उसका  दर्जा हासिल नहीं है। उन्होंने कहा कि हम मानते हैं कि यह सूची भारत के असमी और बांग्ला भाषी नागरिकों के कल्याण के लिए तैयार की गई है और यह भारत का आंतरिक मामला है। इनू  ने कहा कि भारत सरकार ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है और  गृहमंत्री राजनाथ सिंह द्वारा उसका विवरण भेजा भी जा चुका है।
     नागरिकों की मसौदा सूची पर आपत्ति जाहिर करने तथा दावे करने की तारीख मंगलवार से शुरू हुई है। जिन लोगों के नाम मसौदा सूची से बाहर हैं उन में भारी असंतोष और अनिश्चय है क्योंकि उन्हें डर है कि अंतिम सूची में उनका नाम शायद ही शामिल किया जा सके।
      30 जुलाई को जो मसौदा सूची जारी हुई थी उसमें 3. 29 करोड़ आवेदनों में से 40 लाख लोगों के नाम हटा दिए गए । यह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि असम और भारत सरकार दोनों अत्यंत मानवता पूर्ण ढंग से यह सोच रही है कि आखरी सूची में जिनके नाम नहीं शामिल होंगे उनका क्या किया जायेगा। वैसे तो अपील के कई चरण हैं लेकिन भारत सरकार को चाहिए कि वह सरकारी तौर आश्वासन दे कि उन्हें वहां से निकाला नहीं जाएगा । दक्षिण एशिया के जटिल इतिहास में उन लोगों की हालत बहुत खराब है जो बाहर से आए हैं और उनका किसी सूची में नाम नहीं है। वह गरीबी के बदकिस्मत शिकार है । भारत की परंपरा रही है कि जिनके पास कोई शरण नहीं है उन्हें वह शरण देता है । यह परेशान कर देने वाली स्थिति है कि अभी अंतिम सूची तैयार नहीं हुई है और राजनीतिक नेता खासतौर पर उस पार्टी के नेता जिनकी  सरकार असम में है इस तरह के बयान दे रहे हैं।
       शुरू से ही भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजिद में अच्छे संबंध रहे हैं। बांग्लादेश और भारत ने गत जून 2015 में ऐतिहासिक भूमि सीमा समझौता हस्ताक्षरित किया। इस समझौते से 41 साल पुराना सीमा विवाद समाप्त हो गया और 4 हजार किलोमीटर लंबी भारत-बांग्लादेश सीमा को पहचान मिली। शाह को भारत बांग्लादेश संबंध पर बोलने का अधिकार नहीं है। वे एक दोस्त पड़ोसी को भड़का रहे हैं। चुनावी रणनीति विदेश नीति नहीं है।
     राफेल सौदा मूल्य वृद्धि आर्थिक विकास जैसे मसलों को लेकर मोदी सरकार खुद परेशान है। वैसे में इस तरह की अंध राष्ट्रीयता का उपयोग मतदाताओं का ध्यान भटकाने के लिए किया जाता है। विपक्षी दल सरकार पर लगातार घोर पूंजीवाद का आरोप लगा रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री के मुख्य रणनीतिकार भारत का संबंध ढाका के साथ जोखिम में डाल रहे हैं। शाह के इस बयान की प्रतिध्वनि कई भाजपाई नेताओं में सुनी जा रही है । इसमें जो सबसे बड़ी बात है  वह है कि बहुत से नेता असम की नागरिकता सूची लेकर कंफ्यूज हैं। एक ही परिवार के कुछ लोग सूची में हैं और कुछ लोग नहीं हैं। इतनी बड़ी कार्रवाई के लिए जो तैयारी चाहिए उसके लिए बहुत बड़े संसाधन की जरूरत है इसके बारे में कोई नहीं  सोचता है  और सोचे भी क्यों जब कुछ भड़काऊ डायलॉग और नारे ही वोट लेने के लिए पर्याप्त हैं।

Friday, September 28, 2018

इसबार अयोध्या का फैसला

इसबार अयोध्या का फैसला
2019 में राजनीतिक चक्रवात पैदा करने का सूत्र सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या संबंधी फैसले से निकलता नजर आ रहा है । सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने गुरुवार को फैसला दिया कि मस्जिद में नमाज पढ़ने इस्लाम का अटूट हिस्सा नहीं है। अदालत ने व्यवस्था दी कि 1994 के इस्माइल फारूकी से जुड़े संबंधी फैसले को बड़ी पीठ को प्रेषित करने की ज़रूरत नहीं है।सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से 1994 के फैसले पर पुनर्विचार करने से इनकार कर दिया। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति अशोक भूषण इस दलील को यह कहते हुए खारिज  कर दिया कि 1994 का निर्णय आरोप के संदर्भ में था। न्यायमूर्ति भूषण ने मुख्य न्यायाधीश की ओर से फैसले को पढ़ते हुए कहा कि मस्जिद के संबंध में पूर्ववर्ती आदेश इस्लाम से जुड़ा नहीं है और यह सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के अधिकार कैद संदर्भ में है। उन्होंने कहा कि पूर्ववर्ती आदेश का अयोध्या पर अंतिम  फैसले से कोई  संबंध नहीं है इसलिए इसे बड़ी पीठ के  संयोजन की कोई ज़रूरत नहीं है। चूंकि पूर्ववर्ती आदेश केवल अधिग्रहण से रोकने से संबंधित है इसका ज़मीन के मालिकाने से कोई लड़ना देना नहीं है। तीन जजों की पीठ इस मामले पर सुनवाई जारी रखेगी और 29 अक्टूबर को अपना फैसला देगी।
   यद्यपि न्यायमूर्ति अब्दुल नज़ीर ने अन्य जजों से असहमति जाहिर करते हुए कहा कि क्या मस्जिद इस्लाम का अटूट हिस्सा है इस बात पर विस्तृत विचार होना चाहिए और इसके लिए संविधान पीठ के गठन की आवश्यकता है ? उन्होंने कहा कि धर्म के लिए क्या अनिवार्य है इसका जिक्र इस्माइल फारूकी मामले में हो चुका है लेकिन इस संबंध में धार्मिक ग्रंथों का सहारा नहीं लिया गया है। अतएव इस मामले पर विस्तृत  पुनर्विचार की आवश्यकता है। उन्होंने यह भी कहा कि इस फैसले का प्रभाव इलाहाबाद हाई कोर्ट के 2010 के फैसले पर भी है और शिरूर मठ केस के अनुरुप इस पर विचार की ज़रूरत है।
    1994 में डॉ. इस्माइल फारूकी के आवेदन पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के  पांच जजों की पीठ ने कहा था कि मस्जिद इस्लाम धर्म के रीति रिवाज का अटूट हिस्सा नहीं है। जजों ने कही नमाज़ तो कहीं पढ़ी जा सकती है इसके लिए मस्जिद कोई ज़रूरी नहीं है । डॉ. फारूकी ने  विवादित ढांचे के चदुर्दिक 67.7 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को चुनौती दी थी।  विडंबना देखें कि भाजपा शासित राज्य हरियाणा में खुले में नमाज़ पढ़ने में बाधा पहुंचाने के मामले में मुख्य मंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा कि खुले में नमाज़ पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। इसे केवल मस्ज़िद में ही पढ़ा जाना चाहिए।
     यह फैसला अयोध्या मामले को फिर आरम्भ कर देगा और फैसले का समय 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों को बदल सकता है। नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में  2014 से राम मंदिर का वादा कर रहे हैं। अब आने वाले दिनों में अयोध्या को लेकर राजनीति गरमायेगी। बाबरी मस्जिद कांड के बाद जो सबसे खास बात हुई वह थी कि भारतीय समाज के ताने बाने बिगड़ गए। हालांकि , देश में हिन्दू - मुस्लिम तनाव सदा से रहा है पर बाबरी मस्जिद ढाहे जाने के बाद से राजनीतिक शब्दावली में साम्प्रादायिक हिंसा धर्म के साथ - साथ जाति में बदल गयी। भाजपा ने बड़ी आसानी से समाजवादी पार्टी और राजद जैसे  दलों को पराजित कर दिया। हिन्दू वोट बैंक बनाने का पार्टी का सपना धीरे-धीरे साकार होता दिख रहा है। 2004 और फिर 2009 में कांग्रेस के हाथों पराजित होने के बाद भाजपा ने सत्ता में आने के लिए हिन्दू हृदय सम्राट का पल्लू थाम लिया। 2017 में उत्तर प्रदेश चुनाव में मुख्यमंत्री के रूप में किसी को सामने के बजाय ने योगी आदित्य नाथ को लाने का फैसला किया। तय है कि राम मंदिर पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र का हिस्सा था और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने " लोक कल्याण संकल्प पत्र" जारी किया था।
      पार्टी को इसका लाभ मिला पर विगत चार वर्षों में सियासी नज़ारा बदल गया और भाजपा के सामने नई  चुनौतियों आ गईं। पार्टी ने 2014 में "अच्छे दिन " की घोषणा की थी पर वह जुमला साबित हो गया। पार्टी ने 2014 में कांग्रेस पर जो आरोप लगाए थे वही लौट कर इनपर भी लगने लगे। शायद उन्हीं मामलात को दुबारा ठीक करने के लिये पार्टी 2018 में कई दलों का साथ छोड़ दिया। नरेंद्र मोदी सरकार अपनी सफलताओं की एक सूची प्रकाशित करने वाली है पर इसे तैयार करना उसे थोड़ा मुश्किल लग रहा है। पहले पार्टी अपनी क्षमता - योग्यता सिद्ध करने के लिए  पांच साल मांगती थी लेकिन अब वह 2022 तक कि मोहलत मांग रही है। लेकिन मतदाता अनमने से लग रहे हैं।
अब अयोध्या पर यदि कोई " अच्छा" फैसला आ जाता है नरेंद्र मोदी सरकार के लिये अच्छा अवसर आ सकता है। चूंकि पार्टी की विचारधारा के मुताबिक अयोध्या मामला आस्था से जुड़ा है इसलिए इसका राजनीतिक लाभ समाप्त नहीं होता। उधर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी नरम हिंदुत्व को अपनाते हुए आगे बढ़ रहे हैं  इसलिए भाजपा को कोई मजबूत मुद्दा चाहिए। यही कारण है कि भाजपा के कुछ नेता कहते चल रहे है कि अगर कोर्ट का फैसला अनुकूल नहीं आया तो अध्यादेश का रास्ता भी अपनाया जा सकता है। अब , सुप्रीम कोर्ट शीघ्र निर्णय के पथ प्रशस्त कर रहा तो राम मंदिर के चतुर्दिक राजनीति सुगबुगाने लगी है।

Thursday, September 27, 2018

आधार की धार कुंद

आधार की धार कुंद
बहुतों को यह मालूम नहीं होगा कि बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पहले  भी कई मामलों में आधार नंबर देने की बाध्यता नहीं थी ।यह बैंक खाता खोलने में या मोबाइल नंबर लेने में पहले भी ज़रूरी नहीं था अथवा बच्चे का स्कूल में दाखिला कराने में इसकी जरूरत नहीं थी , कम से कम सरकार ने तो ऐसा नहीं कहा था। यह हवाई अड्डे में प्रवेश या बीमा पॉलिसी लेने में भी ज़रूरी नहीं था।अलबत्ता , सरकारी सब्सिडी लेने के लिए उसकी जरूरत थी फिर भी अदालत ने निर्देश दिया था कि यह ना भी हो तो किसी को सुविधाओं से वंचित ना किया जाय। इसके बावजूद हर जगह लोगों से आधार नंबर मांगा जाता है। सब लोग चुपचाप दे भी देते हैं। अगर आधार नंबर नहीं दिया किसी ने तो उसे दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।यहां तक कि इंकार्फ़ करने वाले को यह मालूम है कि वह सही है। यह बदलेवाला नहीं है। हमारा देश बगैर नियम कायदे का मुल्क नहीं है। यह पश्चिम नहीं है। लेकिन भारत एक ऐसा भी देश है जहां कानून लागू करने वाला अपने अनुसार कानून को बदल देता है। जब तक इसपर कार्रवाई हो तबतक बहुत देर हो चुकी रहती है। मसलन , पुलिस जब मर्जी हो तब किसी को पीट नहीं सकती है । लेकिन पुलिस ऐसा करती है। अब मूल प्रश्न आधार पर आएं। उम्मीद है कि आपसे फिर आधार कार्ड मांगा जा सकता है ।और आपने अगर नहीं दिया तो फिर  वही झेलिये जो अब तक झेलते आए हैं । सुप्रीम कोर्ट ने इसे कायम रख कर इसके दुरुपयोग का विकल्प जारी रखा। वस्तुतः इसके कई नियमों को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया है पर कुछ खास नियम हैं जिसे अदालत ने कायम रखा है।... और ये खास नियम ऐसे हैं जिसके कारण भारत का हर आदमी इसे रखने के बाध्य है।
    सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने कहा है कि सरकारी सब्सिडी लेने के लिए यह अनिवार्य है। इसका मतलब है कि हर ऐसी जगह जहां आपको सरकारी सुविधा लेनी है , चाहे वह राशन की दुकान हो या सरकारी अस्पताल में इलाज , आपको आधार नंबर देना ही होगा। यदि आप सब्सिडी नहीं लेते हैं तब भी पैन नंबर लेने के लिए आधार नंबर देना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने पक्का कर दिया आधार कार्ड सबको बनवाना ही होगा और विभिन्न सुविधाओं के लिए इसे बार बार दिखाना भी होगा। अब चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने इसे वैध करार दे दिया तो यह तय मानिए कि भविष्य में सरकार इसे बाध्यतामूलक बनाने के लिए कई नियम बनाएगी।
     कोर्ट ने बैंक खाता खोलने या मोबाइल के लिए सिम कार्ड लेने में आधार की अनिवार्यता खत्म कर दी लेकिन काल हो सकता है कि वित्त मंत्रालय कोई ऐसा कानून बना दे कि बिना आधार के ना खाता खुलेगा ना सिम कार्ड मिलेगा। सरकार ऐसा कर सकती है।  आधार के लिए गठित संस्था  यू आई डी ए आई  हालांकि बार बार कहती है कि आधार कार्ड परिचय पत्र नहीं है पर ऐसा लगता है सरकार मानती नहीं है।भारत में कानून लागू करना हरदम एक चुनौती रही है। लोगो बोलने की आज़ादी है लेकिन भारत के गाँव और शहरों में कई अवसरों पर इस आज़ादी का जवाब पिटाई से मिलता है। आधार को मान्यता देकर सुप्रीम ने यह आश्वस्त कर दिया कि भारत की जनता अत्याचार का शिकार होती रहेगी। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ द्वारा इसका विरोध  किया जाना यह बताता है कि इसमें दिक्कतें हैं।उन्होंने इसे संविधान के प्रति धोखाधड़ी बताया और कहा कि इसका निगरानी के औजार के रूप में उपयोग हो सकता है। इसलिए उन्होंने इसे रद्द करने की अनुशगंसा की थी। लेकिन, और जज साहेबान इसपर राजी नहीं हुए।

Wednesday, September 26, 2018

भारत में गरीबी की दर घटी है

भारत में गरीबी की दर घटी है
एक तरफ तो रुपया लगातार कमजोर होता जा रहा है और तेल की कीमतें बढ़ती जा रही हैं इससे ऐसा लगता है कि देश का आर्थिक भविष्य अंधकारमय है, लेकिन इसी अंधेरे में उम्मीद की एक उजली किरण दिख रही है। राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम और ऑक्सफोर्ड गरीबी तथा मानव विकास पहल (ओ पी एच आई )द्वारा जारी वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एम पी आई) 2018 के मुताबिक भारत में 2005-  6 के दशक के बाद 271 मिलियन लोग गरीबी के दायरे से बाहर निकल आए हैं ।भारत के लिए यह सचमुच खुशखबरी है। बहुआयामी गरीबी सूचकांक वैश्विक गरीबी की पड़ताल के लिए एक शक्तिशाली आंकड़ा है । इसमें उपयोगी तथ्यों का प्रयोग किया जाता है। ओ पी एच आई के निर्देशक सबीना अलकायर के अनुसार इन आंकड़ों से केवल यही नहीं पता चलता है कि कौन सा देश गरीबी से कितना जूझ रहा है बल्कि यह भी पता चलता है की गरीब कौन है और वे कहां हैं और वह किस तरह गरीबी को झेल रहे हैं रहे हैं।
        एक तरफ तो यह रिपोर्ट हमें बताती है दुनिया के 104 देशों की  लगभग  एक चौथाई आबादी के 1.3 अरब लोग बहुआयामी गरीबी  में जी रहे हैं । जिसमें 46% लोग भयंकर गरीबी मे जी रहे हैं। यह एक ऐसी वास्तविकता है जिस पर दुनियाभर को सोचना चाहिए ।जहां तक भारत का सवाल है इसमें विगत 10 वर्षों में 28% लोग गरीबी के दायरे से बाहर निकल आए। अलकायर के मुताबिक यह एक ऐतिहासिक परिवर्तन है । अलकायर कहा कि हम इस समय के अंतर्गत इस परिवर्तन का आकलन कर सकते हैं और यह आश्चर्यजनक रूप से खुशखबरी है। यहां तक कि गरीबों की जनसंख्या वृद्धि में भी कमी आई है। इन की जनसंख्या 635 मिलीयन से घटकर 364 मिलीयन हो गई यानी 271 मिलियन लोग  गरीबी के दायरे से बाहर निकल आए। एक बहुत बड़ी बात है। रिपोर्ट में और भी कई बातें हैं जिससे खुशी हो सकती है। आरंभ के लिए यह कह सकते हैं कि10 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में गरीबी बहुत तेजी से कम हुई है । अगर देखें की 2015 -16 में 364 मिलियन लोग बहुआयामी  गरीबी सूचकांक के नीचे थे।इनमें  156 मिलीयन बच्चे थे। यानी ,34.6% बच्चे थे। हर 4 में एक बच्चा इनमें 27.1% आबादी ऐसे बच्चों की थी जो 10 वर्ष की उम्र के भी नहीं हुए थे। अच्छी बात यह है 10 वर्ष के उम्र के नीचे के बच्चों की आबादी में गरीबी तेजी से घटी है।
      लेकिन सब कुछ अच्छा नहीं है। भारत में बच्चों का जीवन विकसित करने के लिए काम कर रही है एक गैर लाभकारी संस्था "सेव चिल्ड्रन इन इंडिया " की निदेशक विदिशा पिल्लई के मुताबिक गरीबी घटने का मतलब बच्चों के लिए अधिकारों और जीवन की गुणवत्ता की प्राप्ति गारंटी नहीं है । बहुत से लोग गरीबी के दायरे से बाहर निकल रहे हैं। लेकिन जब बच्चों की बात आती है तो कई जटिल मामलों का हल होता हुआ नहीं दिखता है। 
    बातें और भी हैं। रिपोर्ट के मुताबिक अभी 2016 में परंपरागत रूप से हाशिए में रह रहे लोग जैसे गांव के लोग ,नीची जाति के लोग, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय के बहुत से लोग अभी भी अत्यंत गरीब हैं। रिपोर्ट के मुताबिक अनुसूचित जाति में आधे लोग गरीब हैं। इनके मुकाबले ऊंची जाति में गरीबी  15% है । वस्तुतः हर तीसरा मुसलमान और छठा क्रिश्चियन बहुआयामी तौर पर गरीब है। यकीनन, समाज के अन्य भाग सबके साथ आगे बढ़ रहे हैं । लेकिन ,भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती है कि वह गरीब रह गए लोगों पर ध्यान दे। यदि 2015 -16 का यह सकारात्मक रुझान कायम रहा तो मानवीय दुखों को कम करने में भारत की यह अभूतपूर्व सफलता होगी। देश में पैदा होते समय बचने की उम्मीद ,स्कूल जाने की उम्र और प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय का आकलन कर राष्ट्र संघ विकास परियोजना के मानव विकास सूचकांक को तैयार किया जाता है और इस सूचकांक में भारत का रैंक 130 है।जबकि गत वर्ष यह 129 था ।यानी, हमारी स्थिति थोड़ी खराब हुई है। कह सकते हैं कि हमारे लिए अच्छी और बुरी दोनों खबरें हैं।
      स्पष्ट रूप से रिपोर्ट जारी करने का यह समय दिलचस्प है । आम चुनाव होने वाले हैं और सत्तारूढ़ दल को असंतोष का सामना करना पड़ रहा है। यह रिपोर्ट भारतीय जनता पार्टी के लिए  उम्मीद को थोड़ा बढ़ाएगा । साथ ही चूंकि यह  10 वर्ष की अवधि की रिपोर्ट है और इसमें से 2 वर्ष ही यानी 14-16 बीच की अवधि भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल की है । बाकी कांग्रेस के  शासन काल की है। इससे कांग्रेस को भी थोड़ा लाभ मिल सकता है। लेकिन चुनाव का यह नजारा बहुत अस्थाई है। अगली बार जिसकी सरकार बनेगी उस पर इस स्थिति को कायम रखने और गरीबी को और कम करने का दवाब बना रहेगा।

Tuesday, September 25, 2018

विकास के लिए अफसरशाही में बदलाव जरूरी 

विकास के लिए अफसरशाही में बदलाव जरूरी 
विख्यात इतिहासकार डॉक्टर बी बी मिश्र ने अपनी पुस्तक "ब्यूरोक्रेसी इन इंडिया" में लिखा है कि देश का विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक ब्रिटिश राज के मालगुजारी वसूलने वाले भारतीय सिविल सेवा को विकास केंद्रित और गरीबी दूर करने वाले तंत्र में नहीं बदला जाएगा। सिविल सेवा या सरकारी सेवा का वर्तमान ढांचा भारत के विकास में सबसे  बड़ा अवरोध है। बिना चालक के चलने वाली मोटर गाड़ी इस युग में बैलगाड़ी के चलने की तरह भारतीय अफसरशाही एक कालभ्रम है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था सरकार से चला हुआ एक रुपया जनता तक पहुंचते-पहुंचते पंद्रह पैसा हो जाता है।  यह अफसरशाही के विभिन्न स्तरों का एक सर्वेक्षण था । आज डिजिटाइजेशन और आधार योजना के कारण, सरकार का दावा है कि, 20 लाख ऐसे लोग बाहर निकल गए जो जालसाजी से लाभ लेते थे। लेकिन जो अफसरशाही का जो  तंत्र वह सरकार के नारों के अनुरूप होना, चाहिए न कि केवल कागजों पर । मंत्रियों से अक्सर सुनने में आता है कि एक दिन में उन्होंने कितनी फाइलों को निपटा दिया। यह उनके कठोर परिश्रम का सबूत है, लेकिन यह सब बेकार हो जाता है जब लाइसेंस राज के दिमागी ढांचे में वह फाइलें जा अटक कर रह जाती हैं । मंत्रियों का काम नीति तय करना और रणनीति बनाना है । वे यह देखते हैं कि फाइलों का बोझ  कम हो और सरकार का नियंत्रण कम से कम हो। दुख की बात है की अफसरशाही की प्रवृत्ति अभी भी नियंत्रण मूलक है। इसका कामकाज प्रक्रिया गत है ना कि परिणाम उन्मुख। भारत में 51 मंत्री है जो दुनिया के किसी भी देश के शासन में सबसे ज्यादा है लेकिन 53 विभागों और 83 आयोगों में फाइलों का अंबार लगा है और निर्णय में गैरजरूरी देरी  होती है। इसके चलते रिश्वत की परंपरा को बढ़ावा मिलता है। भ्रष्टाचार और अनिर्णय का पक्षाघात स्थितियों को और गड़बड़ कर देता है  भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए बने कानून ने स्वार्थी राजनीतिज्ञों और अफसरों के नापाक गठबंधन को और घातक बना दिया है।
      इन समस्याओं का प्रशासन पर सीधा असर पड़ता है। यदि निर्णयों में गति आ जाए तो कामकाज तेज हो जाएगा और अर्थव्यवस्था में भी गति आ जाएगी। भारतीय शासन पर 2017 में विश्व बैंक के रिपोर्ट में भारतीय सिविल सेवा की  राजनीतिक दबाव, नीतियों को तैयार करने तथा उन्हें लागू करने में उनकी दक्षता का आकलन किया गया था और इस क्षेत्र में दुनिया में भारत का 45वां स्थान था।  पिछले दो दशकों के मुकाबले में यह 10 रैंक के नीचे आ गया था। इसी से पूरी कहानी समझी जा सकती है।
      इसका उत्तर स्पष्ट है कि इसमें व्यापक व्यापक सुधार लाना होगा। वह सुधार प्रशासन संस्थान से विशेषज्ञ प्रशिक्षित करने तक सभी क्षेत्रों  में लाना होगा। इस बार जून में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारत शीघ्र ही 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने वाला है। अफसरशाही में सुधार नहीं लाया गया तो यह  दिवास्वप्न बनकर रह जाएगा।
  लोकतंत्र में सामने जो दिखतें हैं वे हमारे राजनीतिज्ञ हैं। ऐसे में नाकामी के लिए राजनीतिज्ञों को दोष देना बहुत आसान है। क्योंकि , वे अपनी स्वार्थ लिप्सा के कारण हर हर काम का श्रेय खुद को देते हैं और इसके फलस्वरूप जब बाजी उल्टी पड़ जाती है तो किनारा कर लेते हैं या बातें बनाने लगते हैं। लेकिन असफलताओं के लिए सबसे ज्यादा दोषी अफसरशाही का ढांचा है।  सरकारों के प्रति मोह भंग में जितना योगदान अफसरशाही का है उतना और किसी का नहीं। रोजमर्रा की स्थितियों से जब सरकार नाकाम हो जाती तो आम आदमी गुस्से से भर जाता है और इस गुस्से में वह एक राजनीतिक चालबाज समूह छोड़कर दूसरे चालबाज समूह को वोट दे देता है । राजनीति की शास्त्रीय भाषा में हम इसे "सत्ता विरोधी रुझान" कहते हैं। लेकिन सच तो यह है कि शासन की नाकामियों के खिलाफ मतदान होता है। विभिन्न स्तरों पर हमारी सरकार भ्रष्टाचार और दु:प्रबंधन में आकंठ डूबी हुई है यह किसी से नहीं छिपा है और यही कारण है कि अच्छे सरकारी स्कूल ,अच्छे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और पीने के साफ पानी जैसे मूलभूत सुविधाएं भी जनता को उपलब्ध नहीं हो पाती। हमारे नेता लगातार एक दूसरे पर दोष देते रहते हैं । लेकिन अफसरशाही ने हमें सबसे ज्यादा निराश किया ब्रिटिश विरासत से प्राप्त आईसीएस ढांचा आज हमारे लिए संस्थान बन गया है। 50 के दशक में जवाहरलाल नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की कल्पना की थी और उनके आसपास के अफसरों ने उन्हें "कंट्रोल" की लगाम पकड़ा दी। हमारी उद्योगिक क्रांति निष्फल हो गई। सत्ता संभालने  बाद मोदी सरकार ने "कम से कम सरकार और अधिक से अधिक शासन" का जो नारा दिया था वह नाकाम हो गया । हमने आरंभ में उनकी बातों पर भरोसा किया। हमने यह सोचा गरीबों के लिए अच्छा करेंगे और अफसरशाही में सुधार लाएंगे। इसपर भरोसा कर  हमने बड़ी-बड़ी उम्मीदें पाल ली। लेकिन कुछ हुआ नहीं। जनता निराश हो गई उसकी उम्मीदें धराशाई हो गयी। सरकारी कर्मचारी आज भी पहले की तरह निरंकुश, भ्रष्ट और गैर जिम्मेदार हैं। वे आश्वस्त हैं कि काम करें या ना करें तरक्की तो होनी है। मजबूरी यह है की प्रशासनिक ढांचे के आकार को घटाना आसान नहीं है लेकिन सरकार अफसरशाही को जवाबदेह और नागरिकों के प्रति ज्यादा संवेदनशील तो बना ही सकती है।