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Tuesday, October 30, 2018

सी बी आई बनाम सीबीआई 

सी बी आई बनाम सीबीआई 

सी बी आई के अंदरूनी झगड़े की हांडी चौराहे पर फूट गयी है और पूरा देश इस तमाशे को देख रहा है। यहां हर नागरिक यह जानना चाह रहा है कि देश में कानून का राज और संस्थाएं कैसे चल रहीं हैं। सीबीआई के नंबर एक और नंबर दो की लड़ाई से एक बात और खड़ी होती है कि आखिर नंबर एक वाले साहब किस तरह के मामलों की जांच करते थे और नंबर दो वाले साहब अपना कैसा दखल चाहते थे । नंबर एक यानी निदेशक आलोक वर्मा और नंबर दो राकेश अस्थाना ने एक दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं। क्या यह भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों में पैसा खाने की अफसरशाही का धंधा चल रहा था या चुनाव के पहले कुछ शिकार पकड़ने का सियासी गोरखधंधा चल रहा था। चूंकि मोदी जी ने यह दिखाया था भ्रष्टाचार और कालाधन के खिलाफ देशव्यापी अभियान चल रहा है और अब दिख रही है तहखाने की हक़ीक़त। दूसरी बात है कि मोदी जी की सरकार की राजनीतिक पूंजी जिसे वह अपना सावधि जमा समझती थी उसका क्या होगा?  सरकार की पूरी राजनीतिक पूंजी इस घटना से खतरे में आ गयी है । जनता यह जानना चाहती है कि क्या इसी तरह राजनीतिक लक्ष्य हासिल किए जाते हैं?
        जनता का ध्यान इस झगड़े से हटाने के लिये  सरकार कई  सनसनीखेज कदम उठा रही है। सरकार कहीं यह तो नहीं बताना चाहती कि हमारी संस्थाओं के झगड़े पर मजा लेने वालों जरा हमारा पावर तो देखो। एजेंसियों ने देश भर में तहलका मचा दिया है। ई डी ने विगत गुरुवार को बंगलोर में एमनेस्टी इंटरनेशनल के दफ्तर पर छापा मारा। इसपर विदेशी मुद्रा प्रबंधन कानून के उल्लंघन का आरोप है। यही नहीं आयकर विभाग ने तमिल नाडु और आंध्रप्रदेश में खनन से जुड़ी लगभग 100 कंपनियों पर छापा मारा। इनपर आरोप है कि वे समुद्री किनारों से रेत के गैरकानूनी धंधा करती हैं और इससे प्राप्त धन का अन्य व्यापारों में उपयोग कर और कालाधन का उपार्जन करती हैं। ई डी ने काले धन को सदफेड बनाने के एक मामले में पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता पी चिदंबरम के विरुद्ध अभियोग पत्र दाखिल कर दिया है और दावा है कि इस मामले में उसके पास पूरा सबूत है। यही नहीं है पी ए बी से दो अरब डॉलर का घोटाला करने वाले नीरव मोदी की 255 करोड़ रुपयों सम्पति हांगकांग में कुर्क करने का दावा किया है। नीरव मोदी की अबतक 4744 करोड़ की संपत्ति कुर्क की जा चुकी है। ऐसा लग रहा है कि एजेंसियां दम लेने के मूड में नहीं हैं। 
     दूसरी तरफ सी  बी आई का झगड़ा और तीखा होता जा रहा है। निदेशक आलोक वर्मा के निवास के सामने खुबिया ब्यूरो के चार लोग पकड़े गए। उनपर आरोप है कि वे वर्मा की निगरानी कर रहे थे जकब्कि वर्मा को छुट्टी पर भेज दिया गया है। उनकी जगह नागेश्वर राव को कार्यकारी निदेशक नियुक्त किया गया है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का कहना है कि वर्मा राफेल सौदे की जानक्सच करने वाले थे इसलिए यह सब हड़बड़ी में किया गया। सी बे आई के प्रवक्ता ने इस तथ्य का खंडन किया है। इसे लेकर और भी कई थ्योरीज हैं लेकिन जो लोग पुलिस को समझते हैं उन्हें मालूम है कि सी बी आई के अफसर मूलतः पुलिस वाले होते हैं और सैद्धान्तिक तौर पर पुलिस को सियासत से दूर  रहना चाहिए पर हक़ीक़त है कि पुलिस वाले  व्यापक रूप में राजनीति से प्रभावित हैं। यही नहीं पुलिस भ्रष्टाचार के लिए बदनाम है। अधिकांश पुलिस वाले अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए  राजनीतिक आका को खुश रखने में लगे रहते हैं और जो ऐसा नहीं करते वे कई तरह के परोक्ष और प्रत्यक्ष दंड भुगतते हैं। चुनाव के पहले ऐसी गुटबाजियां  बहुत बढ़ जातीं हैं। जिस पार्टी के जीतने की सम्भावचना होती है उनके नेताओं को कोई नाखुश नहीं करना चाहता। वैसे सभी अफसर अपनी अपनी गोटी सेट करने में लगे रहते है। सबका अपना - अपना आकलन होता है। इसी में तू-तू मैं- मैं होने लगती है। इसमें किसी को भी भ्रष्टाचार के मामलों में सच खोजने की इच्छा नहीं होती। इसलिए सी बी आई में अभी जो कुछ हो रहा है वह स्पष्ट रूप से 2019 के चुनाव से जुड़ा है। यहां बाईबिल न्यू टेस्टामेंट की वह पंक्ति याद आती है - क्विड एस्ट वेरिटास यानी सच क्या है?

Monday, October 29, 2018

पहली बार ऐसा नहीं हुआ

पहली बार ऐसा नहीं हुआ  

23 अक्टूबर को  एक दिलचस्प ट्वीट आया कि  देश की  तथाकथित प्रमुख जांच एजेंसी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई),  ने अपने मुख्यालय में जांच  की और एक जांच अधिकारी को  रिश्वतखोरी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। सीबीआई की विशेष जांच दल (एसआईटी) के जांच अधिकारी, हैदराबाद स्थित मांस निर्यातक मोइन कुरेशी के खिलाफ "मनी लॉंडरिंग " आरोपों की जांच करने वाले सीबीआई के अधिकारियों ने जांच अधिकारी  देवेंद्र कुमार को गिरफ्तार कर लिया।
इस घटना ने एजेंसी के दो शीर्ष अधिकारियों - सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच एक उग्र रस्साकशी पर से पर्दा हटा  दिया। दोनों अफसरों  ने एक-दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार के  आरोप लगाये हैं। लेकिन सीबीआई में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि का  वह अपने शीर्ष अधिकारियों के खिलाफ  जांच की हो।
2017 में एजेंसी ने अपने पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के खिलाफ कोयला ब्लॉक आवंटन मामलों में पूछताछ, जांच और मुकदमा चलाने के अपने अधिकार का दुरुपयोग करने के आरोपों पर भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया था। 
2017 में ही सीबीआई ने अपने पूर्व निदेशक, एपी सिंह और उनके कथित बचपन के दोस्त मोइन कुरेशी के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया था। उनपर भी मोइन कुरेशी से रिश्वत लेने का आरोप था। महत्वपूर्ण जांच के दौरान  एजेंसी खुद के  रिकॉर्ड और परिसर की खोज के बिना  जांच कार्य कैसे पूरा कर  सकती है।
हालांकि, हर मामले में कम प्रगति हुई है। इस साल जनवरी में, सीबीआई के एसआईटी ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि सिन्हा के खिलाफ जांच में पर्याप्त प्रगति हुई है। सिन्हा ने  स्पष्ट रूप से कोयला घोटाले के मामलों में जांच को खत्म करने की कोशिश की थी। 
देश को यह नहीं मालूम हो सका  नहीं कि भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करने वालों ने आर्थिक लाभ के लिए अपने पदों  का दुरुपयोग  कैसे किया।
वर्तमान गड़बड़ इसीलिए न आश्चर्यजनक  है, ना ही चौंकाने वाला। यदि कुछ भी हो यह दिलचस्प तथ्य  है कि अपराध और भ्रष्टाचार के महत्वपूर्ण मामलों की जांच करने वाली  एजेंसी भ्रष्टाचार पर लगे कलंक  को अपने पर से  कैसे मिटाती है। देश यह जानना चाहता  है। अक्टूबर 2017 में, सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा ने केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) में  राकेश अस्थाना के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए एक गोपनीय पत्र भेजा था  और अनुरोध किया था कि उन्हें विशेष निदेशक पद पर पदोन्नत नहीं किया जाना चाहिए। स्टर्लिंग बायोटेक मामले में अस्थाना  पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया था । उनपर  आरोप था  कि कंपनी के दफ्तर में पाई गई एक डायरी के मुताबिक, अस्थाना को 3.88 करोड़ रुपये का रिश्वत मिला था । 
दो शीर्ष सीबीआई अधिकारियों के बीच के बीच जोर आजमाइश जारी है। अस्थाना ने वर्मा के  पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया। अस्थाना  पर आरोप लगाया गया है कि वर्मा लालू यादव के खिलाफ लंबित मामलों में   नरम हो गए थे और उन्होंने कथित तौर पर व्यवसायी सतीश साना के खिलाफ मामले में 2 करोड़ रुपये की रिश्वत ली थी। यह तमाशा सीबीआई कार्यालय से सीधे चलाया जा रहा है जो सार्वजनिक धन पर चल रहा है।
सीबीआई हमेशा मौजूदा सरकार  के तहत काम करने के लिए बदनाम है। सुप्रीम कोर्ट ने तो एक बार उसे पिंजरे का तोता कहा था। राजनीतिक खुंदक निकालने  के लिए प्रतिद्वंद्वियों की बोलती बंद करने   के लिए,  इसे एक औज़ार  के रूप में उपयोग किया जाता रहा  है। एजेंसी को देश की अदालतों द्वारा कई बार कमजोर और मंद कहा गया है। लेकिन यह एक अलग  विषय है। जिस बिंदु पर अभी अध्ययन की जरूरत है। वर्मा-अस्थाना गाथा पर से जिस तरह से पर्दा हट न चुका है, उससे यह स्पष्ट  है कि इसके ओवरहाल और इसके कामकाज में बाहरी हस्तक्षेप की आवश्यकता है।जबकि ज्यादातर सरकारी विभाग अपने अधिकारियों के खिलाफ आंतरिक स्तर पर प्रारंभिक जांच करते हैं, सीबीआई के साथ समस्या यह है कि उसने जनता से वाहवाही लेने के लिए  बहुत ही खराब ट्रैक रिकॉर्ड प्रस्तुत किया है।
एपी सिंह से रणजीत सिन्हा तक, राकेश अस्थाना से आलोक वर्मा तक, सभी अधिकारी जांच कर रहे मामलों में रिश्वत लेने का आरोप लगाते हैं। ऐसे वरिष्ठ अधिकारियों पर लगे  ये मामले सिर्फ भ्रष्टाचार के व्यक्तिगत आरोप नहीं हैं बल्कि उन्होंने संस्थान के भ्रष्टाचार का आकार लिया है। यदि आप जाहिर तौर पर भारत की शीर्ष एजेंसी से जांच को कम करने के लिए भुगतान कर सकते हैं, तो भ्रष्टाचार को खत्म करने में देश की संभावना क्या है?
सीबीआई को इस घटना को सीधे अपने मुख्यालय से सार्वजनिक रूप से प्रसारित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। 
केवल सुप्रीम कोर्ट-निगरानी की जांच ही लोगों में विश्वास पैदा करने में मदद कर सकती है और इसीसे सीबीआई को संस्था के रूप में बचाया जा सकता है।

Sunday, October 28, 2018

कांग्रेस के विचारों से भाजपा को मदद

कांग्रेस के विचारों से भाजपा को मदद

पिछले रविवार को नरेंद्र मोदी ने लाल किले पर तिरंगा फहराया। यह दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा  सिंगापुर में आजाद हिंद सरकार गठित करने के  दावे के  दिन का 75 वां वर्ष था। इस अवसर का राजनीतिक महत्व भी कम नहीं है। यही राष्ट्रीय पुलिस स्मरण दिवस भी है। लाल किले के समारोह के पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय पुलिस स्मारक राष्ट्र को समर्पित किया। इसी अवसर पर प्रधानमंत्री ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम पर एक पुरस्कार की घोषणा भी की। इस वर्ष यह  पुरस्कार राष्ट्रीय आपदा बल (एनडीआरएफ) को दिया गया है।
     दोनों आयोजन भावनाओं को उभारने वाले थे। लेकिन, इनके राजनीतिक महत्व से भी इनकार नहीं किया जा सकता। पुलिस स्मारक का उद्घाटन करते समय प्रधान मंत्री ने  एक प्रश्न पूछा कि  इस स्मारक को  बनाने में आजादी के बाद 70 वर्ष क्यों लगे? लाल किले से अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने तो और स्पष्ट कहा कि सुभाष चंद्र बोस, बीआर अंबेडकर और सरदार पटेल जैसे नेताओं के अवदान को प्रमुख राष्ट्रीय  बातचीत से मिटाया जा रहा है और केवल एक ही परिवार के बारे में बढ़ा चढ़ाकर बताया जा रहा है। इसके पहले भी उन्होंने घोषणा की कि स्वतंत्रता संग्राम  और राष्ट्र निर्माण  में  महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले  महान व्यक्तियों को  कांग्रेस  विस्मृत कर रही है। भाजपा उन महान व्यक्तियों का सम्मान करेगी। जैसी उम्मीद थी इस पर वैसी  ही प्रतिक्रिया हुई। देशभर में भाजपा समर्थकों ने  जमकर तालियां बजाई। दूसरी तरफ कांग्रेसी भाजपा और नरेंद्र मोदी की तीखी आलोचना करते देखे गए । इस ने आरोप लगाया कि भाजपा सुभाष बोस , सरदार पटेल और अंबेडकर जैसे राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ खिलवाड़ कर रही है।
      यह केवल संयोग नहीं है कि पटेल की मूर्ति, अंबेडकर स्मारक, पुलिस स्मारक और अब लाल किले से नेताजी का स्मरण सब भाजपा ने किया और एक ही आदमी के शासन काल में  किया। यही नहीं, इस पर रक्षात्मक रुख अपनाकर कांग्रेस ने अपना ही बुरा किया। पहली बात, कांग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम के इन योद्धाओं  को सार्वजनिक निगाहों से धूमिल नहीं किया होता तो भा ज पा को यह अवसर नहीं मिला होता ।दूसरी बात की राष्ट्रीय महापुरुषों पर किसी का एकाधिकार नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्वतंत्रता संग्रताम में भूमिका पर बहस व्यर्थ है।भारतीय होने के नाते इस विरासत पर उनका भी उतना ही अधिकार है जितना कांग्रेस का है। इस प्रयास को रोकने में कांग्रेस ने नौसिखुआ जैसा आचरण किया । मसलन उन्होंने एकता प्रतिमा का " मेड इन चाइना"  कह कर खिल्ली उड़ाई। ऐसा करके कांग्रेस ने इन महान व्यक्तियों को छोटा करने का प्रयास किया। इससे जनता में यह संदेश गया कि जो लोग नेहरू- गांधी परिवार से अलग हैं उनसे कांग्रेस विमुख है। अंततः अपनी सुविधानुसार व्यक्तित्वों को आदर देने का कांग्रेस दोपशी हो गयी । वैशे भी वर्तमान कांग्रेस 1885 में गठित कांग्रेस की स्वाभाविक वारिस नहीं है । यह कांग्रेस तो इंदिरा गांधी द्वारा तैयार एक अलग हुआ गुट  है। यह अलग बहस का विषय है कि मूल कांग्रेस समय के साथ विनष्ट हो गयी। लेकिन इससे नई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस वैध वारिस नहीं हो गयी। भा ज पा सुभाष बाबू से नही जुड़ सकती इसपर बड़े अर्थहीन तर्क दिए जा रहे हैं। मसलन यह कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने आई इन ए के अभियुक्तों के बचाओ के लिए भूला भाई देसाई को खड़ा किया था। लेकिन जब भाजपा ने उन्हें " कोंगी वकील" कहा कि तो कांग्रेस ने दलील दी कि वे किसी पार्टी के नहीं बल्कि पेशेवर वकील थे। यकीनन सुभाष बाबू कार्यालयी कार्य के लिए उर्दू का इस्तेमाल करते थे लेकिन एकीकृत भारत ही वे चाहते थे। उन्होंने कभी भारत के बटवारे की बात नहीं कही और ना मानी। इस पर कोई बहस महीन है कि सुभाष बाबू या उनकी आई इन ए के साथ आज़ादी के पहले कैसा बर्ताव हुआ बल्कि बात तो यहां है कि सुभाष बाबू या पटेल या अम्बेडकर के बारे  में इतिहास में जो जिक्र है वह 1947 के बाद का लिखा गया इतिहास है।  कांग्रेस अभी भी इस मामले को भा ज पा और मोदी के कोण से देख रही है। भारत का जनजीवन " परिवार" से बहुत आगे चला गया है और वह किसी एक परिवार से घेरा नहीं जा सकता है। मोदी और भाजपा की कामयाबी यह है कि उसने अपने बंद दरवाजों को खोल दिया है। इसके साथ ही सोशल मीडिया ने यह प्रमाणित कर दिया है कि बातें एकतरफा नहीं हो सकतीं। अब दिल्ली समाचारों को नियंत्रित नहीं कर सकती।
  समय आ गया है कि कांग्रेस हक़ीक़त को स्वीकार करे और खुद को भारत की जनता से बड़ा ना समझे।  

Friday, October 26, 2018

युद्ध घोष आरंभ हो चुका है

युद्ध घोष आरंभ हो चुका है


कैसी मशालें लेकर चले तीरगी में आप
जो रोशनी थी वह भी सलामत नहीं रही
चुनाव अभी कुछ दूर हैं। लेकिन चुनाव का युद्ध घोष आरंभ हो चुका है। कुछ दिनों के बाद हमारे सामने चुनावी दंगल होंगे। अलग-अलग रूप में राजनीतिक विश्लेषक हमें बताएंगे कि  कौन कहाँ  कितना भारी पड़ रहा है। यह स्थिति ठीक वैसे ही होगी जैसी महाभारत की थी । दृष्टिहीन कुरु श्रेष्ठ दिव्य दृष्टि प्राप्त संजय से पूछते हैं कि रण में किस पक्ष की स्थिति क्या है और संजय उन्हें बताते हैं । यही हालत जनता की होगी । राजनीतिक विश्लेषक जनता को बताएंगे किस-किस की क्या स्थिति है और वह किस पर कितना भारी पड़ेगा ।तरह-तरह आंकड़े पेश किए जाएंगे। लेकिन   इस पर ध्यान कौन देता है? यह वक़्त भी निकल जाएगा। जो चीज कायम रहेगी वह है अर्थव्यवस्था तथा कानून की व्यवस्था को कायम रखने सरकार की नाकामी।  निर्दोष नागरिक, यहां तक कि उच्च मध्यम वर्ग के भी लोग सुरक्षित नहीं हैं।  हाल में उत्तर प्रदेश की दबंग पुलिस के हाथों एप्पल के एक अधिकारी की हत्या इसका स्पष्ट उदाहरण है । इसमें जो सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात है वह है कि सरकार अपराधी को बचाने की कोशिश करती दिखती है। इस मामले में जो पहला एफ आई आर दर्ज हुआ था वह किसी अज्ञात व्यक्ति के नाम था जिसका कोई पता भी नहीं था। यही नहीं, दोषी पुलिस वाले को बहुत दिनों के बाद निलंबित किया गया और उस दोषी पुलिसकर्मी के साथी उसे बचाने में लगे रहे। यह प्रक्रिया लगभग जनता के जख्म पर नमक छिड़कने जैसी थी । हो सकता है दोषी पुलिसकर्मी को बर्खास्त कर दिया जाए लेकिन जनता के मन में एक बात तो घर कर गई  कि  मामला  शुरू में ही कमजोर कर दिया गया। एक तरफ तो हाल में "पुलिस कोमोमोरशन डे" के दिन एक नारा देखने को मिला कि "हम रोज अपराध से लड़ते हैं आज अपने आंसुओं से लड़ रहे हैं", दूसरी तरफ पुलिस दबंगई करती नजर आ रही है । यह केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं है । जिन लोगों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है या जिनके सिर पर राजनीतिज्ञों के हाथ हैं वह बिना खाकी में भी दबंगई करते दिखते हैं ,चाहे बात हरियाणा की  हो, राजस्थान की हो ,पश्चिम बंगाल की हो या केरल की हो लेकिन लेकिन हर राज्य में ऐसा होता दिख रहा है । जम्मू कश्मीर में गुमराह नौजवान आतंकवादी बनते जा रहे हैं। खूनी असहिष्णुता समाज के अधिकार प्राप्त वर्ग में व्याप्त होती जा रही है और ऑनर किलिंग से मॉब लिंचिंग तक की घटनाएं हमें अक्सर सुनने को मिलती है।   ऐसी घटनाएं एक तरह से छूत की बीमारी की तरह हैं एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक और इससे पूरे समाज तक फैलती जा रही हैं। जो लोग हम से दूसरी तरह से खाते पहनते हैं वह हमारे निशाने पर हैं।
पक गई है आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुजर होगी नहीं
       
       कांग्रेस पार्टी के विधि वेत्ता सर्वोच्च न्यायालय की मेधा पर उंगली उठाने में लगे हैं। खास करके तब जबकि सर्वोच्च न्यायालय का कोई फैसला उनके मनमाफिक नहीं आता है। वे इस बात की चिंता नहीं करते कि इसका क्या असर होगा । वे सोचते तक नहीं हैं कि चुनाव आयोग, महालेखा परीक्षक जैसी संस्थाओं की आलोचना का दूरगामी परिणाम क्या होगा? पार्टी अध्यक्ष अपनी बोलचाल की भाषा पर बेशक इतराते हों लेकिन  शानदार फिल्मी डायलॉग मूल बात से दूर रहते हैं । "युवराज  जोकर है" का जवाब बेशक "चौकीदार चोर है" से दिया जा सकता है ,लेकिन इससे समाज में जो लफ्फाजी फैल रही है उसका शमन कैसे होगा- इस पर कोई विचार नहीं कर रहा है। भा ज पा व  कांग्रेस में खास किस्म का अभिमान बढ़ता जा रहा है । कांग्रेस अपनी लगातार पराजय से सबक नहीं सीख पा रही है। मायावती और अखिलेश अपनी अपनी डफली बजाते नजर आ रहे हैं । कहीं कोई सौम्यता यहां अनुशासन नहीं दिखता। हमारे देश में चुनाव की स्थिति एक दिवसीय क्रिकेट की तरह हो गई है जिसका कोई अर्थ नहीं सिर्फ दर्शक मजा लेता है। किसी को आदर्श की चिंता नहीं है । केवल सभी देखते हैं कहां कौन खड़ा है और किस की छवि कितनी बड़ी है  ।  बिना यह जाने यह सब कठपुतली हैं जिसकी डोर ऐसे लोगों के हाथ में है जो अतीत के बंदी हैं । भविष्य की दृष्टि की बात तो भूल ही जाएं। जो अपने संगठन में सर्वोच्च माने जाते हैं वह वर्तमान के तक़ाज़ों से भी संबद्ध नहीं दिखते हैं।
आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है
आदमी की छाल चबाने लगे यह तो हद है
        जरा अर्थव्यवस्था की हालत देखिए हमारे वित्त मंत्री एक गलती को दूसरी से छिपाने की कोशिश में लगे हैं । किसी भी प्रश्न  का उनका जवाब है मुस्कुराहट और तीखे शब्द। शिकायत क्यों ? सब जानते हैं कि अर्थव्यवस्था या अर्थशास्त्र एक विज्ञान है और इसके नियम  बेहद  बोझिल हैं । एक दिन पेट्रोल की कीमत बढ़ती है दूसरे दिन पलक झपकते इसे एडजस्ट कर दिया जाता है। बैंकों में घाटा बढ़ता जा रहा है और जनता को तरह तरह के आंकड़े से भरमाया जाता है। जनता मोदी जी के कैबिनेट में नवरत्नों के बारे में सवाल उठाने लगी है । यह तो आगे चलकर पता चलेगा कि ताज में नवरत्न कम हैं। प्रधानमंत्री अपने कंधे पर भारी बोझ लेकर चल रहे हैं । जो लोग कांग्रेस का मखौल उड़ाते हैं वे मोदी जी के करिश्मे पर विश्वास करते हैं ।  सब लोग चुनाव का इंतजार करते नजर आ रहे हैं उसके पहले दिसंबर के मध्य में कुछ राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव के परिणाम आएंगे। उसे लेकर तरह तरह की गणना आरंभ हो जाएगी।  इस शोर के बीच हम महत्वपूर्ण मसलों को भूल जाएंगे । हमारी पीड़ा ऐसे ही कायम रहेगी चाहे जिसकी भी सरकार बने। 
जम्हूरियत वह तर्जे हुकूमत है
जहां बंदे गिने जाते हैं तौले नहीं जाते

Thursday, October 25, 2018

नौजवानों में बढ़ती नाउम्मीदी खतरे की घंटी

नौजवानों में बढ़ती नाउम्मीदी खतरे की घंटी

कहां तो तय था चरागाँ हर घर के लिए
यहां रोशनी मयस्सर नहीं है शहर भर के लिए
2014 में जब मोदी जी चुनाव प्रचार कर रहे थे उन्होंने देश के नौजवानों में एक उम्मीद जगाई कि सबको काम मिलेगा। लेकिन काम मिलना तो दूर नौजवानों में इतनी ज्यादा नाउम्मीदी भरती जा रही है उनमें से अधिकांश लोगों ने काम खोजना ही बंद कर दिया है। नौकरी खोजने आ ही नहीं रहे हैं। लोगों के काम खोजने के लिए आने की दर को  लेबर पार्टिसिपेशन रेट कहते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि नोटबंदी के बाद देश में लेबर पार्टिसिपेशन रेट बहुत गिर गई है और इसके सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं हो रही हैं। एक आंकड़े के मुताबिक इस महीने रेलवे में एक लाख 20 हजार नौकरियां निकली थीं  जिन के  लिए 2 करोड़ 37 लाख लोग लाइन में थे। सोच सकते हैं कि नौकरी का संकट कितना बड़ा है। यह तो इसका एक पक्ष हुआ।
      आंकड़े बताते हैं किस देश में इन दिनों लेबर पार्टिसिपेशन रेट 43 प्रतिशत है जबकि यह कम से कम 50 प्रतिशत के आसपास होना चाहिए। वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा 65% है। यानी, हमारे देश में यह 45% से भी कम है । इसके बाद होती है बेरोजगारी की बात । जो अभी लगभग 6.7% है। दोनों आंकड़ों की समीक्षा जरूरी है। हमारे यहां 43% लोग ही काम खोजने  निकलते हैं इनमें केवल 7% लोगों को भी काम मिल पाता है। नोटबंदी के पहले लेबर पार्टिसिपेशन रेट 47 48% था । यानी, नोटबंदी के बाद यह दर 5% घटी है जो बहुत बड़ी बात है। जरा गौर करें 45 करोड़ लोगों में से 5 प्रतिशत नौजवानों ने नौकरी ढूंढना बंद कर दिया। उनकी निराशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। इनमें जो लोग हटे हैं उनमें महिलाओं की संख्या ज्यादा है। महिलाओं में कुंठा की पहचान "मी टू आंदोलन" के रोजाना बढ़ने से भी होती है। ऐसा पहले भी हुआ है। चूंकि महिलाएं बहुत कम पढ़ पाती थीं इसलिए बाहर उन्हें  काम नहीं मिलता था और वह घर पर रहकर बच्चों की परवरिश कर उन्हें पढ़ाती  थी। अभी हाल में जो देखा जा रहा है कि पुरुष समुदाय चाहता है कि महिलाएं घर पर ही रहें और पुरुष बाहर काम करें । क्या विडंबना है कि घर के बाहर पकौड़े बेचने का काम भी रोजगार में शामिल कर लिया गया है । अपने खेत में काम करने वाला भी किसी रोजगार में लगा माना जा रहा है । लेकिन जो लोग नौकरी खोजते ही नहीं तो कैसे मान लिया जाए कि वे जॉब मार्केट में हैं। भारत दुनिया का सबसे जवान देश है इसलिए यहां सबसे ज्यादा नौजवान बेरोजगार भी हैं। स्टेट ऑफ वर्क इन इंडिया 2018 की रिपोर्ट का कहना है कि बेरोजगारों में 16% जवान हैं और  जिनके पास काम है वह बहुत कम कमाते हैं ।  82% मर्द और 92% औरतें 10 हजार रुपए प्रतिमाह पर गुजारा करते हैं । हैरत है कि इस देश में विकास बिना रोजगार बढ़ाए हो रहा है। नौजवानों के पास नौकरी नहीं है इसलिए वह घर में बैठे हैं यह गंभीर चेतावनी का विषय है।
      आईएलओ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में लगभग 12 करोड़ लोग बेरोजगार हैं और विगत 3 सालों में इसमें जबरदस्त इजाफा हुआ है। अगर आईएलओ की ना माने तब भी भारत सरकार के  श्रम मंत्रालय  रिपोर्ट के मुताबिक बेरोजगारी की दर पिछले 5 साल में सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई है । हर रोज  550 नौकरियां कम हुई है और स्वरोजगार के मौके भी घटे हैं। आईएलओ की रिपोर्ट में यह स्पष्ट हुआ है 2019 आते-आते देश के तीन चौथाई कर्मचारियों और पेशेवर लोगों की नौकरी पर खतरा मंडराने लगेगा। रिपोर्ट बताती है देश में 53.4 करोड लोग काम करने वाले हैं जिनमें 39.8 करोड़ लोगों को योग्यता के मुताबिक न काम मिलेगा ना नौकरी।
        यह कैसी हकीकत है जिनसे हमारे नेता और खुद को मुल्क का नियंता समझने वाले लोगों ने आंखें मूंद रखी है। निराशा का आलम यह है कि 21वीं सदी में एक लाख 54 हजार 751 नौजवान खुदकुशी कर चुके हैं । इस तरह से निराश होने का बड़ा खतरनाक परिणाम होता है । बेरोजगारी को कम किए बगैर विकास का दावा झूठा होता है या अन्याय पूर्ण ।  पढ़े लिखे बेरोजगार युवा आज स्थाई रोजगार की तलाश में हैं। अगर किसी को किसी निजी संस्थान में काम मिल भी गया असुरक्षा हमेशा बनी रहती है ।सरकारी उद्यमों को पीपीपी के  रूप में बदल देने से संदेह और बढ़ रहा है ।सरकार हल  क्या कर रही है 
कहीं वह अपनी जिम्मेदारी से कदम तो पीछे नहीं हटा रही है
       क्या सवाल यह है आखिर यह बेरोजगार नौजवान जाएं कहां क्या करें ।योजनाएं कागजों पर ही बनती हैं। नौकरियों पर पहले से ही रोक थी अब खाली पदों को भरने पर रोक के कारण बढ़ती बेरोजगारी की आग और धड़कने लगी सरकार देश के विकास की बात करती है अगर इन नौजवानों को काम नहीं मिला यह खाली बैठे लोग किसी दिन भी विस्फोटक का काम कर सकते हैं। नाउम्मीदी बहुत खतरनाक होती है और यह विकास के लिए तो बहुत ही घातक है।
ना हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
यह लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए

Wednesday, October 24, 2018

विपक्षी एकता दूर की कौड़ी

विपक्षी एकता दूर की कौड़ी

जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव का वक्त नजदीक आ रहा है वैसे-वैसे सियासी सरगर्मी बढ़ रही है। चारों तरफ अटकलों का बाजार गर्म है। कोई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोबारा चुने जाने के बारे में तरह-तरह के आकलन कर रहा है । कोई कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी गोलबंदी की बात कर रहा है। कोई कांग्रेस और मायावती से मिलने की संभावनाओं को प्रबल बता  रहा है। सब के पास अपने-अपने तर्क हैं और सब तर्क सही लग रहे हैं । लेकिन, हालात कुछ और ही बता रहे हैं।
      अब जैसे भाजपा विरोधी विचारधारा समीक्षकों का कहना है कि पिछला कुछ समय भाजपा के लिए अशुभ रहा । हाल में एक केंद्रीय मंत्री ,जो कुछ साल पहले पार्टी के अध्यक्ष भी रह चुके हैं , ने कहा कि पार्टी ने चुनाव जीतने के लिए झूठे वायदे किए थे। यही नहीं रफाल सौदे में अनिल अंबानी से सांठगांठ, आधार, धारा 370, तेल की ऊंची कीमतें ,गिरता रुपया, डूबता शेयर बाजार और एक मंत्री पर सेक्सुअल हरासमेंट के आरोप इत्यादि घटनाओं ने पार्टी की छवि को खराब कर दिया है। इससे इसकी चुनावी संभावनाएं बिगड़ रही हैं । सचमुच अचानक इतनी घटनाओं से सरकार की विश्वसनीयता को धक्का लगा है। विपक्ष तो मना ही रहा है कि जिस तरह  बोफोर्स से कांग्रेस की हालत खराब हो गई थी उसी तरह राफेल इसे ले डूबे। कहते हैं ,इस नई स्थिति से विपक्ष के हौसले, खासकर ,कांग्रेस के हौसले काफ़ी बुलंद हैं।
      लेकिन, कांग्रेस भी बहुत अच्छा नहीं कर रही है।। पहले यह कहा गया कि विपक्ष एकजुट होकर भाजपा को मजबूत टक्कर देगा। इसके लिए जरूरी था कि अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस विपक्ष से अलग अलग तरह की गोल बंदी करे । लेकिन गोलबंदी दूर की कौड़ी लग रही है ।क्योंकि कई दल अपनी-अपनी डफली बजा रहे हैं और गोल बंदी नहीं होती नजर आ रही है।
     उत्तर प्रदेश में उपचुनाव के नतीजों के बाद से महागठबंधन उम्मीद नजर आने लगी थी। कहा जाने लगा था कि  बसपा, सपा, रालोद, कांग्रेस और कुछ अन्य दल मिलकर भाजपा को टक्कर देंगे। इसकी पहली झलक कर्नाटक में दिखी जब मायावती के प्रयास से  जनता दल सेकुलर और कांग्रेस करीब आ गए। लेकिन अब मायावती कांग्रेस से अलग अपनी राह अपना रही हैं। छत्तीसगढ़ में उन्होंने अजीत जोगी से गठबंधन कर लिया और पूरी आशंका है कि छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में इससे कांग्रेस को नुकसान होगा। हरियाणा में मायावती ने चौटाला से हाथ मिला लिया और कहते हैं कि चौटाला मायावती को प्रधानमंत्री बनाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। मध्यप्रदेश में कांग्रेस- बसपा गठबंधन की बात थी। ऐसा नहीं हुआ और बसपा वहां अकेले चुनाव लड़ रही है । वही हाल यूपी में भी है । यहां सपा बसपा के मिलकर लड़ने की बात चल रही है। कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं दिख रही है। कर्नाटक में भी कुमार स्वामी सरकार से बसपा मंत्री इस्तीफे को भी मायावती के कांग्रेस से अलगाव की तरह देखा जा रहा है।
      पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद का व्यापक प्रभाव है और उसके नेता जयंत चौधरी का कहना है कि कांग्रेस विपक्ष को गोलबंद नहीं कर सकेगी। क्योंकि ,कांग्रेस दूसरे दलों की उम्मीदों के प्रति संवेदनशील नहीं है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी यह प्रचारित कर रही है कि कांग्रेस को  दिया जाने वाला वोट परोक्ष रूप से भाजपा का समर्थन है। दो- एक राज्यों को छोड़कर अधिकांश राज्यों में कांग्रेस के गठबंधन की स्थिति स्पष्ट नहीं दिख रही है।
        राजनीतिक विकल्प के लिए सबसे जरूरी है उसका कोई कार्यक्रम हो ,उसका कोई एजेंडा हो। लेकिन कांग्रेस के साथ जो भी सहयोगी दल आ सकते हैं उसे लेकर कोई एजेंडा नहीं दिख रहा है। कांग्रेस की उम्मीदें भी राफेल सौदे पर ही टिकी है। बिहार में जब नीतीश कुमार ने कांग्रेस का साथ छोड़ा तो उन्होंने भी यही कहा था कि पार्टी के बीच न संवाद है ना समन्वय। कोई तो अधिकृत व्यक्ति हो जिससे संवाद हो। संवाद का अभाव  कांग्रेस में शुरू से है । यहां तक कि नेहरू के जमाने में भी पार्टी के अंदरूनी संवाद में दिक्कतें थीं, आज भी हैं। कुछ समीक्षकों का कहना है कि अगर इसमें प्रियंका गांधी को शामिल किया जाए तो कुछ उम्मीद बढ़ेगी और कांग्रेस को एक गठबंधन बनाने में मदद मिलेगी। लेकिन अभी ऐसा कुछ दिख नहीं रहा है। जिससे जनता में उम्मीद हो कि मोदी के खिलाफ एक मजबूत गठबंधन सामने आ रहा है। अभी जो स्थितियां हैं उससे ऐसा लगता है कि देश में  राजनीतिक विकल्प का अभाव है और यथास्थिति बने रहने की उम्मीद है।

Tuesday, October 23, 2018

जलवायु नियंत्रण नहीं हुआ तो देश में हिंसा बढ़ेगी

जलवायु नियंत्रण नहीं हुआ तो देश में हिंसा बढ़ेगी

एक अभूतपूर्व घटना है यह। हॉलैंड की  एक अदालत ने इस महीने के दूसरे हफ्ते में देश की सरकार को आदेश दिया है जिन गैसों से तापमान बढ़ता है उनमें बड़े पैमाने पर कटौती करें और यह कटौती 2020 तक यानी अगले 2 साल में पूरी हो जानी चाहिए । यही नहीं 2015 में भी एक निचली अदालत ने इसी तरह का एक फैसला सुनाया था। अदालत ने यह भी कहा था कि, सरकार इस दिशा में जो काम कर रही है उससे ज्यादा काम करने की जरूरत है । यह दोनों मुकदमे वहां के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने किए थे और पर्यावरण को लेकर सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया था। ऐसे किसी मामले में सरकार का पराजित होना पहली घटना है । यही नहीं यूरोपीय संघ के अलग-अलग देशों के 10 परिवारों ने संघ को अदालत में घसीटा है। आरोप लगाया है कि संघ जलवायु परिवर्तन के रोकथाम के लिए समुचित प्रयास नहीं कर रहा है। याचिकाकर्ता कुछ ऐसे काम से जुड़े हैं जिनका मौसम और जलवायु से सीधा संबंध है। इनमें एक किसान है जिसकी जमीन बंजर हो गई है। एक मधुमक्खी पालक है। इसकी शिकायत है की मधुमक्खियां पहले की तरह शहद नहीं देती।
        अगले महीने के अंत में दुनिया भर के शासनाध्यक्ष जलवायु रक्षा के संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन के लिए पेरिस में मिलेंगे। इस तरह का पिछला शिखर सम्मेलन 2015 में हुआ था।  उसमें जो लक्ष्य तय किए गए थे उन्हें पूरा नहीं किया जा सका है । हालात इतने गंभीर हैं कि संयुक्त राष्ट्र के अंतर शासकीय पैनल के वैज्ञानिकों ने गत 8 अक्टूबर को नया आकलन प्रस्तुत किया है। जिसके अनुसार 21वीं सदी के अंत तक तापमान मैं 1.5 डिग्री से ज्यादा वृद्धि नहीं होनी चाहिए । जबकि बीसवीं सदी के आखिर तक औसत वैश्विक तापमान लगभग 1 डिग्री बढ़कर 15 डिग्री हो चुका है। इस आकलन के मुताबिक वर्तमान दौर में हर सदी में औसत वैश्विक तापमान 0. 17 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ रहा है। अगर यही औसत जारी रहा तो 21वीं सदी के अंत तक तापमान एक 1. 36 डिग्री बढ़ चुका रहेगा। 21वीं सदी खत्म होने में महज आठ दशक बाकी हैं और बीसवीं सदी के दौरान तापमान लगभग 1 डिग्री बढ़ चुका है। अब हमारे पास केवल 0.5 डिग्री सेल्सियस की गुंजाइश बची है । पैनल का आकलन है कि अगर इस स्थिति पर लगाम नहीं लगाई गई तो वैश्विक सदी के अंत तक 3 से 4 डिग्री तक बढ़ जाएगा, जिसके भयंकर परिणाम होंगे।
          स्टॉकहोम अंतरराष्ट्रीय शांति अनुसंधान संस्थान (सीपरी)  की एक रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन से भारत में नक्सलवाद तेजी से फैल सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में जलवायु परिवर्तन बेहद हिंसक परिणाम हो सकते हैं। ऐसे में भारत ,पाकिस्तान ,बांग्लादेश ,म्यांमार और अफगानिस्तान में अति हिंसक  ताकतें सिर उठा सकती हैं । रिपोर्ट में भारत के बारे में कहा गया है कि इन परिस्थितियों में नक्सलवाद  प्रभावित क्षेत्रों में हथियारबंद विद्रोह को बढ़ावा मिलेगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि संसाधनों में कमी के कारण सभी क्षेत्रों में विषम परिस्थितियां बन सकती हैं ।जलवायु परिवर्तन अगर इसी तरह होता रहा तो कुछ समय के बाद संसाधन सीमित हो जाएंगे।  उन पर वर्चस्व के लिए और उनके बंटवारे के लिए हिंसा आरंभ हो जाएगी।  ऐसे में विकासशील देशों में कई विद्रोही गुट अपने फायदे के लिए इसका उपयोग करेंगे। आशंका उन देशों में ज्यादा है जहां अधिकतर आबादी कृषि पर निर्भर है। विद्रोही गिरोह ऐसे समय में हिंसा का सहारा लेकर किसानों को उनके खेतों से बेदखल कर सकते हैं ताकि अपने लिए भोजन की व्यवस्था सुनिश्चित कर सकें। दूरदराज के गांवों में ऐसी आशंका ज्यादा है। ऐसी स्थिति में लड़ाकों को भर्ती करना भी सरल हो जाएगा।
        यही नहीं ग्रामीण क्षेत्रों में हालत खराब होने से लोग शहरों की और पलायन करेंगे  और वहां भी संसाधन का अभाव हो जाएगा। भीड़ बढ़ती जाएगी जिससे सामाजिक असमानता बढ़ेगी। गरीबों और जरूरतमंद लोगों का शोषण बढ़ेगा। इसके परिणाम स्वरूप राजनीतिक अस्थिरता घटेगी। लोगों में विद्रोहियों के प्रति समर्थन बढ़ेगा। हालात तेजी से बेकाबू हो जाएंगे।

Monday, October 22, 2018

आखिर यह जिद क्यों ?

आखिर यह जिद क्यों ?

पिछले तीन-चार महीनों से भाजपा अपने ही किए में फंसती जा रही है । एक तरफ आर एस एस प्रमुख मंदिर को लेकर बयान बाजी कर रहे हैं दूसरी तरफ उसके अपने नेता भी तरह-तरह की बातें कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है की 2019 के चुनाव में क्या होगा? बीजेपी नर्वस दिखाई पड़ रही है। 2014 में जो  आत्मविश्वास दिखता था वह अभी कम होता सा दिख रहा है। सितंबर से पार्टी की हालत अजीब होती जा रही है।  लगता है वह भीतर भीतर नर्वस हो गई है। शुरू में कुछ पुराने नेता विद्रोह पर उतरे थे उनका कोई राजनीतिक मतलब नहीं था। लेकिन अब घटनाएं नया रूप ले रही हैं। एक तरफ एम जे अकबर का इस्तीफा , दूसरी तरफ नितिन गडकरी के असाधारण बयान । उस बयान  में गडकरी ने यह कहा था कि "हम जानते थे सत्ता में नहीं आ सकते बड़े-बड़े वादे किए।" अब जब वादे नहीं पूरे हो पा रहे हैं और लोग उस की याद दिलाते हैं तो वे उसे हंसी में टाल देते हैं । कुछ दिन पहले 15 लाख रुपए वाले बयान को पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने जुमला कहा था। पिछले साल संघ प्रमुख ने कहा था कि "संघ कांग्रेस मुक्त भारत नहीं चाहता।" यह संघ की भाषा नहीं थी यह एक राजनीतिक जुमला था।  यहां तक कि खुद को मोदी का समर्थक बताने वाले सुब्रमण्यम स्वामी भी कई बार मोदी पर परोक्ष हमले करते नजर आ रहे है ।  ग्रासरूट स्तर के पार्टी कार्यकर्ता स्थानीय नेताओं से असंतुष्ट दिखाई पड़ रहे हैं। इस तरह की लिस्ट बहुत लंबी बन सकती है। इसमें विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल को भी शामिल किया जा सकता है।
      नर्वसनेस का आलम यह  है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत बहुत ही जोर-शोर से मंदिर का मुद्दा उठा रहे हैं। उनका कहना है कि राजनीति के चलते मंदिर का निर्माण नहीं हो रहा है।  सरकार को इसके लिए कानून बनाना चाहिए। अगर कोई आम कार्यकर्ता यह बात कहता तो शायद इतनी अहमियत नहीं होती लेकिन संघ प्रमुख चुनाव के पहले यह बात उठा रहे हैं! केंद्र में 2014 से भाजपा की सरकार है। 2018 का अंत होने वाला है और अब तक मंदिर की बात नहीं उठी। उस समय तो नारा चल रहा था "सबका साथ सबका विकास।" अचानक कोने में पड़े  राम मंदिर का मसला सामने खड़ा कर दिया गया। कारण क्या है? संघ प्रमुख कह रहे हैं, राम मंदिर बनाने के लिए कानून बनाया जाए। जरूर यह बात किसी रणनीति का हिस्सा होगी। किसी लक्ष्य की ओर संधान होगा।
     भक्तों को छोड़ दीजिए,  आम आदमी यह कह रहा है कि मोदी जी कुछ नहीं कर पाए। जितना कहा था वह पूरा नहीं हुआ। महंगाई बढ़ती जा रही है। रुपया कमजोर हो रहा है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। दलित सड़कों पर उतर आए हैं ।मुस्लिम खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं ।मझोले स्तर के व्यापारी हाय हाय कर रहे हैं । इससे स्पष्ट है कि मोदी सरकार अब काम और वायदों को लेकर चुनाव मैदान में नहीं उतर सकती । इसलिए वह भावनात्मक मसलों की तलाश में है। एक समय था जब लोग मोदी के खिलाफ एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं थे। बात-बात में झगड़े पर उतर आते थे।  अब हवा बदल रही है। जब शुरू में मोदी सरकार बनी थी तो हर बात में कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराती  थी।  अब जबकि 4 साल बीत गए तो जनता पूछ रही है आपने अब तक क्या किया? इसी कारण राम मंदिर का भावात्मक मुद्दा उठाया जा रहा है। क्योंकि मंदिर मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की जा रही है। उम्मीद है कि अदालत दिसंबर तक कोई न कोई फैसला दे दे। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने की रणनीति हो। भागवत मंदिर बनाने के लिए कानून बनाने की बात कर रहे हैं यह भारतीय संविधान की व्यवस्था का स्पष्ट उल्लंघन है।  जब मामला सुप्रीम कोर्ट में है तो सरकार कानून कैसे बना सकती है ? इसका साफ मतलब है कि संघ को कोर्ट पर भरोसा नहीं है। इसके पहले राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की थी और देश ने  लंबे समय तक सजा भुगती। फिर वही गलती! आखिर क्यों ? संघ प्रमुख की ज़िद है। राम मंदिर बनाने के बारे में उनका कहना है कि इसके बनने से देश में सद्भावना और एकात्मता का वातावरण बनेगा । लेकिन संघ प्रमुख का यह बयान इतना आक्रामक है कि यह चेतावनी सा दिखता  है । संघ तो उस समय भी इतना आक्रामक नहीं दिखता था जब बाबरी ढांचे को गिराया गया था । संघ प्रमुख इसे भारत की इच्छा ,भारत का प्रतीक और भारत का गौरव बता रहे हैं। देश का गौरव न मंदिर बनाने से जुड़ा है ना बाबरी विध्वंस से और न  लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना से। देश का गौरव इन के सम्मान से जुड़ा है। यहां एक अहम सवाल है कि अब फिर क्या वही होगा जो 26 साल पहले हुआ था । फिर चुनाव जीतने के लिए अगर यह होगा टनक्या देश इसे चुपचाप देखता रहेगा?
ये जब्र भी देखा है तारीख की निगाहों ने
लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई

Sunday, October 21, 2018

पुलिस सुधार ज़रूरी पर कैसे 

पुलिस सुधार ज़रूरी पर कैसे 

अभी कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश में एक निजी कंपनी के अधिकारी को पुलिस के एक अफसर ने सिर्फ इसलिए गोली मार दी क्यों उसने उसके इशारे पर गाड़ी नहीं रोकी थी। देश में कहीं न कहीं हर रोज ऐसी घटनाएं घटती हैं जिसमें पुलिस की  बर्बरता दिखाई पड़ती है।  जब  ऐसी घटना होती है तो पुलिस सुधार की बातचीत शुरू हो जाती है । अब से कोई 40 साल पहले पुलिस सुधार के लिए राष्ट्रीय पुलिस आयोग बना था। हम पुलिस सुधार की बातें करते हैं लेकिन हकीकत कुछ दूसरी है इस लिए सुधार हो नहीं पाता।
       1960 में भारत और अमरीका में कानून और व्यवस्था  की एक ही तरह की स्थिति पैदा हुई थी। सड़कों पर हिंसक घटनाएं बढ़ने लगी थीं। लेकिन, दोनों देशों ने उसे अलग अलग ढंग से निपटाना आरंभ किया। अपराध न्याय पद्धति से उम्मीद की जाती है कि उससे शांति और व्यवस्था कायम हो । लेकिन, यह तभी हो सकता है जब कानून की हिफाजत करने वालों की संख्या ज्यादा हो या फिर अधिकांश लोग खुद ब खुद  कानून का सम्मान करें।  यह पुलिस की जिम्मेदारी है कि इस लक्ष्य को प्राप्त करे। आधुनिक पुलिस व्यवस्था के जनक कहे जाने वाले रॉबर्ट पील के मुताबिक "पुलिस एक तरह से वर्दी धारी नागरिक है।" उनके अनुसार पुलिस को समाज से सहयोग कर कदम आगे बढ़ाना चाहिए और अपराध की रोकथाम पर ध्यान देना चाहिए।
      आज अपराधों की खबर से अखबार भरे रहते हैं । हर जगह अपराधों की चर्चा होती है। छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएं बढ़ रहीं हैं। लिंचिंग जैसे अपराध बढ़ रहे हैं। इससे पता चलता है कि हमारे समाज में कानून के प्रति बहुत  सम्मान कम है ।अपराधी खुल कर मनमानी कर रहे हैं और आम आदमी चाहता है पुलिस न केवल उनकी हिफाजत करे बल्कि न्याय भी जल्दी हो और कम खर्चीला हो।  इसके लिए अपराध न्याय प्रणाली में सुधार जरूरी है । 
लेकिन सुधार कैसे हो? यह बहुत बड़ा सवाल है। एक बार बातों ही बातों में पश्चिम बंगाल के सरकारी रेलवे पुलिस के महानिदेशक अधीर शर्मा से अपराध के "पेशेवर रोकथाम मॉडल" पर बातें होने लगी।  अमरीका के मॉडल का उदाहरण दिया गया । जिसमें में पूरी रोकथाम व्यवस्था लगातार गश्त, घटनास्थल पर जल्दी पहुंचना और तीव्र जांच पड़ताल पर निर्भर है। श्री शर्मा ने भारतीय स्थिति में इसे नाकामयाब बताते हुए कहा कि इससे आम आदमी की अपराध रोकथाम में भूमिका कम हो जाती है। अमरीकी मॉडल में मोटर  पर सवार पुलिस व्यवस्था आम आदमी से दूर हो जाती है । पुलिस आमतौर पर घटनास्थल पर लोगों से बातचीत करती है और समुदाय से अलग रहती है। श्री शर्मा का मानना है  कि भारत में अपराध रोकथाम के लिए पुलिस को समुदाय से संपर्क करना जरूरी है क्योंकि ,यहां न केवल पुलिस बल की संख्या कम है बल्कि संसाधन भी कम हैं।
        अमरीका में 1960 में जब अपराध और शहरी दंगे बढ़े तो इस पर काम करने वालों ने अपराध के पूरे मॉडल पर प्रश्न उठाया। एक अध्ययन में यह मालूम हुआ की अपराध रोकथाम की प्रक्रिया में गश्त के अनुपात में गिरफ्तारी की संख्या महज 20% है ।अधिकांश घटनाओं में गश्त पर गए पुलिसकर्मी झगड़े रोकते हैं ,आपात स्थिति में मदद करते हैं और व्यवस्था कायम करते हैं। अक्सर आम लोग पुलिस को कई काम के लिए बुलाते हैं। यह सारे काम कानून की किताबों में नहीं लिखे हैं। अधिकांश ऐसा होता है जब पुलिस ऑफिसर  आत्मनिर्णय  से काम करते हैं । खासकर घटनाओं से निपटने के वक्त । श्री अधीर शर्मा बंगाल में या देश में होमगार्ड्स की व्यवस्था पर बातें करते हुए बताया की यह एक तरह से अपराध रोकथाम का पेशेवर मॉडल है। यह समाज में समस्याओं को सुलझाने में पुलिस की मदद करता है। जहां होमगार्ड्स की तैनाती होती है एक तरह से वहां के आस पास के वातावरण से तालमेल स्थापित करने में पुलिस की सहायता करता है। जिससे अदालत के बाहर अपराध को सुलझाने में मदद मिलती है ।
      इधर कई वर्षों से अपराध के तरीके तथा टेक्नोलॉजी बदल गई है। पुलिस पर सबूत जुटाने की नई -नई जिम्मेदारियां आ गयीं हैं।  वह जिम्मेदारियां लगातार बढ़ती जा  रहीं हैं। एक तरफ  आतंकवाद  से जुड़ी घटनाएं हैं  तो दूसरी तरफ  साइबर क्राइम हैं। इनकी जटिलताओं ने पुलिस के काम को और बढ़ा दिया है । साथ ही समाज तरक्की कर गया है जिससे पुलिस से उम्मीदें और बढ़ गयीं हैं। ऐसे में पुलिस का बर्बर चेहरा समाज के अनुकूल नहीं है और ना देश के विकास के अनुकूल। अभी समय ऐसा आया है कि पुलिस को बदलने के लिए उसकी सोच और उसकी गतिविधियों को बदलना होगा और इसके लिए पुलिस सुधार आयोग जो  व्यवस्था होती रही है वह पुरानी पड़ गई है । अपराध हर काल में समाज में रहे हैं और उनकी रोकथाम की समय के अनुरूप व्यवस्था भी की गई है। अपराध चूंकि  मनोवैज्ञानिक वृत्ति है इसलिए इसके रोकथाम की समय सापेक्ष व्यवस्था होनी चाहिए । सामाजिक मनोविज्ञान समय से निरपेक्ष नहीं होता।
      

Wednesday, October 17, 2018

अर्थव्यवस्था नहीं जनाब....

अर्थव्यवस्था नहीं जनाब....

2019 के चुनाव आने वाले हैं और इस पर तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। ऐसा भी कहा जा रहा है इस  चुनाव का परिणाम इकॉनमिक  एजेंडा तय करेगा ।यह बहस इसलिए उठी है कि पिछले चुनाव में यानी 2014 में मोदी जी ने अच्छे दिन लाने का वादा किया था। उनकी पहचान गुजरात मॉडल से थी और देश ने भी माना विकास के लिए गुजरात का मॉडल अच्छा है। यह दोनों बड़े सकारात्मक पक्ष हैं। लेकिन दो और मसले हैं एक तो नोट बंदी और दूसरा जीएसटी।ये दोनों बड़े आर्थिक फैसले थे और सरकार के प्रति इस मामले में व्यापक रूप से नकारात्मक राय बनी। अब सवाल उठता है कि क्या आर्थिक मुद्दे या विकास संबंधी मुद्दे चुनाव की संभावनाओं पर असर डालते हैं?
यहां एक सवाल है कि लोकतंत्र में किसी सरकार के आर्थिक कामकाज और दोबारा चुने जाने की संभावनाओं में क्या संबंध है? यहां दो विपरीत विचार हैं। एक विचार के मुताबिक विकास में ह्रास के चलते मोदी सरकार के ऊपर चुनाव में मुश्किलें आएंगी। क्योंकि सरकार के पहले 4 सालों में सकल घरेलू उत्पाद या कहें जीडीपी का औसत 7. 35% था जोकि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के कार्यकाल 2009 से 14 के बीच के कार्यकाल में  जीडीपी 7. 39% था। इसके बावजूद उस सरकार ने आर्थिक सुधार का  कदम उठाया।  जबकि  मोदी जी के कार्यकाल में उस सरकार से बेहतर विकास नहीं हुआ और उन्होंने धीरे धीरे पांच बरस तक विभिन्न आर्थिक कदम उठाए। इस उम्मीद में अगली बार फिर चुनकर आएंगे । पहले कभी ऐसा हुआ करता था, लेकिन अब नहीं।
      इससे ऐसा लगता है कि यदि नरेंद्र मोदी अपने कार्यकाल के आरंभिक दिनों में सुधार करते तो विकास होता और अगले चुनाव में लाभ मिलता। लेकिन अटल बिहारी वाजपेई के कार्यकाल में कई सुधार हुए फिर भी वे पराजित हो गए। दूसरी तरफ ,नरसिंह राव सरकार में कोई सुधार नहीं हुआ लेकिन कांग्रेस 1996 में चुनाव जीत गई। इसका मतलब है कि सुधार से सत्तारूढ़ दल को चुनावी लाभ मिलता है इस सिद्धांत पर सवाल उठता है । कम से कम विगत 30 वर्षों की मिसाल सामने रखते हुए ऐसा ही सोचा जा सकता है।
      एक और विचार है जो इसके ठीक विपरीत है। उसके मुताबिक चुनावी जीत- हार का आर्थिक कामकाज कोई संबंध नहीं होता। पिछले 25 वर्षों का उदाहरण है कि देश में आर्थिक विकास और राजनीतिक लाभ में कोई संबंध नहीं रहा  है। जबकि  आर्थिक विकास का चुनावी संभावना और से कोई संबंध नहीं है यह दलील देना बेमानी है । लेकिन भारतीय मामले में ऐसा नहीं सोचा जा सकता । क्योंकि इसमें अलग अलग कई गुणक काम करते हैं। 1989 के चुनाव में आर्थिक विकास की दर 10.2% थी पर पार्टी बुरी तरह से हार गई। क्योंकि उस समय राजीव गांधी पर बोफोर्स दलाली मामले गंभीर आरोप थे और यही उनकी हार का कारण बना ।1991 में जब देश विदेशी मुद्रा मामले में लगभग दिवालिया हो चुका था तब भी कांग्रेस सत्ता में आ गई। क्योंकि, उस समय राजीव गांधी की हत्या हुई थी । यहां बीपी सिंह की सरकार के कामकाज पर बहस नहीं थी क्योंकि राजीव गांधी की हत्या का भावना प्रधान मसला लोगों के सामने था । संयुक्त मोर्चे के अंतर काल में राजनीतिक कन्फ्यूजन कायम था और 13 महीने में बाजपेई सरकार गिर गई। लेकिन 1999 में  बाजपेई जी के सरकार बनी तो यह कारगिल विजय का नतीजा था, ना कि विकास का चमत्कार।
   2003 - 04 में फिर आर्थिक विकास  शुरू हुआ और जीडीपी की दर 8% तक पहुंच गई। लेकिन एनडीए हार गई। यूपीए के पहले दौर के  कार्यकाल में विकास ने उसे दोबारा जिताया और कार्यकाल के दूसरे दौर में भी आर्थिक विकास चलता रहा लेकिन भ्रष्टाचार के कारण सरकार चुनाव हार गई। इससे एक बार फिर प्रमाणित होता है कि केवल आर्थिक विकास से चुनाव नहीं जीता जा सकता। यह सारे उदाहरण बताते हैं विकास और कामकाज करना अच्छी बात है । लेकिन हर बार इनका लाभ नहीं मिलता। 2019 में भारतीय जनता पार्टी की चुनावी संभावनाएं केवल विकास के आंकड़ों पर नहीं निर्भर करती ,बल्कि जब चुनाव होने वाले होंगे तो वह मतदाताओं के सामने क्या बात रखती है इस पर सब कुछ निर्भर है।

Tuesday, October 16, 2018

जिस देश का बचपन भूखा है

जिस देश का बचपन भूखा है

एक सच हमारे देश में सर्वमान्य  है, कम से कम देश का एक हिस्सा तो मानता ही है कि जो लोग इस सरकार की आलोचना करते हैं वह राष्ट्र विरोधी हैं और उन्हें पाकिस्तान चला जाना चाहिए। लेकिन, तब क्या हो जब आलोचनाएं किसी ऐसी संस्था की ओर से आती हों जिसे दुनिया मानती है, और आलोचनाएं भी हकीकत तथा आंकड़ों पर आधारित हों और सीधे सरकार पर आरोप हो कि सरकार  अपने बुनियादी कर्तव्य का पालन नहीं कर पा रही है। वह देश के बच्चे भरपेट खाना ,इलाज और शिक्षा नहीं मुहैया करा पा रही है। 
        हमारी सरकार इस बारे में दो बातें कहती है। पहली कि जिस संस्थान ने यह आरोप लगाया है ,उसकी गणना का तरीका गलत है या फिर वह किसी एजेंडे के तहत ऐसा कर रहा है । पिछले हफ्ते सरकार ने विश्व बैंक के मानव संसाधन सूची  (एच सी आई) रिपोर्ट को खारिज कर दिया। इस रिपोर्ट में भारत की रैंक 157 देशों में 115 वीं है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में पैदा हुए बच्चे अपनी कुल क्षमता का 44% ही उत्पादित कर सकते हैं। क्योंकि, जैसे-जैसे वे बड़े होते हैं उनकी शिक्षा और उनके स्वास्थ्य में गिरावट आती जाती है। यह भारत की अब तक सरकारों की बहुत बड़ी असफलता है। इस देश का भविष्य मानव संसाधन के मामले में धीरे धीरे अंधकारमय होता जा रहा है। एक बात साफ है  कि हमारे बच्चों के साथ बहुत बड़ा अन्याय हो रहा है। यह बच्चे केवल इसलिए अपनी पूरी क्षमता नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि वह इस देश की दोषपूर्ण व्यवस्था के शिकार हो रहे हैं।
      सरकार को चाहिए  रिपोर्ट के आधार पर इस बात की जांच करें कि हमारे देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा और पोषण तंत्र में कहां गड़बड़ी है और उसे सुधार कर प्रभावशाली बनाने का प्रयास करना चाहिए। उल्टे हमारी सरकार ने इसे नजरअंदाज करने का निर्णय कर लिया। कारण है कि सरकार में व्यापक प्रणालीगत कमजोरियां है और कई आंकड़े उपलब्ध नहीं है। कोई भी सर्वे ऐसा नहीं होता जो दोषपूर्ण ना हो सरकार का यह कहना सही हो सकता है  कि विश्व बैंक का निष्कर्ष प्राप्त करने का तरीका दोषपूर्ण है। लेकिन विश्व बैंक की रिपोर्ट ही तो केवल नहीं है। पिछले हफ्ते ही वैश्विक क्षुधा सूची और और  असमानता घटाने के प्रति प्रतिबद्धता सूची भी जारी हुई थी। क्षुधा सूची में 119 देशों में भारत का स्थान 103 था और गैर बराबरी सूची में 157 देशों में भारत का स्थान 147 था। यह सारे सर्वेक्षण अलग अलग संस्थानों द्वारा किए गए थे।  विश्व बैंक ने  एच सी आई रिपोर्ट  जारी की थी जबकि क्षुधा सूची एक अन्य संस्था वेल्थ हंगर हाईलाइफ़ ने जारी की थी और और समानता सूची ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने तैयार की थी। क्या इन सभी संस्थाओं ने भारत को बदनाम करने का एजेंडा बना लिया है। या, सभी संस्थाओं की गणनाओं का तरीका गलत है, जैसा कि सरकार ने एचसीआई की रिपोर्ट को गलत ठहराने के लिए कहा है। यही सरकार उस समय बहुत खुश हुई थी जब विश्व बैंक ने कहा था कि भारत व्यापार करने की सुविधाओं की स्थिति बहुत सुधरी है। भारत का स्थान 130 से 100 हो गया है। विडंबना यह है जिस रिपोर्ट पर सरकार अपना सीना ठोक रही है वह रिपोर्ट सरकार कि इस बात का समर्थन करती है की इसे तैयार करने का तरीका गलत है । क्योंकि विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री पॉल रोमर ने कहा था कि रिपोर्ट में चिली की स्थिति  जान बूझकर गड़बड़ कर दी गई है और इस कथन के बाद पॉल रोमर को इस्तीफा देना पड़ गया था। क्या सभी संस्थाएं जो भारत सरकार की आलोचना करती हैं वह इसकी दुश्मन है? लांसेट ने 2015 में मोदी जी के हेल्थ केयर रिकॉर्ड आलोचना की थी तो उसे बहुत भला बुरा कहा गया था और जब 2018 में उसने उसका उल्टा बताया तो उसकी वाहवाही हो गई। पिछले हफ्ते अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने जब कहा कि इस साल का 7.3 प्रतिशत का विकास दर अगले साल बढ़कर 7.4% हो जाएगा तो सरकार खुशी से उछल पड़ी। अब जब तीन संस्थाएं सरकार के विरोध में रिपोर्ट देती हैं तो गलत हो गई । उन रिपोर्टों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है लेकिन उसका लाभ कमजोर और वंचित लोगों तक नहीं पहुंच रहा है।
        यह कोई मसला नहीं है कि यह सर्वे एकदम सही है या नहीं।सरकार ने कई गलत कदम उठाए जैसे बच्चों को दोपहर के भोजन में  कई पोषण पदार्थों को बंद कर दिया गया। आधार में गड़बड़ी के कारण खाद्य सुरक्षा नियम में गड़बड़ी हो गई । वैसे कोई भी सही ढंग से सोचने वाला व्यक्ति मोदी जी को इसके लिए अकेले दोषी नहीं बता सकता । दशकों से यही स्थिति चली आ रही है और पिछली सरकारें भी इसके लिए दोषी हैं । लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह समस्याएं हमारे देश में कायम हैं। सरकार बेवजह विश्व बैंक की रिपोर्ट को खारिज कर रही है। जब रिपोर्ट कहती है कि देश के बच्चे अपनी क्षमता का 44% ही उत्पादन कर सकते हैं तो सोचने वाली बात यह है कि हमारे बच्चे रात में भूखा सो जा रहे हैं और अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा के कारण मर रहे हैं। यह बुरा मानने वाली बात नहीं है।
         हमारे पास अपने आंकड़े भी हैं। वह भी कोई अच्छी बात नहीं कह रहे हैं। मसलन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 2015- 16 के मुताबिक भारत के 5 साल से कम उम्र के 8.4% बच्चे अविकसित हैं, 21% बच्चे अपनी ऊंचाई के अनुपात में कम वजन के हैं और 35.7% बच्चों का वजन कम है। इसके पहले 2005 -06 में भी यह सर्वे किया गया था। उस समय लंबाई के अनुपात कम वजन वाले बच्चों का प्रतिशत 19.8 था जो अब बढ़कर 21% हो गया है। सरकार समस्याओं को स्वीकार करने और उसे दूर करने प्रतिबद्धता  जाहिर करने की बजाय समस्याओं से आंख मूंद रही है । भूख और इलाज के बगैर मरने वाले हमारे बच्चों को अच्छा जीवन जरूरी है बड़े बड़े वादे नहीं।

Monday, October 15, 2018

गुजरात से बिहारियों का पलायन

गुजरात से बिहारियों का पलायन 

गुजरात में प्रवासी बिहारियों पर लगातार हमले हो रहे हैं और वे गुजरात छोड़ कर भागने पर मजबूर हैं। यह हमले उत्तर भारतीयों पर महाराष्ट्र तथा कई  अन्य राज्यों में हमलों की याद दिलाते हैं । मौजूदा मामले में बिहारी अपनी जीविका के लिए गुजरात जाते हैं यानी वे जीविका उपार्जन के साथ - साथ गुजरात के आर्थिक विकास में भी योगदान करते हैं। कहते हैं कि एक बच्ची से बलात्कार की घटना ने यह स्थिति पैदा की।  उसके बाद बिहारियों में पर हमले होने लगे। बेशक बलात्कार की घटना एक घृणित अपराध है और अपराधी को जितनी जल्दी और जितनी कठोर सजा हो सके  दी जानी चाहिए। इस बात से किसी को इनकार नहीं है । लेकिन ,यह भी सच है बिहार के सभी  प्रवासी मजदूर अपराधी नहीं होते। वे सीधे-साधे लोग होते हैं और पेट की भूख से मजबूर हो या बेहतर जीवन की उम्मीद में अपना घर बार छोड़कर दूसरी जगह जाते हैं।
      यहां मुश्किल यह है कि मामले को राजनीतिक स्वरूप दे दिया जाता है और इसके बाद यह बहुत तेजी से फैलता है। आजकल सोशल मीडिया के प्रसार के कारण ऐसे मामले पलक झपकते ही विस्फोटक बन जाते हैं और चारों तरफ प्रतिक्रियाएं होने लगती हैं। गुजरात के मामले में पुलिस तथा प्रशासन बहुत तेजी से हरकत में आए और गड़बड़ी पैदा करने वाले जो असली लोग थे उनके खिलाफ कार्रवाई भी हुई। 340 लोग गिरफ्तार किए गए।  किसी भी अप्रिय घटना को रोकने के लिए जगह - जगह पुलिस बलों की तैनाती हुई।
       यहां और कई जगह  समस्या तो दो ऐसी संस्कृतियों की है जो एक दूसरे के साथ मिलकर सहअस्तित्व  की भावना से जीने का प्रयास कर रही हैं। कई स्थानों में यह बड़े आराम से होता रहा है। जैसे बंगाल में बिहारी मजदूर वहां की श्रम शक्ति का आधार हैं। वहां की संस्कृति और सभ्यता में घुलमिल गए हैं। लेकिन, कई जगह ऐसा होने में समय लगता है और इसका कोई सहज समाधान भी नहीं है।
        एक तरफ तो कई ऐसे राज्य हैं जहां बेरोजगारी बहुत ज्यादा है और इसके चलते वहां के बाशिंदे दूसरे राज्यों में कामकाज की तलाश में जाते हैं। दूसरी तरफ राज्य सरकारों को स्थानीय जनता की मांग पर भी जरूर विचार करना चाहिए आखिर वह भी तो मतदाता हैं और सरकार बनाने की प्रक्रिया के तहत वोट भी डालते हैं । गुजरात की घटना ने  सरकारी हलके में बहुत गंभीर बहस को जन्म दे दिया है।  कैसे 80% आबादी को रोजगार दिया जाए? इस स्थिति का एक पक्ष और भी है वह कि, प्रवासी मजदूर सस्ते  होते हैं और स्थानीय मजदूरों के मुकाबले आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश में 2011 से 2016 के बीच  हर वर्ष 90 लाख लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में है यानी लगभग 4.50 करोड़ लोग काम की तलाश में  एक राज्य से दूसरे राज्य में गये हैं। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि देश में एक राज्य से दूसरे राज्य या राज्य के भीतर ही एक जगह से दूसरी जगह 2011 में लगभग 13.9 करोड़ लोगों ने प्रवास किया। यह बड़ी संख्या यह भी बताती है कि देश के हर भाग में विकास की गति समान नहीं है ।इन प्रवासी लोगों का एक बहुत बड़ा हिस्सा बहुत गरीब लोगों का या मौसमी मजदूरों का होता है। ये मजदूर  असंगठित क्षेत्र में  या निर्माण क्षेत्र में  बहुत ही जोखिम भरा काम बहुत कम मजदूरी पर  करते हैं। इन मजदूरों को कोई भी कानूनी सुरक्षा उपलब्ध नहीं है। शहर के योजनाकार अपनी योजना बनाते समय इन मजदूरों के बारे में सोचते तक नहीं हैं।
  गुजरात में सत्तारूढ़ दल ने कांग्रेस के नेता अल्पेश ठाकोर के संगठन को वर्तमान हमले के लिए दोषी बताया है। कांग्रेस ने इससे इनकार किया है। लेकिन, पार्टी  से छोटी सी गलती हो गई। पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई ने इन हमलों के विरोध में राज्य में आंदोलन की धमकी दी है।
           ठाकोर ने खुद इस घटना को निपटाने की कोशिश शुरू कर दी है । लेकिन , आग तो लग चुकी है । उद्योगों में उत्पादन घट रहे हैं और दिवाली सिर पर है।  मामला जल्दी सुलझने का नाम नहीं ले रहा है। प्रवासी मजदूर महाराष्ट्र और गुजरात जैसे औद्योगिक राज्यों के विकास के महत्वपूर्ण अंग हैं। यही नहीं, पंजाब की कृषि के लिए प्रवासी मजदूर ही काम आते हैं। दिल्ली में ढांचा विकास कार्य में प्रवासी मजदूर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अगर इन मजदूरों और स्थानीय मजदूरों के बुनियादी हितों की सुरक्षा के लिए  कानून बने तो विकास का फल सभी पा सकते हैं।

Sunday, October 14, 2018

चुनाव और राजनीतिक ध्रुवीकरण 

चुनाव और राजनीतिक ध्रुवीकरण

विरोधी  दलों को प्रचलित बोलों के मुकाबले के लिये आपस में तालमेल करना जरूरी है। तीन राज्यों में चुनाव की घोषणा हो चुकी है और  जैस- जैसे मतदान घड़ी निकट आ रही है राजनीतिक बोल का स्तर गिरता जा रहा है। अभी कुछ दिन पहले मध्यफ प्रदेश में एक चुनाव सभा को संबोधित करते हुये भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने घुसपैठियों को घुन कहा था।  इसके पहले उनहोंने राजस्थान में कहा था कि लिंचिंग की घटनाओं  के बावजूद भाजपा हर चुनाव जीतेगी। पिछले महीने भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में उनहोंने कहा था कि 2019 में भाजपा ही सत्ता में आयेगी और वह अगले 50 साल तक सत्ता में रहेगी। पार्टी कने कामकाज के खराब रेकार्ड के बावजूद इस तरह के आत्मविश्वास के कारण क्या हो सकते हैं? इस तरह के आत्मविश्वास के पैदा होने का मुख्य कारण वह भरोसा है कि धुवीकरण की राजनीति का लाभ मिलेगा ही। 2014 में जब नरेंद्र मोदी ने खुद को विकास पुरूष के तौर पर देश के सामने पेश किया था तो भ्रष्टाचार तथा विकास मुख्य मसला था। लेकिन विकास के नाम पर जिन गैर हिंदुत्व के समर्थकों का वोट उन्हें मिला था उनका मोहभंग होने के बाद विकास और भ्रष्टाचार के खात्मे वाले दोनों मुद्दों का प्रभाव खत्म हो गया। अब लगता है कि भाजपा हिंदुत्व के नाम पर अपनी नयी रणनीति तैयार कर रही है। वहव विगत कुछ महीनों से बड़े- बड़े साम्प्रदायिक बोल बोल रही है। ये बोल निचले स्तर के पार्टी कार्यकर्ताओं ने नहीं आरंभ किये हैं बल्कि ये ऊपर से ही नीचे आ रहे हैं। कुछ माह पहले सवाई माधोपुर गंगापुर में एक चुनाव सभा में असम के नागरिकता रजिस्टर का संदर्भ उठाते हुये पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि "करोड़ों घुसपैठिये घुन के भांति देश में घुस आये हैं और उन्हें चुन- चुन कर निकाल दिया जाना चाहिये।" उन्होंने  कई चुनाव सभाओं कहा कि " भाजपा सरकार एक- एक घुसपैठिये को चुन- चुन कर मतदाता सूची में से हटाने का काम करेगी।" यह चुन- चुनकरल निकाले जाने की धमकनी उस समय बिल्कुल साफ हो जाती है जब असम के नागरिकता रजिस्टर पर प्रस्तावित नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2016 के आलोक में विचार करें। इस विधेयक के मुताबिक अफगानिस्तान , पाकिस्तान और बंगलादेश के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, पारसियों तथा इसाइयों के लिये भारत में जगह है पर मुसलमानों के लिये नहीं। अगर यह विधेयक पारित हो जाता है तो "कानून के सामने सब बराबर हैं" - यह धारा समाप्त बेमानी हो जायेगी। इसके माध्यम से सरकार यह भारतीयें में यह भाव भरना चाहती है कि जो उनका अधिकार है उसे बाहर के लोग छीन रहे हैं। गत 11 अगस्त कोलकाता में ही एक जनसभा में अमित शाह ने कहा था कि " क्या बंगलादेशी घुसपैठिये देश के लिये खतरा हैं या नहीं।" 

  इस तरह की तीखी टिप्पणियां  पार्टी के अन्य नेता भी कर रहे हैं। वे बंगलादेशियों, 2016 के सर्जिकल हमले जैसे मसले को मुख्य मुद्दा बना रहे हैं। इससे 2019 के लिये भाजपा की रणनीति की झलक साफ मिलती है। भाजपा इस तरह की जुझारू रयणनीति इस लिये अपना रही है कि उसे मालूम है कि 2014 वाले हालात अब नहीं रहे। इस रणनीतिम के मुकाबले के राजनीति ध्रुवीकरण ही सबसे प्रभावशाली तरीका होगा। आजादी के बाद से भारतीय राजनीति ने राष्ट्रीयता तथा अल्पसंख्यक बहुसंख्यक संबंध  के बारे में सहमति की नीति अपनायी है। लेकिन अब वह सहमति बंग हो रही है और बाजपा इसे भंग करने पर आामादा है। अतीत में भी धर्म राजनीति से अलग नहीं था क्योंकि यह राजनीतिक सोच का हिस्सा है अब यह ज्यादा व्यापक होता जा रहा है। इसका मुख्यकारण है कि भाजपा सरकार बहुसंख्यकवाद की आग को  हवा दे रही है। मॉब लिंचिंग की घटनाओं के बड़ने का मुख्य कारण यही है। खतरा तो इस बात है कि केवल मुस्लिम ही निशाने पर नहीं हैं बल्कि हाशिये पर खड़े अनय समुदाय भी इस सोच के शिकार हो रहे हैं। सरकार एक ऐसी सोच तैयार कर रही है कि अगर कोई उसके खिलाफ है तो राष्ट्रविरोधी और हिंदू विरोधी है।इससे राजनीतिक अनेकतावाद पर दबाव आयेगा और एकदलीय व्यवस्था और एक नेता केंद्रित व्यवस्था के पथ प्रशस्त होंगे। 

   ऐसी स्थिति में राजनीतिक दलों का, खास कर कांग्रेस का, कर्त्तव्य है कि वे राजनीतिक तालमेल का बंदोबस्त करें और उसे मजबूत बनायें ताकि संविधान के बुनियादी ढांचे की रक्षा हो सके।     

Friday, October 12, 2018

इसबार 2014 वाली बात नहीं है

इसबार 2014 वाली बात नहीं है


अगले लोकसभा चुनाव में राम मंदिर को मुख्य मसला नहीं बनाये जाने के कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है कि 1991 में जब रामजन्म भूमि आंदोलन चल रहा था तो देश के बहुत से नौजवान वोटर पैदा ही नहीं हुए थे अथवा होश नहीं संभाल पाये थे। यह भी कहा जा सकता है कि वे राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं रखते तब भी उनके वोट की कीमत है। यह भी कह सकते हैं कि वोटरों का यह समूह बहुत उदारवादी है पर रोजगार को लेकर बेहद चिंतित है। जरूरी नहीं है कि यह वोटर समूह सत्ताधारी दल को वोट देगा। लेकिन इनके वोट महत्वपूर्ण हैं और गुमराह होने वाले हैं। भारत में 20 वर्ष से 34 वर्ष की उम्र वाले नौजवानों की आाबादी बढ़ कर 26 प्रतिशत हो गयी है, यह संख्या आजादी के बाद अब तक की सबसे बड़ी संख्या है। राष्ट्रसंघ जनसंख्या विभाग के अनुसार भारत  दुनिया में नौजवानों की संख्या के मामले में सबसे ज्यादा नौजवानों वाला देश है लेकिन 20 वर्ष से 34 वर्ष के आयुवर्ग वाले इस देश में 2015 से इस आबादी की संख्या घटने लगी है जो 21 वीं सदी  बाकी अवधि में बी जारी रहेगी। 

 2014 के ल7ोकसभा चुनाव में नौजवान मतदाताओं की संख्या ऐतिहासिक थी और उनका मतदान भी ऐतिहासिक था। सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ डेवेलपिंग सोसायटीज के एक सर्वेक्षण के अनुसार 2014 में पहली बार जितने नौजवान मतदाताओं ने वोट डाले वह अन्य उम्र के मतदाताओं से बहुत ज्यादा थी और ऐसा पहली बार हुआा था। यानी, मोदी जी को विजयी बनाने में नौजवानों का समर्थन बहुत ज्यादा था। पिछले चुनावों में भाजपा के समर्थन में इतनी बड़ी संख्या में नौजवानों ने वोट नहीं डाले थे। 2014 में जो ज्यादा उम्र के लोग थे उनमें से अधिकांश मतदाताओं ने कांग्रेस को वोट डाले थे। लेकिन सवाल है कि ये नौजवान राजनीति राजनीतिक दलों से अलग चाहते क्या हैं? 2017 के एक सर्वे में पाया गया है कि 15 वर्ष से 34 वर्ष की आयु वाले लोगों में राजनीति के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं है। इस उम्र के अधिकांश मतदाताओं में सनसनीखेज सियासत को लेकर कोई लगाव नहीं है। नौजवान रूढ़िवादी नजर आ रहे हैं।  जिन लोगों से सर्वेक्षण के दौरान बात हुई उनमें ज्यादातर का मानना है कि साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने वाली फिल्मों पर रोक लगायी जाय और आधे लोगों का मत है कि गोमांस पर पाबंदी लगे। सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ डेवेलपिंग सोसायटीज और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक सर्वेक्षण के मुताबिक नौजवान मतदाता खानदानी सियासत के थोड़े विरोध में हैं पर अपराधी राजनीतिज्ञों के मामले में ज्यादा उम्र के मतदाताओं के मुकाबले नरम हैं पर वे भी चाहते हैं कि उनका स्थानीय उममीदवार उनहीं की जाति का हो। 2014 के चुनाव के बाद जब उनसे पूछा गया कि नयी सरकार से क्या चाहते हैं तो अदिाकांश नौजवानों ने कहा कि रोजगार के अवसर बढ़ने चाहिये और हिंदू समुदाय की सुरक्षा होनी चाहिये। इन मतदाताओं को रोजगार के अवसर के संकट जितना प्रभावित करते हैं उतना कोई मसला नहीं करता। भारत में आज जितनी बेरोजगारी है वह पिछले 20 वर्षें में सबसे ज्यादा है यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि मतदाता सार्वजनित हितों के लिये सीधे वोट डालते हैं या फिर इसके अभाव के कारण दलों को दंडित करते हैं। नौजवान मतदाता थोड़े धैर्यहीन महसूस होते हैं। लोक फाउंडेशन के सर्वे के अनुसार जब इनसे पूछा गया कि देश की आर्थिक स्थिति कैसी है तो अधिकांश का उत्रर था कोई बदलाव नहीं हुआ है और सरकार कानून और व्यवस्था बनाये रखने में असफल है। 

    जिन मतदाताओं ने पहली बार वोट डाले थे वे उसी पार्टी के प्रति सजग दिखते थे जिसे उन्होंने वोट दिया था। नौजवान मतदाता 2014 में  भाजपा और विशेषकर नरेंद्र मोदी के भारी  समर्थक थे लेकिन ऐसा लग रहा है कि उनका मोहभंग हो रहा है। 2014 के बाद और 2019 के चुनाव के पहले  सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ डेवेलपिंग सोसायटीज के सर्वे के अनुसार कुल मिलाकर नौजवान मतदाताओं में भाजपा के प्रति दिलचस्पी मामूली तौर पर बढ़ी है लेकिन जो पहली बार वोट देने की उम्र में पहुंचे हैं उनमें ऐसा नहीं है। उनमें कांग्रेस के प्रति समर्थन बढ़ा है। नौजवान मतदाता भाजपा के पक्ष में फिर वोट डाल सकते हैं लेकिन वैसा कत्तई नहीं होगा जैसा 2014 में हुआ था।   

Thursday, October 11, 2018

जिस खेत से दहकां को ना हो रोजी मयस्सर 

जिस खेत से दहकां को ना हो रोजी मयस्सर 


दो अक्टूबर गुजर गया। शायद किसी ने गौर नहीं किया होगा कि बड़ती हुई विडम्बनाओं के इस दौर में इस वर्ष का दो अक्टूबर अब तक की सबसे बड़ी विडम्बना का गवाह है। इस दिन राष्ट्रपिता कहे जाने वाले महात्मा गांधी का जन्म दिन था जिन्होंने दुनिया को सत्याग्रह और अहिंसा का नारा दिया था। यही नहीं इसी दिन देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का भली जन्म दिन था जिन्होंने देश को नाहरा दिया था " जय जवान - जय किसान। " ...और इससी दिन इस वर्ष दिल्ली के रास्ते गाजीपुर में हजारों किसानों पर दिल्ली पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स की बटालियनों ने जलतोपें और रबर की गोलियां दागीं। ये किसान प्रधानमंत्री जी कृषि नीति के विरोध में दिल्ली कूच कर रहे थे। यहां तारीख का संयोग बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन 30 साल पहले इसी तरह का किसानों एक आंदोलन हुआ था। 1988 में इसी दिन किसानों को सिंचाई के लिये  सस्ती बिजली की मांग को लेकर 40 दिनों तक धरना दिया था और राजीव गांधी की ततकालीन सरकार हिल गयी थी। 30 साल के बाद इस दिन फिर किसानों ने कमर कसी थी। ये कर्जे माफ करने, निम्नतम समर्थन मूल्य , 15 साल पुराने ट्रैक्टर पर से पाबंदी हटाने इत्यादि की मांग लेकर दिल्ली कूच कर रहे थे और उनकी योजना थी कि गांधी जयंती के दिन  दिल्ली के किसान घाट पहुंच कर वे अपनी रैली रद्द कर देंगे।

     इस वर्ष जुलाई में भाजपा सरकार ने खरीफ का निम्नतम समर्थन मूल्य बढ़ाया था और उसका दावा था कि इस मामले में यह ऐतिहासिक निर्णय है। हालांकि यह वृदि्ध स्वामीनाथन कमिटी की सिफारिशों के अनुरूप नहीं है। वित्तमंत्री अरूण जेटली ने राज्य सभा में कहा था कि 2018 के बजट में आश्वासन दिया गया है कि किसानों की लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य रखा जायेगा। भाजपा सरकार ने 2014 में अपने चुनाव घेषणा पत्र में कहा था कि सभी छोटे किसाानों के कर्जे माफ कर दिये जायेंगे और आगे व्याज मुक्त कर्ज दिया जायेगा। नयी सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने की व्यवस्था करेगी। यही नहीं सरकार ने कहा था कि गन्ना किसानों को गन्ना बेचे जाने के 15 दिनों के भीतर उसका मूल्य दिये जाने की व्यवस्था की जायेगी और पहले का बकाया 120 दिनों में दिनोंमिें मिल जाय इसहके लिये भी सरकार मिलमालिकाणें तथा बैंकों से बात करेगी। लेकिन 24 जुलाई 2018 को वित्त मंत्री अरूण जेटली ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि कोई कर्ज माफ नहीं किया जायेगा। क्योंकि कर्ज नहीं चुकाने वालों को लाभ पहुंचाने से सरकार की साख पर आंच आती है। यही नहीं जो लोग ईमानदारी से कर्ज चुकाते आये हैं वे हतोत्साहित महसूस करेंगे। 

ग्रामीण कर्ज और उसके कारण होने वाली  मौतें बढ़ती जा रहीं हैं। अरूणजिेटली 2016 के अपने बजट भाषण में कहा था कि " हम किसानों के आभारी हैं क्योंकि वे हमारी खाद्य सुरक्षा की रीढ़ हैं। हमें खद्य सुरक्षा से आगे बड़ कर किसानों के बारे में सोचना चाहिये और उनमें आय सुरक्षा का भाव भरना चाहिये। सरकार ऐसी व्यवस्था करेगी कि 2022 तक उनकी आय दोगुनी हो जाय। " लेकिन अनिश्चित मौसम और किसानों द्वारा आत्म हत्या की बड़ती घटनाओं के यह दौर इस बार के चुनाव में मुख्य मुद्दा होगा। हालांकि औपचारिक कर्ज के बंदोबस्त बडझ् रहे हैं पर अभी तक उसकी पहुंच सबतक नहीं है लिहाजा गांव के किसान अभी भी महाजनों पर निर्भर हैं। किसानों की आत्म हत्या को कम करने की गरज से 2017 में उत्तरप्रदेश में 36 हजार 359 करोड़ रुपयों और महाराष्ट्र में 30 हजार करोड़ रुपयों के कर्ज माफ किये गये। लेकिन इसका कोई खास असर नहीं पड़ा। किनसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं बड़ती जा रहीं हैं। उनकी पीड़ा कम नहीं हो रही है और सरकार कुछ सुन नहीं रही है। लिहाजा उनमें अवसाद बढ़ता जा रहा है। दारू की लत बढ़ रही है और साथ ही कई मनोवैज्ञानिक व्याधियां भी बढ़ती जा रहीं हैं। इसमें विडम्बना और है कि आत्महत्या के तरीके के वर्गीकरण के नये कानून बने हैं। अब उसी किसाान की मौत को आत्महत्या माना जायेगा जिसने बैंक का कर्जा नहीं दिया है और उसके या उसके परिवार नाम कोई जमीन है। बाकनी सारी मौतें दुर्घटना की ष्रेणी में आती हैं। 

  सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ डेवेलपिंग सोसायटीज (सी एस डी एस ) के अध्ययन के मुताबिक 18 राज्यों के 76 प्रतिशत किसान खेती करने के इच्छुक नहीं हैं। 18 प्रतिशत किसान इससे इसलिये जुड़े हैं कि इसके लिये उनपर परिवार का दबाव है। आज शहरों में बासमती चावल और दाल के पैकेटों को हाथ में लेकर हम नहीं सोचते कि इसी समय देश में इसे उपजाने वाला  कहीं ना कहीं , कोई ना कोई आत्म हत्या के लिये रस्सी या जहर की शीशी ढूंढ रहा होगा। 

जिस खेत से दहकां को ना हो रोजी मयस्सर 

उस खेत के हर खोसा - ए - गंदुम को जला दो       

Wednesday, October 10, 2018

विपक्ष का एकजुट होना जरूरी 

विपक्ष का एकजुट होना जरूरी 

बड़ा अजीब वाकया है। हम में से बहुतों को 70 का दशक याद होगा। इस दशक के पहले कुछ साल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए बेहतरीन थे। लोकसभा चुनाव में भारी विजय मिली थी ,बांग्लादेश युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को धूल चटा दी थी और गरीबी हटाओ का नारा जन जन के बीच गूंज रहा था।पोखरण परमाणु परीक्षण ने उनके कद को और बढ़ा दिया था । " इंदिरा इज इंडिया" का जुमला चल निकला था। इंदिरा जी के उस प्रभाव को निस्तेज करने के लिए जयप्रकाश नारायण ने सभी दलों को एकजुट कर दिया और विपक्षी एकता ने इंदिरा जी को पराजित कर दिया । 
       कुछ ऐसी ही स्थितियों में 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने । एक नया नारा था "हर-हर मोदी ,घर घर मोदी।" इस नारे ने मोदी का कद इतना बढ़ा दिया कि भारत के सारे राजनीतिज्ञ उनके आगे बौने हो गए थे। अब फिर विपक्षी एकता की हवा बह रही  है। लेकिन, अभी कुछ तय नहीं हो पा रहा है। पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा को लेकर चुनाव आयोग ने जो व्यवहार किया उससे ऐसा लगता है कि लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने अस्तित्व के अत्यंत चिंताजनक दौर में पहुंच गयीं हैं। विपक्षी एकता की संभावना डांवाडोल है। समाजवादी पार्टी  और बहुजन समाज पार्टी  के आचरण से ऐसा लगता है  कि वह कांग्रेस से तालमेल कर चुनाव लड़ने के मूड में नहीं है। राजस्थान से तीसरे मोर्चे की खबर आ रही है और छत्तीसगढ़ में बसपा ने अजीत जोगी से हाथ मिला लिया है। इन 3 राज्यों में जो राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं उसका असर व्यापक हो सकता है।
     जब  गठबंधन की बात चल रही थी तो बताते हैं की  हर पार्टी ने  अपने लिए ज्यादा सीटों की मांग की । आम हालात में यह स्वाभाविक भी है। इसमें सवाल उठता है कि आज जो हालात हैं वह क्या आम हैं और दूसरा यह चुनाव इतना महत्वपूर्ण है एक सरकार आएगी और एक जाएगी। मीडिया को छोड़ें, इन साढे 4 वर्षों में जो घटनाक्रम चल रहा है वह कई सवाल के उत्तर खुद दे देगा। ऊपर "इंदिरा इज इंडिया" की बात हुई थी। ठीक उसी तरह आज सरकार बीजेपी की नहीं एमजेपी की है यानी मोदी जनता पार्टी की। यह सरकार नीतिगत और अन्य फैसले तत्कालीन राजनीतिक लाभ को देख कर और कहें तो अपनी सनक के आधार पर लेती है। इसके नतीजे भयानक हो रहे हैं। नोट बंदी का ही उदाहरण लें। जिन अर्थशास्त्रियों ने इस पर उंगली उठाई उनके खिलाफ "हार्वर्ड बनाम हार्ड वर्क" का नारा ठोक दिया गया। आज पूंजीपतियों को छोड़कर समाज का हर वर्ग आर्थिक रूप से परेशान है। नोटबंदी के बाद सहकारी बैंकों के धंधे किसी से छिपे नहीं हैं। राफेल सौदा भ्रष्टाचार विरोध के नारे  की किरकिरी कर रहा है।
       बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और सरकार उसके आंकड़े प्रकाशित नहीं कर रही है। बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्या को पकौड़े तलने से हल करने की बात की जाती है। डॉलर  के मुकाबले रुपया गिरता जा रहा है और उसे संभालने के बजाय नारे और जुमलों से काम चलाया जा रहा है। राफेल सौदा पर उठाए गए  प्रश्नों का जवाब नहीं मिल रहा है उल्टे हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को नकारा साबित किया जा रहा है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी का एक तरफ मजाक उड़ाया जाता है और दूसरी तरफ कहा जाता है कि राहुल ने ही फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति से मनमाफिक बयान दिलवा दिया है । समाज टूट रहा है गुजरात से बिहारी भाग रहे हैं । कारखाने बंद हो रहे हैं। गरीबों पर और अल्पसंख्यकों पर जुल्म बढ़ते जा रहे हैं । गो रक्षा के नाम पर खुलेआम पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है और हत्यारों का कुछ नहीं होता। पड़ोसी देशों में भारत विरोधी भावनाएं पनप रहीं हैं। नेपाल चीन की ओर खिसक रहा है। असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों को लेकर तनाव फैल रहा है और दूसरी तरफ सरकार आश्वासन भी दे रही है कि उन्हें वापस नहीं भेजा जाएगा।
       जरा राजनीतिक हालात पर गौर करें। आखिर क्या बात है कि राफेल सौदे पर केवल कांग्रेस बोल रही है बाकी सभी विपक्षी दल चुप हैं। कहीं ऐसा तो नहीं ये लोग चुनाव के बाद भाजपा से तालमेल के रास्ते खुले रखना चाहते हैं। मायावती जी तो पहले भी भाजपा के साथ रह चुकी हैं।
        अभी जो कांग्रेस की स्थिति है देख कर लगता है कि उसमें आत्मविश्वास बढ़ा है। राहुल गांधी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से संबंध भी अच्छे बना रहे हैं। एक तरह से कांग्रेस अभी पुनर्जीवन प्राप्त करने की दिशा में बढ़ रही है। भाजपा भी इसे समझ रही है। यही कारण है कि सरसंघचालक ने "कांग्रेस मुक्त भारत" का नारा त्याग दिया है। आज हालात वही हैं जो 70 के दशक में इंदिरा जी के जमाने में थे और उसका जवाब था विपक्षी एकता। आज भी भाजपा विरोधी दलों एकता जरूरी है या कहें अनिवार्य है । वर्ना देश के सामने और भी संकट आ सकते हैं।

Tuesday, October 9, 2018

समाज में आपराधिकता बढ़ती जा रही

समाज में आपराधिकता बढ़ती जा रही है

गुजरात में एक नाबालिक बच्ची के साथ बलात्कार के बाद वहां बाहर से आए, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश आए लोगों पर हमले होने लगे। उनके साथ मारपीट होने लगी। यही नहीं , रोजाना देश में कहीं न कहीं, किसी न किसी पर हमले होते हैं। बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बनाया जाता है या फिर सांप्रदायिक दुर्भावना दिखाई पड़ती है। क्या कारण है कि आज जबकि हमें अपराधिकता से खुद को दूर रखना चाहिए हम इसमें जुड़ते जा रहे हैं। किसी न किसी तरह जब भी हम अपनी निजता के अधिकार की बात करते हैं तो उसके साथ ही हमें उपलब्ध आपराधिक आंकड़ों को समन्वित रूप से देखना होगा। आपराधिक न्याय प्रणाली के प्रशासन के लिए यह आवश्यक भी है । अपराध की रिपोर्ट कैसे की जाती है यह जानना -समझना जरूरी है।क्योंकि उस  रिपोर्ट के आधार पर आंकड़े तैयार होते हैं। उन तैयार आंकड़ों का कैसे विश्लेषण होता है और फिर उनको कैसे अलग अलग स्वरूपों में बांटा जाता है, जो अपराध के स्वरूप की व्याख्या करते हैं। केवल आपराधिक न्याय प्रणाली की नहीं सामाजिक व्यवस्था की सुरक्षा और समाज का विकास भी आपराधिक आंकड़ों की स्थिति पर निर्भर करतें हैं
आज आंकड़ों का राजनीतिकरण होने लगा है और यही नहीं सियासत भी आंकड़े एकत्र करने के विभिन्न तौर - तरीकों में हस्तक्षेप करने लगी और यहां तक कि यह उन्हें मनमाने ढंग से तोड़ने मरोड़ने में लगी है। 
राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) की इस बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि उसने अगले वर्ष से विभिन्न आयामों में अपराध से जुड़े आंकड़ों के संग्रहण और वर्गीकरण में सुधार का प्रस्ताव दिया है। इसमें मीडिया से जुड़े लोगों ,वरिष्ठ नागरिकों, आरटीआई और सामाजिक कार्यकर्ताओं, गवाहों, खाप पंचायत ,राजनीतिक दलों और संगठित समूह के खिलाफ अपराध भी शामिल हैं। अब साइबर अपराधों  के भी आंकड़े एकत्र किए जाएंगे। यही नहीं, पुलिसकर्मियों के खिलाफ शिकायतों पुलिस द्वारा मानवाधिकार के हनन की घटनाओं हिरासत में मौतें और पुलिस हिरासत से फरार होने के मामलों के भी आंकड़े तैयार किए जाएंगे।
       शायद इन आंकड़ों का और विपुंजन किया जाए। जिसमें अपराधी और अपराध के शिकार दोनों का जिक्र हो । क्योंकि ,जिनको अपराधी कहा जाता है वह जन्मजात तो होते नहीं बल्कि हमारा समाज उन्हें अपराधी बनाता है। इसलिए अपराध करने वालों और अपराध के शिकार हुए लोगों से संबंधित सही अभिलेख अपराधी बनने की स्थितियों को समझने में मदद पहुंचाएगा।
        विख्यात अपराधी शास्त्री सोडरमैन के अनुसार "जिस समाज में अपराध के आंकड़े सही सही ढंग से नहीं तैयार किए जाते उस समाज में अपराध का काला चेहरा तेजी से उभरता है । " अब यदि सुप्रीम कोर्ट के दबाव के बावजूद एफ आई आर नहीं दर्ज की जाती है तो अपराध का काला चेहरा सुरसा के मुंह की तरह फैलता जाता है और घिनौना तथा डरावना होता जाता है। सरेआम पीट-पीटकर मार दिया जाना  या किसी को नंगा करके घुमाया जाना इसी  तरह के अपराध के काले चेहरे हैं। ऐसी स्थितियों में कानून बनाने वाले भी अपराध में संलग्न हो जाते हैं और इससे एक आपराधिक चक्र आरंभ हो जाता है, जिसका अंत दिखाई नहीं पड़ता। 
   कानून और आर्थिक आंदोलन से जुड़े लोग  सिद्धांत के  रूप में तथा व्यवहारिक रूप में इस बात को लेकर काफी उग्र रहते हैं कि सामाजिक परिवर्तन नीतियों के माध्यम से होता है या सक्षम पुलिस व्यवस्था तथा दंड न्याय के कारण होता है। कानून का मानना है कि दंड की  सुनिश्चितता उसकी कठोरता से ज्यादा मायने रखती है और यही बात पुलिस व्यवस्था और उससे जुड़े प्रशासनिक खर्चो के लिए सरकारी निवेश भी मानता है। जहां तक अपराध का आर्थिक दृष्टिकोण है उसके बारे में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री गैरी बेकर का मानना है कि दंड की कठोरता उसकी सुनिश्चितता से कहीं ज्यादा जरूरी है क्योंकि इससे कुछ खर्चे कम हो जाते हैं।
        आगे चलकर ज्यादा गिरफ्तारियां की संभावना दिखाकर ज्यादा पुलिस व्यवस्था के बाद अपराध और इससे जुड़े खर्चों को कम किया जा सकता है। अपराध के कारणों पर व्यापक सामाजिक बहस की जगह  पुलिस व्यवस्था ज्यादा प्रभावशाली करनी होगी। खास करके तब जबकि सामाजिक व्यवस्था के भंग की जाने की छोटी-छोटी घटनाओं की श्रृंखलाएं हों और उसे अंजाम देने वाले लोगों को दंड दिया जाता है। इसी सिद्धांत से प्रेरित होकर न्यू यार्क पुलिस1990 में छोटे छोटे अपराध करने वालों को भी पकड़ने लगी। इसके लिए ज्यादा पुलिस व्यवस्था की जरूरत पड़ने लगी
      भारत में हाशिए पर रहने वाले समाज में ज्यादा पुलिस कर्मियों की मौजूदगी और वहां के रहने वालों द्वारा किए जाने वाले अपराधों के सही-सही आंकड़े बनाए जाने चाहिए। लेकिन उन समन्वित आंकड़ों को विभिन्न वर्गों में बांटे जाने की जरूरत है। एनसीआरबी पुलिस की मौजूदगी  आधार पर राज्य स्तरीय आंकड़े प्रस्तुत करता है लेकिन  इससे इस बात का पता नहीं चल पाता की किस अपराध के लिए कितनी पुलिस तैनाती हो । क्यों नहीं जिला स्तरीय या ब्लॉक स्तरीय यहां तक की थाना स्तर पर तैयार किये जायें।
      बेशक , पूरी तरह अपराध खत्म नहीं किए जा सकते और ना आंकड़ों के अशुद्ध होने की घटनाओं को। क्योंकि  पुलिस अधिकारी  भी पूरी तरह  भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हैं। मिसाल के तौर पर देखें की एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि बिहार तथा उत्तर प्रदेश में दिल्ली से कम अपराध होते हैं। लेकिन जब गिरफ्तार किशोरों के  अपराधों का विश्लेषण किया गया तो पता चलता है कि परिवार को परेशान करने के लिए भूतों को यूं ही गिरफ्तार कर लिया गया है। हालांकि , अपराध के आंकड़े उपलब्ध हैं। जिनमें कट्टर अपराधियों के सामाजिक आर्थिक चरित्र का भी वर्णन किया गया है। आंकड़ों का विश्लेषण इस बात की व्याख्या करता है कि कौन सी प्रवृत्ति या नीतियों के प्रभाव अपराध को अग्रसारित करते हैं ।बिना इसे जाने अपराध का शमन संभव नहीं है। गुजरात में जो कुछ भी हो रहा है या देश के अन्य भागों में जो कुछ भी हो रहा है वह अपराध की व्याख्या को तोड़ने मरोड़ने का ही नतीजा है।

Monday, October 8, 2018

लंगोटी वाले के नाम पर टोपी वाले की कमाई 

लंगोटी वाले के नाम पर टोपी वाले की कमाई 

अभी हाल में किसानों का भयानक आंदोलन हुआ और गांधी जयंती के दिन सरकार और भारत के किसान आमने-सामने आ गए। सरकार ने किसानों की पीड़ा को दूर करने के लिए कोई ऐसा कदम नहीं उठाया है जो लगे कि सचमुच कुछ हो रहा है। आज  किसानों की जो पीड़ा है वह कई तरह की है। सरकार कहती है हम किसानों को खाद और बीज के लिए कृषि ऋण देते हैं । लेकिन रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि 2016 में सरकारी बैंकों द्वारा 78,322 खातों में 1लाख 23हज़ार करोड़ रुपए डाले गए। यह रुपए कुल कृषि ऋण के 18.10 प्रतिशत हैं जो कि कर्ज़ पाने के लिए दिए गए आवेदनों के  महज 0.15% हैं। वहीं 2. 57% खातों में 31.57 प्रतिशत कृषि ऋण दिए गए। केंद्र सरकार ने 2014 -15 में 8.30 लाख करोड़ कृषि ऋण देने की घोषणा की थी और 2018 - 19 में इसे बढ़ाकर 11 लाख करोड़ कर दिया गया। लेकिन रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं इस ऋण का बड़ा हिस्सा कुछ चुनिंदा लोगों को दिया जा रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह ऋण कृषि व्यापार में लगी कंपनियों और उद्योगों को दिया जा रहा है । 2016 में सरकारी बैंकों द्वारा 5 करोड़ से ज्यादा खातों में 6लाख 82हज़ार करोड रुपए कर्ज के रूप में दिए गए । 
   किसानों का मानना है कि कर्ज देने और उसे लौटाने के लिए जो समय तय किया गया है वह सही नहीं है । दूसरी तरफ, सरकार बड़ी कंपनियों को किसान बना कर करोड़ों रुपए का लोन दे रही है। इस देश में किसान मजाक बनकर रह गए हैं ।आंकड़े बताते हैं हर साल खेती के नाम पर करोड़ों रुपए लोन दिया जा रहा है । उदाहरण के लिए देखें 2015 में 73हज़ार 262 खातों में 25हज़ार करोड़ से ऊपर कर्ज दिए गए जबकि 2016 में खातों की संख्या 78हज़ार 322 पहुंच गई दिन में 1लाख 23हज़ार  481 करोड़ रुपए डाले गए। यानी हर खाते में औसतन डेढ़ करोड़ रुपए बतौर कर्ज़ डाले गए । 2007 में कृषि ऋण  पाने वाले खातों की संख्या 24हज़ार 729 थी और 9 साल में इनकी संख्या 3 गुना बढ़ गई। 2014 में इस तरह के सबसे ज्यादा कर्ज दिए गए । इस वर्ष 77हज़ार 795 खातों में 1लाख24हज़ार517 करोड़ रुपए बतौर कर्ज दिए गए । एक तरफ किसानों की दशा बिगड़ती जा रही है और दूसरी तरफ सरकार उनके कल्याण के नाम पर दूसरों को रुपए बांट रही है। किसानों के नाम पर पूंजीपतियों को फायदा मिल रहा है । हालात यह हैं 2-2 एकड़ वाले किसान बिना किसी मदद के कराह रहे हैं और बिना जमीन वाले सेठ करोड़ों रुपए के कर्ज उठाकर धंधा कर रहे हैं। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार 2016 में 615 खातों में 95 करोड़ से ज्यादा रुपए कर्ज के रूप में दिए गए। 5 करोड़ से लेकर 25 करोड़ तक के ऋण में भारी वृद्धि हुई है। 2016 में 2,396 खातों में 5 करोड़ से 25 करोड़ तक के कृषि ऋण डाले गए। अगर यह सारी रकम को जोड़ दिया जाए तो यह राशि 17,127 करोड़ होती है। इसका मतलब है कि 2396 खातों में औसतन 7 करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम डाली गई। यानी देश के 2,396 किसानों को  77 करोड़ रुपए दिए गए । क्या इतने बड़े किसान हैं भारत में ? 
      बताते हैं कि नियम है कि बैंकों को कुल लोन का 18% हिस्सा कृषि ऋण के रूप में देना होता है ।इसे प्रायरिटी सेक्टर लेंडिंग कहते हैं। इसमें बड़ी कंपनियों को कर्ज़ देख कर बैंक अपना कोटा पूरा कर लेते हैं । जबकि नियम यह है कि छोटे छोटे और हाशिए पर खड़े किसानों को यह कर्ज मदद के रूप में दिया जाए।
कृषि ऋण के नियम अन्य कर्ज़ों के नियमों से सरल होते हैं । स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के बाद तो यहां तक छूट मिली कि जो किसान समय पर ऋण नहीं चुका पाता है उसे 3% की छूट मिलती है।  फसल ऋण पर केवल 4% से ब्याज देना होता है। अन्य कई तरह के कर्ज़ हैं जिनके ब्याज दर भी अलग-अलग होते हैं। पहले डायरेक्ट और इनडायरेक्ट लोन का एक वर्गीकरण था। जिससे पता चलता था कि कितना रुपया किसानों को और कितना रुपया कृषि व्यापार में लगी कंपनियों को दिया जा रहा है। लेकिन मोदी जी के काल में इस वर्गीकरण को समाप्त कर दिया गया। बेशक कृषि व्यापार कंपनियों को भी लोन मिलना चाहिए लेकिन किसानों के नाम पर ऐसा करना उचित नहीं है।

Sunday, October 7, 2018

मोदी जी ने राहुल को नेता बना दिया

मोदी जी ने राहुल को नेता बना दिया

भाजपा ने अगले लोकसभा चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं। ऐसे में यह पूछना बड़ा मुफीद है कि मोदी सरकार की अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है? ईवीएम का बटन दबाने से पहले उनकी किस बात को जनता याद रखेगी और उस आधार पर उन्हें वोट देने का फैसला करेगी? 2014 से भारत की जनता लगातार यह देखती आ रही है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अर्थशास्त्री नहीं हैं। समाजशास्त्री नहीं हैं, नौकरशाह भी नहीं रहे हैं। वर्ना, जनता अर्थशास्त्र के संदर्भ में उनके बारे में सोचती, समाज सुधार के बारे में उन पर सवाल उठाती या फिर प्रशासनिक सुधारों के बारे में बात होती।  हो सकता है इन तीनों को लेकर कर उनके अपने दावे भी हों। उनकी सरकार ने उनकी सफलताओं और उपलब्धियों की बहुत बड़ी फेहरिस्त पेश की है। उस फेहरिस्त पर बात  उचित नहीं है।
जो सबसे बड़ी बात है वह है कि विगत 25 वर्षों में नरेंद्र मोदी की सरकार सबसे ज्यादा यथास्थितिवादी और हर बात में दखल देने वाली सरकार है । बेशक ऐसी बात मोदी के भक्तों को नहीं पचेगी ,लेकिन अगर आप पिछले 2 दिनों में पेट्रोल डीजल पर सरकार की गलतियों को देखेंगे तो लगेगा कि यह बात सही है। मोदी जी ने बिना सोचे समझे एक झटके में जिस तरह नोट बंदी की थी उसी तरह एक ऐसे आर्थिक सुधार को खत्म कर दिया जिसे ठीक करने में कई वर्ष लगे थे। मोदी जी ने डीजल- पेट्रोल की कीमत में भारी वृद्धि के कारण जनता की नाराजगी से डरकर सहसा सेंट्रल एक्साइज में डेढ़ रुपए प्रति लीटर घटा दिए। इस कदम से सरकार को 31 मार्च 2019 तक कम से कम दस हजार करोड़ रुपए की आमदनी से हाथ धोना पड़ेगा। इसके बाद उन्होंने एक और फैसला किया। सरकारी तेल कंपनियों तेल की कीमत में एक रुपये प्रति लीटर कटौती करने का हुक्म दिया। सरकार ने पेट्रोल और डीजल के दाम बाजार दर से किये जाने के एक बड़े आर्थिक सुधार को खत्म कर दिया। नतीजा क्या हुआ ? गुरुवार को शेयर बाजार लुढ़क गया और निवेशकों को 48 हजार करोड़ का झटका लगा। यही नहीं, सरकार को भी 55 हजार करोड़ की चोट पहुंची। यह एक बड़ी अर्थशास्त्रीय भूल थी। लेकिन मोदी जी अर्थशास्त्री तो हैं नहीं।
       मोदी जी दरअसल एक नेता हैं और नेता के मापदंड पर उनके बारे में बात होनी चाहिए। नेता के रूप में उनके दो दायित्व थे । पहला अपनी पार्टी को जिताना और दूसरा विपक्षी दल को ,खासकर मुख्य विपक्षी दल को, धूल चटाना। पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी जी ने जो अभियान चलाया उसे देख कर तो लगता है कि नेता के रूप में उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया है और देश के प्रधानमंत्री भी बने। जैसे ही देश के प्रधानमंत्री बने उनकी जिम्मेदारियां बदल गयीं, खासकर राजनीतिक जिम्मेदारियां तो बिलकुल बदल गईं। जहां उनका दायित्व था ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना अब उनकी जिम्मेदारी बन गई है कि वह कम से सीट गवाएं और इसके फलस्वरूप उनकी बातों का राजनीति का असर भी बदल गया है। साथ ही जिस कांग्रेस को वे अक्सर निशाने पर उस में भी बदलाव आया है। अब उसके नेता अपरिपक्व समझे जाने वाले राहुल गांधी हैं। जिन्हें मोदी जी के समर्थक मजाक का पात्र बनाते हैं और खारिज करते रहते हैं। लेकिन गुजरात चुनाव में राहुल गांधी ने यह दिखा दिया कि उनमें  भी कुछ दम है और इसके बाद से ही लोगों की सोच उनके बारे में बदल गई । अब राहुल गांधी को हंसी में नहीं उड़ा सकते। मोदीजी  की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि राहुल गांधी जैसे आदमी को  नेता बना दिया और लोगों को राहुल की बात कभी-कभी ठीक भी लगने लगी। 2008 से 2014 के बीच मोदीजी के साथ इसके विपरीत हुआ था और उस विपरीत होने में जनसंपर्क अभियान ने भी बहुत मदद पहुंचाई थी। इस अभियान से ऐसा लग रहा था कि मोदी एक मसीहा हैं और देश में जो कुछ भी गलत हो रहा है उसे ठीक कर देंगे। दिलचस्प बात यह है कि जिस तरह उस समय मोदी जी को अपनी छवि बदलने का लाभ मिला था वही लाभ आज राहुल गांधी को मिल रहा है।  रूसो का का मानना कि विपक्षी दल की छवि तभी सुधरती है जब सत्ताधारी दल गलतियां करता है। मोदी जी से कई छोटी बड़ी गलतियां हुईं हैं और इसका लाभ राहुल के जनसंपर्क अभियान में लगे लोग उठा रहे हैं। लेकिन हकीकत यह है कि राहुल बदले नहीं है। वह वही राहुल हैं। फर्क बस इतना ही है कि जैसे 2014 के पहले हम यह नहीं जानते थे कि विभिन्न मसलों के बारे में मोदी जी क्या सोचते हैं उसी तरह हम यह भी नहीं जानते कि उन पर राहुल जी की क्या राय है। कांग्रेस अध्यक्ष ने कभी इस पर बात ही नहीं की। राहुल ने अपने दिमाग में बैठा लिया है  कि उनके पीआर में लगे उनके लोग  इतना वोट दिला देंगे कि कांग्रेस भाजपा को चुनौती देने के काबिल हो जाएगी । 2013 -14 में अपने प्रचार अभियान के दौरान मोदी जी ने बड़ी सफाई से लोगों को छोटे-छोटे मसलों से निपटने की योजना बताई थी और  यह विश्वास दिलाया था बाकी के बारे में भी वे आगे बताएंगे ।  इसके अलावा उस समय यूपीए के खिलाफ एक लहर थी। लेकिन इस बार वह लहर नहीं दिख रही है। राहुल में जो सबसे बड़ी कमी है वह है उनमें  आक्रामकता की भारी कमी। उनके मनोविज्ञान को देख कर नहीं लगता कि वे चुनाव तक इस कमी को दूर कर सकेंगे।

Friday, October 5, 2018

2019 के चुनाव में भी विदेशी हाथ का खतरा

2019 के चुनाव में भी विदेशी हाथ का खतरा

70 के दशक में भारत में दो ही हाथ मशहूर थे। पहला था ,"कानून के लंबे हाथ" और दूसरा था "विदेशी हाथ ।" दोनों हाथ कभी दिखते नहीं थे। बड़े रहस्यमय थे। लेकिन यह माना जाता था कि  दोनों सक्रिय हैं। पहला चूँकि कानून के हाथ  थे इसलिए उन्हें आसानी से समझा जा सकता था, वे दिख भी जाते थे। जैसे किसी निर्दोष को पकड़ लिया तो ऐसे मौके पर कानून के हाथ दिखते थे। यह बात दूसरी थी कि न उस समय भी प्रभावी थे और आज हैं। इसलिए उसने अपने चारों तरफ अपना प्रभा मंडल बना रखा था।
        जहां तक विदेशी हाथ का सवाल है तो यह बड़ा अजीब है। बिल्कुल पहेलियों की तरह। आज तक कभी किसी ने देखा नहीं है ना कोई यह जानता है यह कैसे काम करता है, लेकिन  भरोसा सभी करते थे। वह शीत युद्ध का जमाना था। भारत का समाजवादियों से प्रेम चल रहा था। इंदिरा गांधी उस समय प्रधानमंत्री  थीं और उन्होंने कभी भी अपने सोवियत प्रेम को छिपाया नहीं। सीआईए उनका आतंक था । देश में कुछ भी गलत होता तो उसमें  उसी का हाथ होता था। सीआईए सब जगह मौजूद था। एक तरह से यह सार्वजनिक व्यंग का विषय हो गया था। निक्सन इंदिरा जी को पसंद नहीं करते थे यह सब कोई जानता था। 1971 के भारत-पाक युद्ध और बांग्लादेश की आजादी कोई काल्पनिक नहीं थी। इंदिरा जी ने इमरजेंसी लगाई थी उसके बारे में कुछ लोग तो यह  भी कहते थे अमरीका ने इमरजेंसी हटाने के लिए इंदिरा जी पर दबाव डाला था। इंदिरा जी के जीवनीकारों से अज्ञात हाथों से उनकी मौत का उनके भीतर व्याप्त भय छिपा नहीं था। वैसे विदेशी हाथ का यह डर असुरक्षित राजनीतिज्ञों की कल्पना नहीं थी। ना ही कोई काम गलत हो जाने पर एक बहाना था 'रॉ ' के पूर्व अध्यक्ष विक्रम सूद ने अपनी पुस्तक का "दी अनएंडिंग गेम" में लिखा है  की "शीत युद्ध के जमाने में भारत विदेशी खुफिया एजेंसियों के खेल का मैदान था ।"हाल में विदेशी सरकारों द्वारा वर्गीकृत किए गए दस्तावेजों से भी यह प्रमाणित होता है। सी आई ए और के जी बी ने भारतीय संस्थाओं में गहरी पहुंच बना ली थी। कई राजनीतिज्ञ, अफसर ,राजनयिक, पुलिस और खुफिया अधिकारी उनसे वेतन पाते थे। राजनीतिक दलों को अमरीका और रूस चुनाव में धन देते थे।
       यही नहीं एक मनोवैज्ञानिक युद्ध भी चलता था। केजीबी का दावा था की भारत के 10 अखबार और समाचार एजेंसियां उनके वेतन पर चलती थीं। उनके माध्यम से वे प्रॉपगंडा करते थे। विक्रम सूद ने लिखा है कि मास्को ने शीत युद्ध जमाने में भारत के अखबारों में 1 लाख साठ हजार खबरें प्रकाशित करवाई थीं। यही नहीं 1972 से 75 के बीच के जी बी ने कथित रूप से भारतीय मीडिया में सत्रह हजार खबरें प्रकाशित करवाई थीं।
       अब इसे आज के संदर्भ में देखिए यह तो भरोसा ही नहीं किया जा सकता है कि विदेशी हाथ को भारत  में अभी दिलचस्पी नहीं है।  कुछ नहीं तो वैश्विक जियोपोलिटिक्स में भारत का महत्व कई गुना बढ़ गया है ।भारत का प्रभाव अपने निकटतम पड़ोसी से आगे तक चला गया है । भारतीय  सेना और कूटनीति की क्षमता बढ़ी है। भारत गैर कम्युनिस्ट धुरी का आज एक महत्वपूर्ण सदस्य है और आतंकवाद के खिलाफ ग्लोबल युद्ध का महत्वपूर्ण दावेदार भी है । अब अगर इस सारी स्थितियों को ध्यान से देखें तो ऐसा लगेगा कि हम "शीत युद्ध" से "शीततर युद्ध" के युग में प्रवेश कर गए हैं। खासकर चीन और रूस के ताकतवर हो जाने के बाद अब परंपरागत हथियार की जगह साइबर शस्त्र का प्रयोग हो रहा है। डाटा और सोशल मीडिया इन दिनों महाविनाश के शस्त्र बन गए हैं । एक मुल्क और एक आबादी के तौर पर हम समझते हैं कि जियो पॉलिटिक्स मजबूरियां क्या हैं। इसके लिए पड़ोसी के राजनीतिक मामलों में गुप्त हस्तक्षेप अपेक्षित है। हम विदेशी हाथ की इसलिए आलोचना करते हैं कि अपेक्षित लाभ या उत्प्रेरण पहले नहीं हासिल कर सकते । पाकिस्तान को अपने घरेलू मामलों में भारत का हस्तक्षेप  उसकी पुरानी शिकायत है। एशिया के और देश भी भारत के हाथ से ऊबे हुए लगते हैं। अब चीन का भी खतरा बढ़ रहा है और इससे भारत और चीन एक नए क्षेत्रीय शीत युद्ध में कूद चुके हैं। यही नहीं जब पाकिस्तान ,अफगानिस्तान और ईरान का मसला होता है तो सीआईए कोई गोपनीय शब्द नहीं रह जाता है। ब्रेक्जिट और अमरीकी चुनाव में रूस की भूमिका किसी से छिपी नहीं है और यह गंभीर बहस का विषय है।
        जब हमारी बात आती है यानी अपने देश की बात आती है तो हम एक तरह से उन कबूतरों की तरह हो जाते हैं जो आंखें बंद कर लेते हैं और समझते हैं खतरा टल गया। जो इस पर सवाल उठाते हैं उन पर आरोप लगाते हैं कहते हैं कि वह अपनी पराजय को छुपा रहा है। यह दशकों से चला आ रहा है।
         अब जरा रूसी हैकरों के काम करने का ढंग देखें। पता चलेगा कि हम अभी कितने कमजोर हैं । हमारे सिस्टम बेहद असुरक्षित हैं।   सोशल मीडिया का बहुत बड़ा वर्ग असंतोष जाहिर करने में लगा हुआ है यह सब 2016 से चल रहा है । जब से डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव लड़ा है। एक तरह से सूचना युद्ध है। इसमें करोड़ों डालर लगे हैं और इससे सैकड़ों लोग जुड़े हैं । यही नहीं 2014 में "ट्रॉल फार्म" ने अविश्वास पैदा करने के लिए रणनीति तैयार की थी । मोटे तौर पर यह राजनीतिक पद्धति उम्मीदवारों के खिलाफ है। इससे जुड़े लोग  झूठे बैंक खाते और परिचय के गलत दस्तावेज का उपयोग करते हैं। यह लोग फेसबुक, ट्विटर ,इंस्टाग्राम और यू  ट्यूब का उपयोग करते हैं तथा गलत सूचनाएं प्रसारित करते हैं। इन्होंने कथित रूप से पार्टियों के सर्वर और ईमेल हैक कर लिया और उनका उपयोग कर फाइलों को चुरा लिया तथा बाद में इसे प्रकाशित किया।
      अपना देश भी इससे सुरक्षित नहीं है। मामूली उदाहरण है काला धन। जब इसकी बात आती है तो हम खुद ब खुद सोचने लगते हैं कि सब मिले हुए हैं। यही बात विदेशी धन के भी मामले में होता है। राजनीतिक दलों के पास सदा से कुछ ऐसे विदेशी लोग रहे हैं जो उन्हें लाभ पहुंचाते रहे हैं। इसलिए वे दल दूसरों पर उंगली नहीं उठा सकते। मीडिया का कुछ हिस्सा भी इनसे जुड़ा हुआ है इसलिए वह कोई असुविधाजनक प्रश्न नहीं खड़े करता है। इसलिए वे विदेशी हाथ भारतीय चुनाव में भी सक्रिय हो जाएं इसमें क्या आश्चर्य है ।आखरी यह भी तो चुनाव है।

Thursday, October 4, 2018

सड़क दुर्घटनाएं राजनीतिक मुद्दा क्यों नहीं बनतीं

सड़क दुर्घटनाएं राजनीतिक मुद्दा क्यों नहीं बनतीं

अजीब है हमारा देश भी एक तरफ राफेल की खरीदारी व्यापक राजनीतिक मुद्दा बन जाती है लेकिन सड़क हादसों में हर साल डेढ़ लाख लोगों के मारे जाने घटना कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं बनती। हैरत होगी यह जानकर कि हमारे देश में आतंकवाद और नक्सलवाद से कहीं ज्यादा लोग सड़क हादसे में मारे जाते हैं। हमारे राजनीतिज्ञ आतंकवाद से लड़ने की कसम खाते हैं,नक्सलवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने की शपथ लेते हैं।  अपहरण का भय खत्म करने का वादा करते हैं । दंगों और भुखमरी को दूर करने की बात करते हैं लेकिन कोई नहीं देखता कि भारत में सबसे ज्यादा लोग चलते-चलते मर जाते हैं। लोग घर से दफ्तर जाने के लिए निकलते हैं ,बच्चे स्कूल जाने के लिए निकलते हैं लेकिन किसी  तेज रफ्तार कार से कुचलकर जान दे देते हैं या फिर गाड़ी वाले बस वाले की जल्दबाजी के कारण गड्ढे में गिरकर जान गंवा देते हैं। भारत सरकार के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 2017 में 20 हजार 457 पैदल यात्री सड़क चलते हादसों के शिकार हो गए। यानी हर रोज 56 यात्री सड़क चलते मारे जाते हैं। विडंबना यह है की आम भारतीय इन हादसों को इत्तेफाक मानकर चुप हो जाता है। इसके पीछे असुरक्षित जीवन जीने वाले आम भारतीयों का नियती वादी मनोविज्ञान है। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सड़क हादसों में मारे जाने वालों को क्षति पूर्ति नहीं दिए जाने पर गुस्सा जाहिर किया था। अदालत को बताया गया था इनमें आधे से ज्यादा ऐसे लोग हैं जिन्हें कोई मुआवजा नहीं मिलता । 2014- 15 में बीमा कंपनियों ने मुआवजे के रूप में 11 हजार 480 करोड़ रुपया मुआवजा दिया था तब भी आधे लोग क्षतिपूर्ति पाने से वंचित रह गए थे।
     कुछ दिन पहले केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था कि भारत में हर साल 5 लाख लोग सड़क दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं जिनमें डेढ़ लाख लोग मारे जाते हैं। इतनी बड़ी संख्या हमारे समझ और संवेदनाओं को झकझोर नहीं पाती। इंसान की मौत फकत आंकड़ों में बदलकर फाइलों में दबी रह जाती है और हम यानी आम भारतीय इसे  संजोग मानकर रह जाते हैं। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि जब यह स्तंभ लिखा जा रहा होगा तो देश के किसी न किसी कोने में कोई न कोई मर रहा होगा या कोई घायल तड़प रहा होगा। जब तक इसे पढ़ा जा रहा होगा कहीं ना कहीं कोई परिवार उजड़ गया होगा। साल भर में 5 लाख लोग कम नहीं होते। इन 5 लाख लोगों से एक शहर बन सकता है। देश के एक कस्बे की आबादी होगी इतनी। यानी हर साल हम अपने देश का एक कस्बा सड़क दुर्घटनाओं की भेंट चढ़ा देते हैं। इतने लोग हमारे बीच से अचानक गुम हो जाते हैं । इनमें कुछ हमारे अपने भी होंगे।
       अब प्रश्न उठता है कि इतने हादसे होते क्यों है ?व्यवस्था या सरकार क्या कहती है? अगर किसी से जवाब मांगा जाय तो साधारण सा जवाब है कि गाड़ी चलाने वाला कोई नियम कानून नहीं मानता। हाईवे पर ट्रक चलाने वाले या तो काम के बोझ से  थके होते हैं या शराब के नशे में होते हैं और इसी के कारण  किसी को कुचल कर बैठ जाते हैं।
  दुनिया के अन्य विकसित देशों में इतनी दुर्घटनाएं नहीं होती । सरकारें अपने नागरिकों की सुरक्षा का पूरा ख्याल रखती हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2014 में इंग्लैंड में सड़क दुर्घटनाओं में 1775 मौतें हुईं जबकि 2005 में यहां तीन हजार से से ज्यादा लोग मारे गए थे। इंग्लैंड के मुकाबले अमरीका बड़ा देश है और वहां गाड़ियां भी ज्यादा हैं लेकिन वहां भी सड़क हादसों में साल में करीब 30हज़ार लोगों की मौत होती है। भारत के मुकाबले हो सकता है चीन के आंकड़े हों। लेकिन वहां के आधिकारिक आंकड़े स्पष्ट नहीं हैं। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि वहां साल में डेढ़ लाख लोग सड़क हादसे में मारे जाते हैं, लेकिन सरकार इंकार करती है।
      भारत में लोगों की जान सस्ती है।  इतने लोगों के मारे जाने के बावजूद यह कभी राजनीतिक मुद्दा नहीं बनता। सड़कें, पानी और बिजली पर हमारे देश में चुनाव लड़े जाते हैं लेकिन सड़कों पर हादसे होते हैं तो कोई ध्यान नहीं देता । इन दिनों रफ्तार पर ज्यादा जोर है। कोलकाता और हावड़ा की सड़कों पर पुलिस की ओर से एक बड़ा सार्थक नारा लिखा हुआ है- "स्पीड थ्रील्स बट किल्स।" लेकिन यह मानता कौन है ? रफ्तार की वृद्धि किसी मारक  बीमारी की तरह हो रही है। लेकिन इस विषय पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। इसके लिए हमें अपने वर्गीय चरित्र  को समझना होगा। सीवर को साफ करने में हर साल देश में तकरीबन 25 हजार लोग मारे जाते हैं । इनमें ज्यादातर मौतें खबर नहीं बनतीं।  मारे जाने वाले लोग हाड़ तोड़ मेहनत करके रोटी कमाने वाले भारतीय हैं ,खाए पिए और अघाए इंडियन नहीं है। सड़क पर कुचल कर मर जाने वाले या सीवर में घुट कर मरने वाले लोगों के जिंदगी  के दूसरे पक्ष में अहंकार के पर्वत हैं। कुछ लोगों में आर्थिक दबदबे या समाज रुतबे का दंभ है जो अक्सर सड़क पर गाड़ियां  चलाते समय अहंकार के पहाड़ से दबे रहते हैं और रफ्तार का खेल दिखाते हैं। ये लोग सड़कों पर चलते लोगों को कुचल देते हैं और वकीलों की मदद से छूट जाते हैं ।  हमारे यहां एक कहावत है कि विकसित होना है तेज चलना होगा। थॉमस टेलर की मशहूर पुस्तक" द फ़ैलेसी ऑफ स्पीड " में बड़ा सुंदर  उदाहरण दिया गया है कि " अगर जंगल में टहलते हैं तो बड़ा मनोरम लगता है पर दौड़ने लग जाएं तो पेड़ से टकरा जाएंगे घायल हो जाएंगे।" तेज रफ्तार की हवस दूसरों के पीछे छोड़ने मनोविज्ञान है और इस हवस का शिकार हो अगर कोई कुचल भी जाता है क्या फर्क पड़ता है।