ये अंदाज -ए - गुफ्तगू क्या है?
मिर्जा गालिब का बड़ा मशहूर शेर है
हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
अब तुम्हीं कहो कि ये अंदाज- ए - गुफ्तगू क्या है
न जाने 19 सदी के मध्य में हालात की कौन सी सूरत को देख कर गालिब ने शेर कहा होगा पर 21 सदी के शुरू में भारत में चुनाव के भाषणों को सुनकर लगता है यह शेर काफी मौजू है। देश में आम चुनाव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। पक्ष और प्रतिपक्ष में आरोप- प्रत्यारोप से देश की सियासत की हवा काफी गर्म हो रही है। भाषणों की धार तीखी हो गयी है। राजनीतिक दलों में बातचीत व्यक्तिगत स्तर पर उतर चुकी है। इन दिनों देश की जनता जो देख- सुन रही है वैसा कभी देखा- सुना नहीं गया। यहां कोई दूदा का धुला नहीं है, कोई निर्दोष नहीं है। लेकिन इस तरह की वार्ता िासने शुरू की उसे इससे बहुत लाभ नहीं मिलने वाला। अमरीका में जब रिपब्लिकन पार्टी ने इसी तरह का जहरीला चुनाव अभियान शुरू किया था तो मिशेल ओबामा ने कहा था कि " वे अगर नीचे गिरते हैं तो हम ऊपर उठेंगे। " दुर्भाग्यवश भारत में इसका उल्टा हो रहा है। दोनो पक्षों नीचे गिरने की होड़ लगी है। शालीनता खत्म हों चुकी है। राजनीति में कोई भी कुछ भी बोल रहा है। चुनाव के दौर में सब कुछ लगता है मुक्त है और सही है। बात प्रधानमंत्री के माता पिता और जाति से लेकर राहुल गांधी के पुरखों के गोत्र तक जा रही है। हमारे सामने ऐसे भी प्रवक्ता हैं जो खुल्लम खुल्ला कह रहे हैं कि " हिंदू जाग जाओ और मस्जिद का नाम बदल कर विष्णु मंदिर रखने की चेतावनी दे रहे हैं। " एक मुख्यमंत्री इस चुनाव को " अली बनाम बजरंग बली " की जंग करार दे रहा है। वह दिन हवा हो गये जब नये- नये विचारों की रस्साकशी हुआ करती थी और विकास की बात होती थी। अब तो तीखे शब्द ही कान में पड़ते हैं। भारत में चुनाव अब व्यक्तिगत हो गये हैं। इसका आधार आरोप हैं और दुर्भाग्यवश इसके अगुवा भी राजनीतिक दलों के नेता ही है। अतीत में अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर , इंद्रजीत गुप्ता और मनमोहन सिंह जैसे नेता विपक्षियों पर व्यक्तिगत आरोप करने से गुरेज करते थे। वे अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्दियों को व्यक्तिगत दुश्मन नहीं समझते थे। परिवार और बच्चों के बारे में कोई बात नहीं करता था। दुर्भाग्यवश आज ऐसा कुछ नहीं है। पुरालने रिवाज और शालीनता खत्म हो गयी। नेता जब विदेश जाते थे तो कभी भी घरेलू राजनीति की बात नहीं करते थे। आज चाहे वह मोद जी हों या राहुल गांधी विदेशी दौरों में एक दूसरे की खल कर आलोचना करते हैं। आज के राजनीतिज्ञ अपने विरोधियों को प्रतिद्वन्द्वी नहीं दुश्मन समझते हैं। नरेंद्र मोदी को " मौत का सौदागर ", " चायवाला " और " नीच " कहा जाता है। जबकि सोनिया गांधी का " जरसी गाय " और रालहुल गांधी को " संकर " बुलाया जा रहा है। डा. मनमोहन सिंह को पाकिस्तानी एजेंट कहा जाता है।
बहुत दिन नहीं बीता है, एक समय वह भी था कि चुनावी जंग बहुत कठिन थी पर साफ सुथरी थी। बातों में शालीनता थी। लोग एक दूसरे की प्रशंसा भी करते थे। संसद में अटल जी जवाहर लाल नेहरू की तीखी आलोचना करते थे तब नेहरू पहली बार निर्वाचित उस सांसद के भाषण की प्रशंसा करते थे। नेहरू जी ने ही कहा था कि अटल जी आगे चल के प्रधानमंत्री बनेंगे। कई साल के बालद अटल जी ने इंदिरा जी की तीखी आलोचना की पर उन्हें दुर्गा भी कहा। 1984 में ग्वालियर से जब अट ल जी चुनाटव हार गये थे। उसके बाद राजीव गांधी को पता चला कि उन्हें किडनी की बीमारी है तो उनहोंने अटल जी को एक सरकारी दौरे पर अमरीका भेजा कि वे किडनी का इलाज करा सकें। चंद्रशेखर की गांधी परिवार के नेताओं से जीवन भर लड़ाई रही लेकिन उनके आखिरी समय में जब यह पता चला वह कैंसर सी पीड़ित हैं और विदेश जाने के खिलाफ हैं तो खुद सोनिया गांध ने उनके जाकर गुजारिश की कि वे विदेश जाकर इलाज करा आयें। शायद वह समय कुछ शालीन था जब बेशक आपके प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे लेकिन आचरण में भद्रता थी। उस समय विपक्षियों का मुकाबला तो होता था पर अपशब्द नहीं कहे जाते थे। ऐसे बरबस गालिब याद आ जाते हैं कि यह अंदाज- ए - गुफ्तगू क्या है।
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