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Sunday, December 16, 2018

हमारे लोकतंत्र में यह क्या हो रहा है

हमारे लोकतंत्र में यह क्या हो रहा है

कल नुमाइश में मिला कि थोड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है

जॉन स्टूअर्ट मिल ने अपनी विख्यात पुस्तक "कंसीडरेशन ऑन रिप्रेजेंटेटिव गवर्नमेंट" में लिखा है कि लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ सरकार नहीं है बशर्ते यह आश्वस्त करे कि बहुमत किसी को भी इतना छोटा नहीं कर सकता कि वह नगण्य हो जाए। इस पुस्तक में इस तर्क का खंडन किया गया है की लोकतंत्र में बहुमत वाली सरकार के पास कुछ विशिष्ट अधिकार होते हैं, जिससे वह  राष्ट्र पर अपनी इच्छाएं थोप सकती है । लोकतंत्र में बहुमत का शासन मौलिक अधिकारों के आगे मात खा जाता है। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि मौलिक अधिकार किसी भी   धर्म जाति वर्ग या लिंग के लिए नहीं होते। इस से कोई असर नहीं पड़ता कि हम किस समुदाय के हैं या कौन सा धर्म मानते हैं या कौन सी भाषा बोलते हैं। देश का हर नागरिक राजनीतिक व्यवस्था में बराबर का हिस्सेदार होता है। संविधान के निर्माताओं ने लोकतंत्र में इस बात के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर की है । संविधान में इस मामले में संशोधन के लिए कई बार प्रयास किए गए लेकिन हर बार वे प्रयास नाकाम हो गये। आज हमारे देश में धर्म किसी के व्यक्तिगत आस्था का  मामला नहीं रह गया है बल्कि वह राजनीति के तौर तरीकों में  बदल गया है और  शासन के दावे का तंत्र बन गया है। हालांकि शुरू से ही कुछ बड़े नेता अल्पसंख्यकों को आश्वस्त करते आए हैं कि उनके साथ भेदभाव नहीं बरता जाएगा। ऐसा कभी नहीं होगा। लेकिन दक्षिणपंथी समुदाय या राजनीतिक दल बार बार कहते हैं कि धार्मिक बहुसंख्यक समुदाय को भारत पर शासन का स्वाभाविक अधिकार है। इस बात ने सामूहिक राजनीतिक परिकल्पना के किनारे एक गंभीर अंधेरा खड़ा कर दिया है। शुरू से ही इस विचार को हवा दी जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने बारंबार कहा है कि समानता संविधान का अनिवार्य आधार है। समानता मूल सिद्धांत है। इसमें किसी भी नागरिक के  धर्म को नहीं देखा जाता। भारत में संवैधानिक रूप से किसी भी धर्म में भेदभाव की इजाजत नहीं है ,लेकिन आज आमला पूरी तरह उल्टा हो गया है ।सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था को खुल्लम खुल्ला अमान्य कर दिया जा रहा है।
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अंधेरा है देख तू आकाश के तारे ना देख
भाजपा या जो भी बहुमत वाला शासक दल है वह अपने सिद्धांत और वैचारिक बातों का ढोल पीटता है। हिंदुत्व ब्रिगेड के कैडर्स लोगों को डराने धमकाने में लगे हैं। हमारे लोकतंत्र की नीव हिल रही है । सबरीमाला और अयोध्या मामले में दक्षिणपंथी नेताओं के बयान पर गौर करें । लोगों में उन्माद और भावात्मक आवेग पैदा करने के लिए ऐसे भाषण दिए गए जो अविश्वसनीय हैं। आम चुनाव जल्दी होने वाला है और इससे ऐसा लगता है कि आगे चुनाव अभियान में धर्म को वरीयता दी जाएगी। प्रधानमंत्री , जिनसे उम्मीद की जाती है कि वह देश के सभी नागरिकों के लिए सोचें , उनके हितों के लिए काम करें वह चुप हैं। ऐसी बात नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास बोलने के लिए कुछ नहीं है, लेकिन वह उन शब्दों की तलाश नहीं कर पा रहे हैं जिससे इन कृत्यों की निंदा की जा सके।
अब नई तहजीब के पेशे नजर हम
आदमी को भूल कर खाने लगे हैं
       आज का भारत एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। एक तरफ सत्तारूढ़ दल ने देश में नोट बंदी और जीएसटी के बाद उत्पन्न दुरावस्था को देखा है, विश्वविद्यालयों में  लोगों को तंग किया जा रहा है, संस्थाओं को बदरंग किया जा रहा है ,मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है, पब्लिक लिंचिंग को मंजूरी मिल रही है और अब एक पुलिसकर्मी की हत्या पर व्यवस्था चुप है। यह सब क्या हो रहा है । अच्छे दिन की बात खत्म हो चुकी है। आर्थिक विकास ,रोजगार, कृषि विकास ,बैंकों में रुपए और सुशासन की बात ताक पर रख दी गई है। आज ऐसा लग रहा है कि धर्म राजनीति का सबसे बड़ा आधार है। दूसरी तरफ कांग्रेस चुप खड़ी है। यह महात्मा गांधी की विरासत है, नेहरू की विरासत है ,लोगों को यह उम्मीद है कि वह संवैधानिक लोकतंत्र पर कायम होगी। लोगों के दिल में यह कहकर जगह बनाएगी कि संघ के संविधान में लोकतंत्र के जो सिद्धांत हैं उनकी  वह पुनर्स्थापना करेगी। इसे  दूसरे स्वतंत्रता आंदोलन का आह्वान करना चाहिए । लेकिन कांग्रेस ने भाजपा के रास्ते पर ही चलना शुरू किया है। इसके नेता तिलक लगा रहे हैं ,मंदिर जा रहे हैं ,गोत्र बताते फिर रहे हैं। कांग्रेस के पास कोई पृथक सिद्धांत नहीं है। वैचारिक रूप से उसकी झोली खाली है। वह नेहरू के उदाहरणों को भूल गई है। बंटवारे के वक्त जो दंगे हो रहे थे नेहरू वहां मौजूद थे । वह पंजाब और दिल्ली में दंगों के दौरान लोगों को यह समझा रहे थे कि वे हिंसा से बाज आएं। वह मुसलमानों को सुरक्षा का वादा कर रहे थे और भारतीयों को एक दूसरे से बचा रहे थे। आज उसी  पार्टी को भारतीयों के अधिकारों के रक्षक के रूप में खड़े होने में शर्म आ रही है।
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें ना देख
        क्षेत्रीय दलों को देश के लिए सही राजनीतिक संगठन माना जा रहा है। जबकि अधिकांश क्षेत्रीय नेता या उनके वारिस अपने राज्यों को अपने राज की तरह मानते हैं। राजनीतिक रचनात्मकता समाप्त हो चुकी है। नई राह की तलाश बंद हो चुकी है और यह विश्वास कि लोकतंत्र प्रतिनिधि मूलक हो, किसी का अधिकार छीना ना जा सके ,वह समाप्त हो रहा है। आज हमारे देशवासी चुनावी भाषणों से भावनात्मक रूप में सम्मोहित किए जा रहे हैं ,लेकिन उसमें  गरीब किसानों असुरक्षित मजदूरों और लगातार अप्रासंगिक हो रहे अल्पसंख्यकों तथा दलितों की पीड़ा  नहीं देखी जा रही है ।
अब किसी को भी नजर नहीं आती कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार
चुनाव लोगों को राजनीतिक अजंडे पर विचार विमर्श का मौका भी देता है और स्वतंत्र चयन का अधिकार भी। आने वाले चुनाव की सबसे बड़ी बात है कि इसमें चयन की स्वतंत्रता के प्रति निराशा दिख रही है।
यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहां  किस तरह जलसा हुआ होगा

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