बदला - बदला सा माहौल लगता है
चुनाव के जो भी परिणाम निकलने वाले थे और उन परिणामों का जो भी आरंभिक प्रभाव होने वाला था वह सब हो चुका। सरकारें बन गई और नए समीकरण तय हो गये। लेकिन यहां एक प्रश्न उठता है कि चुनाव जीतने के लिए क्या होना चाहिए? क्या सचमुच महंगाई कम या फिर महंगाई की दर 8% के आसपास हो और खाने-पीने की का सामान तेजी से महँगा होता जाय। वह बहुत ज्यादा कीमती हो जाए। देश के हर समझदार लोगों ने हर चुनाव में देखा है कि महंगाई एक मसला होती है और उसी को लेकर हर राजनीतिक दल कुछ ना कुछ करता है। लेकिन क्या महंगाई या फिर कहे कि बाजार की सस्ती चुनाव जीतने का फार्मूला है। संभवत नहीं ? क्योंकि इस बार पिछले हफ्ते जो परिणाम सामने आए हैं उससे तो कम से कम ऐसा नहीं लगता।
महंगाई की जो कम दर इस बार थी वह मनमोहन सरकार के पहले कार्यकाल में भी नहीं थी । मनमोहन सरकार के पहले दौर के आखिरी साल में महंगाई की दर 10% थी। लेकिन 2009 में जो चुनाव हुए उसमें यह 10% का रोड़ा नहीं अटका। लेकिन, इस बार राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में महंगाई की दर पहले से बहुत कम है अलबत्ता खाने पीने की चीजें कभी कभी महंगी हो जा रही हैं दालों का ही उदाहरण लें कुछ साल पहले दालों की जो कीमत थी उसकी तुलना में कीमत आज बहुत कम है ,लेकिन तब भी देखा जा रहा है कि ग्रामीण भारत वर्तमान सरकार से नाराज है या कहें कुपित है आखिर क्यों इसका उत्तर भी बहुत आसान है । एक बार कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष राहुल गांधी ने किसी गरीब की झोपड़ी में खाना खा लिया था और वह खबर बन गई थी, कि कांग्रेसी नेता ने गरीब की झोपड़ी में खाना खाया । पर ,किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया के यह नेता वैसे किसी दिन की कल्पना क्यों नहीं करते जब गरीब एक बड़े नेता की हैसियत का खाना खा ले । वह नहीं खा सकता क्योंकि उसकी आमदनी इतनी कम है कि वह खाने की बहुत जरूरी चीजें ही खरीद सकता है और उस पर अगर महंगाई बढ़ जाए तो यानी सबसे जरूरी है आमदनी का बढ़ना। जब तक आपकी आमदनी बढ़ती रहेगी तो महंगाई का असर पता नहीं चलेगा। जिस दिन आमदनी का बढ़ना रुक गया या आमदनी ही रुक गई तो महंगाई का असर दिखने लगता है आज हालात यह है कि गांव की आमदनी या तो रुक गई है या जितनी पहले थी उतनी पर जमी हुई है। इसलिए कम कीमतों के बावजूद गांव के लोग हताश निराश हैं। लिहाजा क्रोध बढ़ता जा रहा है । आंकड़े बताते हैं कि खाने पीने की वस्तुओं की औसत सालाना वृद्धि का सूचकांक 2 . 75% था । जबकि कृषि आय मैं वृद्धि 0. 76 प्रतिशत रहा जबकि इसकी तुलना में यूपीए सरकार में 5 साल के दौर में थोक मूल्य सूचकांक 12.26% और कृषि आय में वृद्धि 11.04% पर पहुंच गई थी। इस आंकड़े से पता चलता है कि 2014 -15 में या उसके बाद कृषि और गैर कृषि व्यवसाय ओं में ग्रामीण वेतन वृद्धि कम है ।सामान्य तौर पर करीब 5.2% जबकि इसमें वृद्धि ज्यादा हुआ करती थी हालांकि ग्रामीण उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 4.9% की वृद्धि रही है। निश्चय ही यह थोड़ा ज्यादा है लेकिन इसी से इन्हीं आंकड़ों से पता चलता है कि ग्रामीण वेतन में स्थिरता आ गई है जो किसान या व्यक्ति 4 साल पहले जितना कमाता था आज भी वही कमा रहा है। वेतन का बढ़ना रुक गया है या नहीं ग्रामीण आए घट गई है ।2014 फिर लोकसभा चुनाव की तुलना में यह गिरावट बहुत ज्यादा हो जाती है। गुजरात विधानसभा चुनाव में जो ट्रेंड देखी थी वह यहां भी जारी है यहां उत्तर भी इन्हीं प्रश्नों में जुड़ा है आज ग्रामीण भारत में भाजपा फकत 43% जीत सकी है यहां एक निष्कर्ष प्राप्त होता है लेकिन एक सवाल भी उठता है कि अगर गांव में ही गुस्सा कायम रहा तो भाजपा की स्थिति क्या होगी? हाल के इतिहास की बात देखें यानी 2014 के चुनाव के नतीजे तो पता चलेगा कि भाजपा ने ग्रामीण भारत की अधिकांश सीटें जीत ली थी। उसे ग्रामीण भारत मैं 178 पर जीत हासिल हुई थी लेकिन 2018 के चुनाव मैं लक्षण बदला हुआ था ।2019 में अगर भाजपा और कांग्रेस बराबरी पर आ जाएं तो खेल के नतीजे बदल सकते हैं। वैसे हर चुनाव अलग -अलग होते हैं और उन पर विभिन्न तरह के भावुक दबाव काम करते हैं अब अगर विधानसभा वाला ही ट्रेंड रहा तो सत्ताधारी दल के लिए या बहुत सकारात्मक नहीं है। वह हार भी सकती है बशर्ते चुनाव के दौरान कोई नाटकीय परिवर्तन ना आ जाए।
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