क्या हुआ गठबंधन धर्म का?
जब अटल बिहारी बाजपेई प्रधान मंत्री हुआ करते थे तो वे गठबंधन धर्म की लगातार वकालत करते थे और यह बताना चाहते थे इसका पालन जरूरी है। परंतु इन दिनों बात कुछ दूसरी दिख रही है। भाजपा के सहयोगी दल इन दिनों तनाव में हैं। उन्हें लगता है कि भाजपा गठबंधन को धर्म सही रूप में नहीं निभा पा रही है । ऐसा महसूस होता है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह द्वारा तैयार गठबंधन की कसौटी कुछ अलग है। वह सहयोगी दलों को अपने विस्तार का औजार मानने लगे हैं। यह रिश्ता बड़ा अजीब लग रहा है । पहले भाजपा कहती थी गठबंधन का धर्म निभाना जरूरी है, आज वह धर्म से परे दिखती है। राजनीतिक मनोविज्ञान के आचरण के सिद्धांतों अगर मानें तो गठबंधन के लिए जरूरी होता है कि खुद को बराबर का पार्टनर ना समझें और साथी दलों को अहमियत दें। लेकिन इन दिनों भाजपा ऐसा नहीं कर रही है। इसके लिए चंद्रबाबू नायडू का उदाहरण ही पर्याप्त है। नायडू को यह उम्मीद थी कि भाजपा उन्हें महत्त्व देगी, सलाह मशविरा करेगी। आंध्र प्रदेश के लिए जब उन्होंने पैकेज मांगा और उस पर अड़ने लगे तो भाजपा ने बेरुखी दिखानी शुरू कर दी। नायडू को देर से यह बात समझ में आई। तनाव बढ़ गया और नतीजा हुआ उन्हें एनडीए छोड़ना पड़ा। शिव सेना को भी कभी यही भ्रम था कि भाजपा उन्हें महत्व देगी और वरिष्ठ सहयोगी मानेगी। लेकिन भाजपा को तो सहयोग नहीं हथियार की जरूरत थी इलेक्शन जीतने के लिए । यही कारण है शिव सेना का भी गठबंधन से तनाव बढ़ गया। जो लोग खबरों पर निगाह रखते हैं उन्होंने देखा होगा शिवसेना ने काफी बागी तेवर दिखाए पर भाजपा पर कोई असर नहीं हुआ । हालांकि उसे मालूम है कि 2014 वाली हवा अब नहीं है और शिवसेना के सहयोग के बिना महाराष्ट्र में उसका झंडा नहीं लहराएगा। महाराष्ट्र के राजनीतिक समीकरण को देखें तो उसके प्रचंड विरोधी कांग्रेस और एनसीपी का गठबंधन ठीक-ठाक दिखाई पड़ रहा है और अगर वह शिवसेना का साथ छोड़ देती है तो बदली फिजां में उसका भला नहीं होगा। नायडू के अलग होने के बाद यह भाजपा के लिए बहुत बड़ा रिक्स था यही कारण है की भाजपा गठबंधन बचाने में लगी है। जो लोग यह समझते हैं उद्धव ठाकरे सारी बातें भूल कर भाजपा पर भरोसा करने लगे हैं वह सही नहीं हैं। उद्धव की मांग साफ है या कहें लक्ष्य साफ है कि लोकसभा में दो एक सांसद की कमी बेशी को मान लेंगे पर विधानसभा में स्पष्ट है कि सीएम शिवसेना का ही होना चाहिए। समझौता इसी शर्त पर हुआ है। उद्धव भाजपा को लगातार आंखें दिखा रहे हैं। जाहिर है कि भाजपा इसे पसंद नहीं कर रही है।
भाजपा ने महबूबा मुफ्ती के साथ जो सलूक किया उसे तो पूरे देश ने देखा। कश्मीर में भाजपा ने महबूबा मुफ्ती के दल पीडीपी के साथ जो गठबंधन किया था वह बिल्कुल बेमेल था ।दूसरी बात कि इस राज्य में जो समस्याएं हैं और जो चुनौतियां हैं उनसे निपटने के लिए भाजपा के पास कोई योजना ही नहीं थी। भाजपा के लिए कश्मीर बस एक प्रयोगशाला थी या कहें कि अभ्यास का स्थल था। इसलिए आम चुनाव के पहले भाजपा ने यह चाल चली और वह गठबंधन से बाहर हो गई । चूंकि , भाजपा का मूल नारा हिंदुत्व और राष्ट्रवाद है। कश्मीर में दोनों के दोनों ढीले हैं ।उधर भाजपा को भय था कि इस गठबंधन के कारण हिंदुत्व और राष्ट्रवाद दोनों चौसर पर पासे गलत ना पड़ जाएं इसलिए राज धर्म या गठबंधन धर्म की वर्जिश क्यों की जाए ? 2019 में चुनाव जीतने के लिए महबूबा मुफ्ती की कुर्बानी कोई महंगी नहीं लगी। अब अगर भाजपा के सहयोगी दलों की सूची देखें तो पाएंगे बड़ी पार्टियों में से केवल शिरोमणि अकाली दल ही ऐसी पार्टी है जिस से अभी बात नहीं बिगड़ी है लेकिन गठबंधन में वह जोश नहीं है । कुछ महीने पहले अकाली दल के नेता नरेश गुजराल यह कहते हुए सुने गए थे कि भाजपा को अपने सहयोगी दलों के साथ सम्मान का व्यवहार करना चाहिए। उसके क्षेत्र में घुसपैठ करना गलत है। अगर देखें तो पाएंगे कि भाजपा शुरू से ही बड़ी सहयोगी पार्टियों को कम महत्व देती है और उसकी जगह छोटी-छोटी पार्टियों को जमा कर लेती है। इन्हें मैनेज करना सरल है । लेकिन इस बार बात नहीं बनी। बिहार में उपेंद्र कुशवाहा और यूपी में ओमप्रकाश राजभर भाजपा से लगातार नाराज दिख रहे हैं । कुशवाहा तो लगता है कि 2019 में भाजपा के साथ नहीं रहेंगे । लेकिन अभी ऐसा कहना आसान नहीं है। एनडीए में फिलहाल 40 ज्यादा पार्टियां हैं लेकिन बहुमत केवल भाजपा के पास है इसलिए ये पार्टियां एक तरह से सजावट का सामान हैं। तमिलनाडु में एआईएडीएमके के साथ बस कामचलाऊ रिश्ता है। वहां छोटी पार्टियों को भंग करने के लिए रजनीकांत को भाजपा हथियार बना रही है। भाजपा का इरादा यह है कि किसी भी दल को पच्चीस तीस सीटें भी ना मिलें। ऐसे में वे मोलभाव करने के मामले में कमजोर पड़ जाएंगी। तेलंगाना में केसीआर पर भाजपा निशाना लगा रही है लेकिन उसके कुछ कद्दावर नेता फंस नहीं रहे हैं। बंगाल में ममता बनर्जी, उड़ीसा में नवीन पटनायक और कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला भाजपा के जाल में नहीं आ रहे हैं सब के सब अपने तेवर तीखे किए हुए हैं। बिहार में नीतीश कुमार से जो संबंध है उसकी पोल खुल चुकी है। दोनों में सावधानी ज्यादा नजर आती है। दोनों एक एक कदम फूंक फूंक कर रख रहे हैं। यही नहीं जरा उनको भी देखें जो भाजपा में थे या शामिल हुए थे वह क्या कर रहे हैं। अब जैसे महाराष्ट्र में नारायण राणे वह कई पार्टियों में चक्कर लगाकर भाजपा में पहुंचे। कोई पद नहीं मिला अब हताश बैठे हैं। उड़ीसा में बीजद के दो नेता दिलीप रे, विजय महापात्र भाजपा में आए और चले गए। बेशक राष्ट्रीय स्तर पर यह बड़े नेता नहीं हैं लेकिन राज्य स्तर पर तो यह पहली पंक्ति के नेता हैं। भाजपा में प्रवेश के लिए जो भगदड़ मची थी या कहे जो एक तरफा ट्रैफिक चल रहा था वह थम गया है और उल्टा होने लगा है। अभी राजस्थान में और मध्य प्रदेश में भाजपा के कई मध्यम स्तरीय नेता कांग्रेस में शामिल हो गए। जसवंत सिंह के पुत्र मानवेंद्र, नवजोत सिंह सिद्धू और कीर्ति आजाद का किस्सा सबको याद होगा।
भाजपा के कुछ पुराने नेताओं को भी देखें। मसलन, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और शत्रुघ्न सिन्हा। इनको नया नेतृत्व रास नहीं आया। भाजपा को हमेशा समस्या राजनीतिक विचार वाले लोगों से रही है । राजनीतिक विचार के नेता दो तरह के होते हैं । पहला वह जिनके पास बहुत वोट हों, अपना जनाधार हो। दूसरा वह जो भाजपा के नेतृत्व से तर्क करते हैं या मतांतर रखते हैं । यहां एक बात महत्वपूर्ण है कि गठबंधन के धर्म को साधने के लिए लोकतांत्रिक मेधा की जरूरत होती है भाजपा में इसका प्रचंड अभाव है।
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