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Tuesday, December 25, 2018

कृषि नीति में सुधार के बिना कुछ नहीं होगा 

कृषि नीति में सुधार के बिना कुछ नहीं होगा

राहुल गांधी ने किसानों का मसला उठाकर कहने को तो सरकार को झकझोर दिया है और इसी की लहर पर सवार होकर उन्होंने 3 विधानसभाओं में चुनाव में जीत लिए। अब उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दी है कि जब तक वे सभी किसानों के कर्ज माफ नहीं कर देंगे तब तक उन्हें चैन से सोने नहीं देंगे। लेकिन अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सचमुच देश का हित चाहते हैं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास चाहते हैं तो वे बेशक नींद त्याग दें लेकिन किसानों के कर्ज माफ ना करें । क्योंकि यह मांग देश के लिए विशेषकर देश की अर्थव्यवस्था के लिए और खुद किसानों के लिए बेहद घातक है । राजनीतिक प्रवृतियां आमतौर पर पुरानी हिंदी फिल्मों की तरह  होती हैं। जिस तरह फिल्मों में कहावतें- डायलॉग ज्यादा पसंद किए जाते हैं उसी तरह भारत की राजनीति में भी होता है। फिल्मों में खलनायक हमेशा बुरा होता है और मां की आंखें आंसुओं से भरी होती हैं और किसान सदा से गरीब ही रहे हैं । यहां तक कि हमारे पूर्वज कवि- लेखक भी कह गए हैं कि "भारत माता ग्रामवासिनी" और उसके बाद पंच परमेश्वर का होरी और उसके बैलों की जोड़ी का जिक्र है । होरी की  गुरबत का जिक्र है। यकीनन किसानों को हमारी सहानुभूति चाहिए और टैक्स देने वालों के पैसे भी । लेकिन जरा सोचिए अगर आप शहर में मजदूरी करते हैं और कम कमाते हैं या किसी निजी स्कूल में संघर्षरत शिक्षक हैं तब भी आपको कर्ज माफी की बात करने का अधिकार नहीं है। अगर आप ने कुछ बंधक रखा हुआ है और ई एम आई नहीं दे पाते हैं तब भी  बैंक या सरकार से यह उम्मीद मत कीजिए कि वह कर्ज माफ कर दे । यहां तक कि आप लघु या सूक्ष्म उद्योग  उत्पादक है तब भी राजनीतिज्ञों को आप जैसे लोगों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। अब किसानों का मामला देखिए । अगर आप  किसान हैं तो रोनी सूरत बनाए रखें और चेक हासिल कीजिए। भारत में किस तरह राजनीतिज्ञों ने किसानों के दुख और विपत्ति  का यह बवाल खड़ा कर उसे दैत्य बना दिया है। हमारे पाठकों में से बहुतों को 1960 का वह मंजर याद होगा जब देश में अनाज की किल्लत थी और लगातार दो बार अकाल पड़े थे। अमरीका से अनाज आता और देश के अधिकांश लोगों का पेट पालता था। 1950 के दशक में कृषि पर ध्यान नहीं देने का नतीजा था यह। क्योंकि, वह उद्योगी करण का युग चल रहा था किसानों को मदद करने की किसी  भी तरह की कोई बात करने वाले को दक्षिणपंथी या प्रतिक्रियावादी कहा जाता था। सोवियत मॉडल की औद्योगिक नीति अपनाने का नतीजा रूसी शैली  की कृषि विपत्ति भी आ गई। इसके बाद हरित क्रांति आरंभ हुई। ज्यादा उत्पादन करने वाले बीज बनाए गए या बाहर से मंगाए गए और सब्सिडी की गारंटी दी गई ताकि किसान ज्यादा उत्पादन कर सकें और बाजार में भेज सकें। वामपंथी पार्टियों ने कहा हरित क्रांति असफल होगी और उसके बाद "लाल आंदोलन" आरंभ होगा। क्योंकि हरित क्रांति में बड़े किसानों को मदद मिलती है और केवल गेहूं उत्पादक ही लाभ पाते हैं ।इससे असमानता बढ़ेगी और भारत के गांव आंदोलन से धधकने लगेंगे। लेकिन जैसा आमतौर पर होता है इस तरह की बड़ी-बड़ी बातें नाकाम हो जाती हैं वामपंथ की यह बात भी व्यर्थ हो गई । दूसरी तरफ हरित क्रांति की असफलता से जो सबक मिला उससे सरकार सीख नहीं पाई । कृषि  निजी क्षेत्र का सबसे बड़ा उद्योग था और सदियों के बाद यह मुनाफा देने लगा था।  निजी उद्योग के लिए जो मदद और विशेषज्ञता चाहिए वह कृषि में नहीं हो सकी ताकि शहरों से गांव में नौजवान मजदूर आ सकें। दुनिया का हर विकसित देश इसी राह पर चलकर विकसित हुआ है। भारत ने भी 70 के दशक के मध्य में इस पर चलना शुरू किया था लेकिन काश वह इस पर चलता रहा होता।  देश में जो भी सरकार आई उसने मशीन से उत्पादन तथा निजी क्षेत्र के प्रति संदेह खुद जारी रखा । इंदिरा जी ने निजी क्षेत्र पर संदेह जाहिर किया और उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया ,यही नहीं कई निजी उद्योगों का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया । एक जमाने में भारत का कपड़ा उद्योग विश्व विख्यात था । वह ट्रेड यूनियन के चलते बर्बाद हो गया । बंगाल का जूट उद्योग खत्म हो गया। सारी मिले बंद हो गईं और उसके बाद सब देख रहे हैं कि मुंबई या कोलकाता लग्जरी अपार्टमेंट्स और शॉपिंग मॉल से भर गए। एक वक्त में जहां मजदूर रहते थे और मिलों के सायरन उनकी घड़ियां थीं आज वहां चमकते मॉल हैं या बहुमंजिला फ्लैट्स। रोजगार समस्या हो गई और दो तिहाई भारत गांव में जमा हो गया। जहां  नौकरी नहीं थी ,रोजगार नहीं थे और ना पिछले 40 वर्षों से जिसके लिए कोई योजना थी। आज के गांव पुरानी हिंदी फिल्मों के गरीब खांसते किसान की तरह हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी यब एक खांसता हुआ मरीज है।  देश के राजकोष से  उसे ऋण माफी की अफीम खिलाई जाती है ताकि उसकी पिनक में वह कुछ देर के लिए अपना दुःख भूल जाये। लेकिन जैसे ही वह नशा उतरता है वह फिर बीमार पड़ जाता है यही नहीं उसकी बीमारी और बढ़ जाती है। आज गांव के सारे गावों के हालात बिगड़ते बिगड़ते एक ऐसी जगह पहुंच गये हैं जहां यदि उनमें सुधार ना लाया गया तो पूरी व्यवस्था चौपट हो जाएगी।  उसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि कृषि को उत्पादक बनाया जाए। जिससे उस में रोजगार मिल सके और इसके लिए कर्ज माफी कोई उपचार नहीं है। सबसे पहला उपचार होगा कि पूरी व्यवस्था को सुधारा जाए जिससे कर्ज माफी की जरूरत ही ना पड़े।
    अगर ऐसा नहीं होता है या कहीं ऐसा नहीं किया जाता है तो पहले गांव और उसके बाद शहर भयंकर दरिद्रता की चपेट में आ जाएंगे।  जो अराजकता बढ़ेगी वह सरकार संभाल नहीं पाएगी ।क्योंकि, भूखा इंसान कुछ भी कर सकता है। पेट नहीं भरने की सूरत में उद्योगों का विकास कैसे होगा यह भी एक समस्या है। सरकार को मूलभूत समस्या पर ध्यान देना चाहिए ना कि राहुल गांधी जैसे नौसिखए राजनीतिज्ञ की बात सुननी चाहिए।

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