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Wednesday, December 26, 2018

राम मंदिर  का बहुत असर  नहीं होगा 

राम मंदिर  का बहुत असर  नहीं होगा 

लोकसभा चुनाव की सरगर्मियां शुरू हो गई हैं और ऐसे मौके पर एक सवाल पूछा जा रहा है कि राम मंदिर मामले को तूल देने का चुनाव पर क्या असर हो सकता है । उत्तर एक ही हो सकता है कि यह समर्थकों को एकत्र करने का एक तरीका तो जरूर है लेकिन इससे किसी तरह का फैसला होता हुआ नजर नहीं आ रहा है। दूसरे कि समय के साथ इसका प्रभाव घटता जा रहा है। भारत इस समय बाजार की अर्थव्यवस्था के शिकंजे में है और विज्ञापनों के माध्यम से एक प्रकार की उपभोक्ता संस्कृति का जन्म हुआ है। अगर मतदाताओं से पूछा जाए कि क्या चाहते हैं तो वह  कहेंगे कि रोजगार जिससे  हम अपनी जरूरत के सामान खरीद सकें , भोजन कर सकें तथा उन चीजों का अर्जन कर सकें जिनके लिए हम तरस रहे हैं। बहुत कम लोग कहेंगे -अगर कहते हैं तब भी- कि वह अयोध्या में राम मंदिर चाहते हैं। इसका यह अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने मंदिर की  इच्छा छोड़ दी है या अयोध्या में किसी राम मंदिर में पूजा करना नहीं चाहते बल्कि इसका यह अर्थ है कि मंदिर सर्वोच्च प्राथमिकता में शामिल नहीं है। मंदिर बने तो बहुत अच्छा लेकिन अगर नहीं बनता है तो इससे जीवन प्रभावित नहीं होने वाला।
      यह आश्चर्यजनक नहीं है अगर कहें कि जब से पूंजीवाद का विकास हुआ और इंसान के व्यक्तिगत उपभोग पर आर्थिक गतिविधियों का प्रभाव शुरू हुआ तब से धर्म का प्रभाव कम होने लगा। ब्रिटिश इतिहासकार आर एच टोनवे ने अपनी पुस्तक "धर्म और पूंजीवाद का विकास" में लिखा है "जब16वीं शताब्दी में सुधार का युग  आरंभ हुआ तब तक धन प्रभावशाली नहीं था और आध्यात्मिकता का प्रभाव सबसे ज्यादा था। जो धार्मिक सिद्धांतवादी थे उनकी अपील सर्वमान्य थी। अर्थव्यवस्था का कोई वर्चस्व नहीं था। उपभोक्तावाद समाज में त्याज्य था चर्च ही समाज के नियम तय करता था और कई बार तो वह शासन को हुक्म  भी देता था। 17 वीं शताब्दी में नाटकीय रूप से यह सब बदल गया। सुधारवादी आंदोलन चला और ईसाइयत विभाजित हो  गई । चर्च का अधिकार घट गया। समाज धर्मनिरपेक्षता की ओर बढ़ने लगा तथा सामाजिक अनुबंध को मान्यता मिली, ना कि सम्राट के दैविक अधिकार को ।चर्च तथा नई सामाजिक आर्थिक  शक्तियों और सुधारवादियों में संघर्ष शुरू हो गया और अंत में समझौते से सब कुछ तय हुआ। समझौते के मुताबिक राजनीति ,व्यवसाय और धार्मिक गतिविधि सबका पृथक महत्व है और सब का अस्तित्व पृथक रहेगा और सबके अपने अपने नियम कायदे रहेंगे और वैसी स्थिति में वही मान्य होगा।" इंसानी हस्तक्षेप ऐतिहासिक प्रबंधों की सक्रियता को सीमित करता है। जबकि आर्थिक विकास के डायनामिक्स समाज और संस्कृति को प्रभावित करते हैं। इसलिए धर्म और अर्थव्यवस्था समानांतर है। उनके बीच कोई अवरोध नहीं है भारत में भी यही प्रक्रिया है और यही कारण है कि सामाजिक गतिविधियों में अर्थव्यवस्था का प्रभाव बढ़ता जा रहा है और धर्म अपनी अलग प्रमुखता लिए किनारे खड़ा है ।धर्म का वर्चस्व सामाजिक गतिविधियों में सीमित है, संपूर्ण नहीं है ।
         कुछ लोग तर्क दे सकते हैं श्रीराम मंदिर या और हिंदुत्व की अपील घटी नहीं है। मंदिर के चाहने वाला और मंदिर आंदोलन से जुड़े लोगों की संख्या इसका गवाह है।  यह तर्क बहुत ताकतवर नहीं है क्योंकि भय भी एक तरह का शस्त्र है। सुरक्षा और स्वतंत्रता का भय सबसे बड़ा तंत्र है उग्र आंदोलनों में लोगों को आकर्षित करने का। जब से लोग पैदा लेते हैं और जवान होते हैं तथा जीवन यापन के रास्ते पर निकल पड़ते हैं हरदम उनके जीवन में कोई ना कोई भय बना रहता है। इस पर विजय का एकमात्र साधन है स्नेह और कार्य द्वारा भावुक तथा बौद्धिक  अभिव्यक्ति । बहुत से लोग ऐसा नहीं कर पाते वे अपने भय पर विजय नहीं प्राप्त कर पाते  ,या सुरक्षा पर विजय नहीं प्राप्त कर पाते हैं और एक प्रभुत्व संपन्न व्यक्ति या संस्था के समक्ष घुटने टेक देते हैं। वे इससे सुरक्षा महसूस करते हैं । इसका मूल इस बात में है कि कौन कितने लोगों की भावनाओं पर काबू कर सकता है और उन्हें सुरक्षा का भरोसा दिला सकता है । अगर आप भय के मनोविज्ञान का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे यह आदमी की बुनियादी जरूरतों से पैदा होता है और कमजोर ना कहे जाने के भाव के कारण टिका रहता है। मनोविज्ञान के अनुसार एक सामूहिक आंदोलन या जन आंदोलन किसी चिंता अकेलापन और अस्तित्व की बेचारगी के कारण आत्मसमर्पण है । ऐसे आंदोलनों से कुंठा कम होती है और एक उम्मीद बढ़ती है। दिल से वह व्यक्ति अपने जीवन में मौजूद दुखों से थोड़ी देर के लिए मुक्त हो जाता है । जो लोग अयोध्या में राम मंदिर बनाने के समर्थक हैं उनके बीच बेशक हिंदुत्व का एक बंधन है लेकिन इससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि इतने लोग मंदिर बनाने के लिए एकत्र क्यों हो रहे हैं? हिंदुओं की बहुत बड़ी संख्या इस आंदोलन से जुड़ी नहीं है कुछ लोग इसके विरोधी भी हैं। क्योंकि उनके मन में डर है कि इससे सांप्रदायिक तनाव पैदा होगा जिससे हिंसा भड़केगी तथा कई लोग तो हिंदू होने के बावजूद इस बात से भी डरते हैं कहीं ऐसे आंदोलनों के बाद जाति वर्ण और भाषा को लेकर नया बवाल न खड़ा हो जाए। अगर राम मंदिर का मसला लोगों को आकर्षित करता है तो यह भी  विकर्षित भी करता है। यह एक समुदाय को अगर समाहित करता है तो उन्हें विभाजित भी करता है। कुल मिलाकर राजनीतिक  और चुनावी  वातावरण के लिए राम मंदिर बहुत महत्वपूर्ण और संवेदनशील मसला नहीं है। जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने हाल में कोलकाता में कहा था कि कोई भी सरकार राम मंदिर बना ही नहीं सकती है। बेशक, कोर्ट का फैसला उसे पक्ष में भी आ जाए तब भी। क्योंकि, जैसे ही कोई सरकार बनती है वह संविधान की शपथ लेती है और हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है वह मंदिर बनाने की इजाजत या मस्जिद बनाने की इजाजत नहीं देता। हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव इसके उदाहरण हैं लोकसभा चुनाव में इसका क्या असर होगा इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।

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