ख़बरें हमें बीमार भी कर रही हैं
अगर कोई कहे कि आपके भीतर का तनाव देश के राजनीतिक भविष्य को भी प्रभावित कर सकता है तो आप खिलखिला कर हंस पड़ेंगे। आखिरकार हम भारतीय अपने दिमागी स्वास्थ्य पर बहुत ध्यान नहीं देते जबकि इस बात की पूरी उम्मीद है कि हम देश की राजनीतिक दिशा को लेकर उस तनाव में जरूर रहते हैं। यह तनाव हमें हानि भी पहुंचा सकता है। यह भी संभावना है कि 2019 के चुनाव में हम मत डालने से विमुख हो जाएं। देश में इन दिनों ज्यादा राजनीतिक ध्रुवीकरण होता देखा जा रहा है और हर ध्रुव पर खड़े लोग चिंतित भी दिखाई पड़ रहे हैं । अगर हम विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह गड़बड़ी उन लोगों के साथ ज्यादा हो रही है जिनके पास मोबाइल फोन हैं और उसमें सोशल मीडिया चलता हो ,क्योंकि इससे इधर-उधर की खबरें बहुत ज्यादा मिलती हैं। यह एक तरह की मानसिक बीमारी है । मनोवैज्ञानिकों ने इसे "इलेक्शन स्ट्रेस डिसऑर्डर"का नाम दिया है। अमरीकी साइक्लोजिकल एसोसिएशन ने 2016 के अक्टूबर में एक सर्वे किया था। जिसके अनुसार सत्तावन प्रतिशत अमीरीकी अपने देश के राजनीतिक वातावरण को गंभीर तनाव का कारण बता रहे थे। वॉशिंगटन पोस्ट और ए बी सी न्यूज़ के एक सर्वे में देखा गया था कि 69% अमरीकी अपने देश के राजनीतिक वातावरण से चिंतित हैं और इस बात से बहुत ज्यादा चिंतित हैं कि डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति होने जा रहे हैं।
हालांकि हम भारतीय अमरीकियों की तरह चुनाव को लेकर इतने तनाव में नहीं हैं। चूंकि, अलगाववादी राजनीति के मामले में हमारे देश का अपना एक ब्रांड है। अब जैसे-जैसे 2019 का चुनाव नजदीक आ रहा है धीरे-धीरे वह ब्रांड ध्रुवीकरण की ओर बढ़ता जा रहा है । यही नहीं है हमें खुशफहमी भी है और यह हमारी प्रवृत्ति में शामिल है कि हम हर चीज में अव्वल हैं । भारतीयों ने कथित रूप से सबसे पहले शून्य का आविष्कार किया। स्कूल में जो टॉपर होता है उसकी बहुत इज्जत होती है वह एक तरफ हीरो होता है। गुरुत्वाकर्षण से लेकर कुष्ठ रोग तक के उपचार में सबसे पहला देश होने का हमें गर्व है। साथ ही चुनाव के कारण पैदा होने वाले तनाव में भी हम प्रथम हैं। कहा जा सकता है इस रोग को हम 1997 से ही जानते हैं। उस समय मतदाताओं की वर्तमान पीढ़ी पैदा भी नहीं हुई थी जब जयपुर के मनोवैज्ञानिक डॉक्टर शिव गौतम ने राजस्थान में इसका अध्ययन किया था। उनका मशहूर आलेख था "चुनाव - जीवन का एक तनावपूर्ण मौका है।" डॉक्टर गौतम ने 54 रोगियों का अध्ययन किया था। वह राजस्थान में पंचायत चुनाव को लेकर बहुत तनावपूर्ण स्थिति में थे। निष्कर्ष निकला कि चुनाव केवल उम्मीदवारों के लिए नहीं तनाव पूर्ण है,बल्कि उनके प्रचार प्रचारकों और उन्हें आयोजित करने वाले संस्थान जैसे राज्य चुनाव आयोग इत्यादि भी तनाव में रहते हैं । शोधकर्ताओं ने 2009 में भी आम चुनाव के दौरान इसी तरह का एक अध्ययन किया दोनों के नतीजे लगभग समान थे। हां इन 12 वर्षों में जो नहीं बदला वह 2014 में बदल गया । यद्यपि कोई ठोस इस बारे में नहीं है । मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इस दौरान भी अल्पसंख्यकों ,मुक्तविचारकों, उदारवादियों तथा सिविल सोसायटी में तनाव था जो एटीएम के समक्ष कतार में खड़े होने पर बहुत ज्यादा हो गया। इनमें से कुछ लोग नाराजगी भी जाहिर कर रहे थे और नागरिक अधिकार के खत्म होने की बात कर रहे थे हमारे देश में मनोवैज्ञानिक गड़बड़ी और मनोरोग और बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता और उसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। लेकिन सच तो यह है कीके भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली के मनोरोग विशेषज्ञ डॉक्टर अर्पित परमार की देखरेख में 2015 -16 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वे किया गया था इसमें 12 राज्यों को शामिल किया गया था और पाया गया था की अल्पसंख्यक समुदाय में उत्पीड़न का भय है इसलिए वे तनाव में है साथ ही कुछ तनाव स्वतंत्र विचारकों और उदारवादियों में भी है। अभी कुछ दिन पहले ही एटीएम कार्ड रखने वाले लोग देश के राजनीतिक और आर्थिक वातावरण के चलते काफी तनाव में देखे गए। देश के आर्थिक रूप में कमजोर वर्ग के लोगों पर चरणबद्ध ढंग से निशाना साधा गया यह नहीं देखा गया कि वह किस राजनीतिक विचारधारा से जुड़े हैं । मनोरोग विशेषज्ञों का मानना है कि हाल के वर्षों से औसत नौजवान को भारी तनाव का सामना करना पड़ रहा है
भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के अपने चुनावी घोषणा पत्र में कहा था कि अगले 10 वर्षों में आर्थिक विकास कार्यक्रम के तहत 25 करोड़ लोगों को रोजगार दिया जाएगा लेकिन सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकॉनमी का दावा है 2017 में महज 14लाख लोगों को रोजगार मिल सका। एशियन जर्नल आफ साइकाइट्री के अनुसार भारत में विश्वविद्यालय के 37.7% छात्र मामूली तनाव में रहते हैं , 13.1% छात्र गंभीर तनाव की स्थिति से गुजरते हैं तथा 2.4% छात्र अत्यंत गंभीर तनावपूर्ण स्थिति में जीवन जीते हैं । लांसेट की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में नौजवानों द्वारा आत्महत्या करने की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है। देश में तनाव का मुख्य कारण रोजगार की अनिश्चितता तथा उठता गिरता रोजगार का बाजार है।
वैज्ञानिकों के अनुसार इस सारी स्थिति के लिए सबसे प्राथमिक जिम्मेदार स्मार्टफोन है। इसके कारण खबरें लोगों की हथेली पर होती है और जल्दी से जल्दी लोग उसको पढ़ भी लेते हैं । वे उस पर सोचने के लिए बिल्कुल समय नहीं देते तथा तुरंत प्रतिक्रिया जाहिर कर देते हैं। हमारे देश में हर आदमी सोशल मीडिया पर पंडित होना चाहता है। सब ने पाया होगा कि सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा राजनीतिक, सांप्रदायिक और धार्मिक प्रोपगैंडा होता है । अब से कुछ साल पहले ऐसा नहीं था। भारत दुनिया में सबसे तेजी से उभरता हुआ मोबाइल बाजार है । हमारे यहां 2016 में लगभग 40 करोड़ लोग मोबाइल फोन में इंटरनेट का उपयोग करते थे। अंतरराष्ट्रीय टेलीकम्युनिकेशन यूनियन के आंकड़े बताते हैं की भारत में मोबाइल इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। 2018 के जून में यह संख्या 48 करोड़ के लगभग हो गई थी। इस प्रसार के कारण चुनावी तनाव बढ़ रहा है। मोबाइल फोन में इंटरनेट का उपयोग का मुख्य कारण है हमारे देश में डाटा प्लान का बहुत सस्ता हो जाना। इसके कारण कम पढ़े लिखे लोग भी मीडिया के सीधे संपर्क में आ गए हैं। यह अत्यंत घातक है। 2019 के चुनाव जैसे जैसे नजदीक आ रहे हैं वैसे वैसे अफवाहें और झूठी खबरों का बाजार गर्म होता जा रहा है। बेशक इसमें कुछ सही खबरें हैं और वीडियो भी शामिल हैं । लेकिन सबसे ज्यादा चिंता का विषय अफवाह और गलत खबरें ही हैं। क्योंकि लोग सोशल मीडिया पर आंख मूंदकर भरोसा करने लगे हैं । इससे तनाव बढ़ रहा है। इसका मुकाबला करने के कई तरीके जैसे प्रदर्शन और परिवर्तन पर ध्यान देना। आप जो नहीं चाहते हैं उसके बारे में जमकर बोलिए। अपना नैतिक बल बनाए रखिए वरना यह तनाव चुनाव आते-आते हमारे अंदर इतना बदलाव पैदा कर देगा कि हम सही ढंग से ना कुछ समझ पाएंगे ना कर पाएंगे। यह देश के भविष्य के लिए बेहद खराब होगा। आगे चलकर पूरा देश या देश की एक बहुत बड़ी संख्या मानसिक रूप से बीमार लोगों की होगी ।
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