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Sunday, December 16, 2018

राहुल जीते तो पर मुश्किलें कहां कम हुईं 

राहुल जीते तो पर मुश्किलें कहां कम हुईं 

हरिराम पाण्डेय
मंगलवार को चुनाव में विजय के जश्न के बीच यह तथ्य गुम हो गया कि राहुल गांधी इसी दिन अब से ठीक 1 साल पहले कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे। 48 वर्षीय नेता की विजय पूर्ण सहमति से हुई थी। कोई इनके विरोध में खड़ा नहीं था। लेकिन यह आश्चर्यजनक नहीं है।  कांग्रेस पार्टी में कोई ऐसा नहीं है जो गांधी परिवार को चुनौती दे सके। इनके पहले पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी थीं। सोनिया जी कांग्रेस पार्टी में सबसे लंबी अवधि की अध्यक्ष रहीं। 19 वर्षों तक उन्होंने पार्टी की अध्यक्षता की । 
        11 दिसंबर को घोषित विधानसभा चुनाव परिणाम  केवल राज्यों का एक ऐसा फैसला नहीं था इससे पार्टी विजयी हो गई बल्कि यह राहुल गांधी के नेतृत्व की क्षमता की मिसाल भी है। इस पार्टी के नेता के रूप में राहुल देशभर में प्रतिष्ठित हो गए। भाजपा द्वारा उनके बारे में जो भी हल्की बातें कही जाती थीं वह लौटकर भाजपा के चेहरे पर ही पुत गयीं। लेकिन इसके साथ ही यह भाजपा का दुर्भाग्य भी था । तीनों राज्यों में मुख्य मंत्रियों के खिलाफ सत्ता विरोधी हवा चल रही थी और वह लहर बन गई थी। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15 वर्षों से सत्ता विरोधी हवा बह रही थी और अभी जाकर उसका नतीजा सामने आया है। राजस्थान का तो चरित्र ही रहा है कि वहां एक बार से ज्यादा कोई दल लगातार सत्ता में नहीं आता है। इसलिए वहां कांग्रेस को विजय मिली। इस विजय के साथ ही वह सबक भी है। जिस कारण से भारतीय जनता पार्टी पराजित हुई पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं को यह सबक जान लेना चाहिए। 
         इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ ,राजस्थान और मध्यप्रदेश में कांग्रेस को निर्णायक विजय मिली। इन राज्यों में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को किसी अन्य दल से सहयोग नहीं लेना पड़ेगा। तेलंगाना में तेलुगू देशम पार्टी कुछ नहीं कर सकी। मिजोरम  में कांग्रेस मिजो नेशनल फ्रंट से हार गई और इस तरह से पूर्वोत्तर भारत में उसका अंतिम खंभा भी उखड़ गया। वैसे भी मिजोरम से लोकसभा की एक सीट है जो कांग्रेस के लिए बहुत मायने नहीं रखती। लेकिन पूरे क्षेत्र से उसका खत्म हो जाना आने वाले दिनों में चुनावी जंग की अवधारणा को तय करेगा।
            यद्यपि भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना पूरा नहीं हो सका लेकिन उसने कांग्रेस मुक्त पूर्वोत्तर भारत देख लिया। मिजोरम में कांग्रेस की हालत इतनी खराब थी कि मुख्यमंत्री लाल थनवाला जो दो सीटों से लड़ रहे थे,दोनों सीटों से हार गए।  यहां एक माकूल सवाल है कि कांग्रेस इस विजय अपनी पूंजी क्यों नहीं बना पा रही है। सबसे पहली बात , हमेशा की तरह इस चुनौती के मुकाबले के लिए कांग्रेस देर से जागी। पार्टी हाईकमान ने अप्रैल में ,महज 6 महीने पहले, कमलनाथ को प्रदेश पार्टी अध्यक्ष बनाकर मध्य प्रदेश भेजा । चुनाव के इतने महत्वपूर्ण दौर में इतना विलंब सही नहीं होता। पार्टी को एक बेहतरीन चुनावी मशीन तैयार करने के लिए यह वक्त बहुत कम होता है। खास तौर पर बीजेपी के मुकाबले ,जिसका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहले से ही सक्रिय था। राजस्थान में यह देरी कुछ हद तक सही भी थी। क्योंकि ,वहां लोगों में मुख्यमंत्री विजय राजे सिंधिया के खिलाफ गुस्सा था।  मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान काफी लोकप्रिय थे उनके मुकाबले के लिए बेहतरीन रणनीति का होना जरूरी था। मंदसौर मामले को छोड़कर चौहान के कार्यकाल में मध्य प्रदेश बिल्कुल ठीक-ठाक चल रहा था। ऐसे शासन के खिलाफ हवा बनाना कांग्रेस के लिए थोड़ा कठिन था और इसी कारण से एक नेता के रूप में राहुल गांधी की क्षमता पर सवाल उठेंगे।
           यद्यपि राहुल गांधी ने सभी चुनावी राज्यों में प्रचार किये।  प्रचार का जोर बड़ा साधारण रहा। उनके भाषण लगभग सभी जगह एक ही थे। उस समय भी जब वे किसानों की कर्ज माफी और नए रोजगार के अवसरों की बात करते थे। कोई वैकल्पिक रणनीति नहीं प्रस्तुत कर पा रहे थे कि  कैसे इन वादों को पार्टी पूरा करेगी। राहुल गांधी ने राष्ट्रीय मसलों को भी उठाया जैसे राफेल का मामला लेकिन यह मतदाताओं को उत्साहित नहीं कर पाया । इतना ही नहीं ,उन्होंने कोई वैकल्पिक राजनीति की भी बात नहीं की। भाजपा के विरोधी लगातार यह आरोप लगाते रहे कि वह हिंदुत्व के पत्ते फेंक कर अलगाववादी राजनीति को हवा दे रही है। दिलचस्प बात है कि राहुल गांधी ने भी पिछले एक  वर्ष में वही किया जिससे देश में हिंदुत्व केंद्रित राजनीतिक चर्चा कायम रहे । भाजपा के पीछे संघ और अन्य संगठन हैं और यह देश में सबसे बेहतरीन ढंग से हिंदुत्व पत्ते खेल सकती है लेकिन  जनेऊ धारी गांधी भी हिंदुत्व की चर्चा को कायम रखने के लिए प्रयास में लगे रहे।
         विगत  एक वर्ष राहुल गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस हिमाचल प्रदेश का चुनाव हार गई।  गुजरात में इसने थोड़ा सुधार किया और कर्नाटक में जनता दल सेकुलर के साथ मिलकर सरकार बनाई।  कर्नाटक में गठबंधन चलाना बहुत सरल नहीं था और राहुल गांधी ने कभी भी व्यक्तिगत तौर पर यह प्रयास नहीं किया वह पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया तो संकेत दें कि उनका पार्टी पर संपूर्ण नियंत्रण है। राहुल गांधी के समर्थक कहते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष में नेतृत्व का महान गुण हैं। वे क्षेत्रीय नेताओं को अधिकार देकर उन्हें राज्यों या क्षेत्रों में पार्टी के संगठन को मजबूत करने का अवसर देते हैं। कर्नाटक में सिद्धारमैया, राजस्थान में सचिन पायलट और मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया तथा कमलनाथ को जिम्मेदारी दी जानी इस बात का उदाहरण है। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि य जिम्मेदारियां बहुत मददगार हुईं हैं। कर्नाटक में सत्ता में रहने के लिए इसे मुख्यमंत्री पद को लेकर समझौते करने पड़े । मध्य प्रदेश में सत्ता की जिम्मेदारी बहुत देर से सौंपी गई। केवल राजस्थान ऐसा राज्य है जहां यह सब काम आया। लेकिन, वहां का परंपरागत सत्ता विरोधी चरित्र देखकर लगता है की बात कुछ दूसरी ही थी।
             आम चुनाव के लिए बहुत कम वक्त रह गया है। कांग्रेस अध्यक्ष को चाहिए कि वह इस मसले पर दोबारा सोचना आरंभ करें। राजस्थान में जो नारे चल रहे थे कि " मोदी तुझ से बैर नहीं ,वसुंधरा तेरी खैर नहीं" या ,फिर देशभर में मोदी की लोकप्रियता को देख कर ऐसा लगता है यह लोग बहुत संभव है आम चुनाव में भाजपा को ही वोट दें । लेकिन इसके साथ ही यह  निर्भर करता है कि उस चुनाव के लिए विकल्प पेश करने के बारे में राहुल गांधी क्या करते हैं।

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