नमो समर्थक नाराज क्यों?
इन दिनों नमो समर्थक नाराज दिख रहे हैं। यहां नमो लिखा जा रहा है न कि नरेंद्र मोदी वहीं गौर करेंगे कि समर्थक और भक्तों में भी फर्क है। यहां इसे पृथक कर देना जरूरी है जो समर्थक है वे भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परंपरागत मतदाता नहीं हैं। वे जन सामान्य हैं। मध्य वर्ग के लोग जो मामूली दक्षिणपंथी हैं। यह आबादी देश में बहुत बड़ी है और इसे सरकार से बहुत अपेक्षाएं हैं। आज नए भारत में उनका मोहभंग हो गया है। ये गर्वित भारतीय हैं ना कि अति राष्ट्रभक्त । धर्म के मामले में ये हिंदू हैं लेकिन कट्टरपंथी नहीं हैं। हिंदुत्व के बारे में उनका विचार शंकराचार्य, विवेकानंद, अरविंद और रमन महर्षि से प्रभावित हैं। वे हिंदुत्व और हिंदू में फर्क समझते हैं । उन्हें यह भरोसा था कि बहुत दिनों से भारत भ्रष्ट और अदूरदर्शी राजनीतिज्ञों के गिरफ्त में रहा है। इसने निहित स्वार्थ के लिए लोगों को जाति और धर्म के आधार पर विभाजित कर दिया है । उनकी मंशा थी कि भारत छद्म धर्मनिरपेक्षता और छद्म समाजवाद से मुक्त हो जाए। वे गुणों के आधार पर सामाजिक संरचना के लिए बेचैन थे ।उन्हें नई सरकार में एक नवीन उत्साह ,नई दृष्टि दिखी। उसने सरकार में विकास तथा उद्यम के लिए एक इच्छा का अनुभव किया। नमो को इसका बिंब माना और इसी के कारण बहुत बड़ी संख्या में लोग अपने परंपरागत राजनीतिक विचारों से मुक्त होकर नमो के पीछे जमा हो गया । नमो एक फिनोमिना का नाम हो गया।
नमो की आलोचना कोई असर नहीं पैदा कर सकी क्योंकि मध्यमवर्ग समाज को यह उम्मीद थी कि नमो इन सारी आलोचनाओं को मिथ्या साबित कर देंगे तथा शासन की एक नई संस्कृति में भारत का पदार्पण होगा । पांच वर्षों के बाद उम्मीदें तो हार गई और इस समुदाय का मोह भंग हो गया वह इसलिए नहीं कुंठित हो गए कि नमो ने जो कहा उसे पूरा नहीं कर पाए ,क्योंकि उन्हें मालूम है कि असफलता जीवन का एक हिस्सा है । उनकी नाराजगी इसलिए थी कि इस समय वह नमो को ऐसी ताकतों के साथ जुड़ा देख रहे हैं जिनका डर था। इसलिए अपने को असहाय पा रहे हैं । नमो का जादू भंग हो रहा है। साथी उनसे दूर हो गए हैं और पार्टी के लोग साथ छोड़ रहे हैं। मीडिया भी उनसे अलग होती हुई दिख रही है। नमो एक ताकतवर नेता की तरह सत्ता में आए थे । एक ऐसा नेता जिसका हर पक्ष पर नियंत्रण था लेकिन पार्टी के "एक पक्ष" पर नियंत्रण खोता हुआ दिख रहा है और इससे उनकी व्यक्तिगत साख को आघात पहुंच रहा है। लोगों ने देखा कि नमो एक सीईओ के सांचे में ढले हुए हैं और उनके साथ सही लोगों की टीम है जो कुछ भला करेंगे। नमो ने जिन मंत्रियों जिन मुख्यमंत्रियों और जिन अफसरों का चयन किया उससे लोग हैरत में आ गये। नमो समर्थकों की पीड़ा तब काफी बढ़ जाती है जब वह देखते हैं कि जिन लोगों को जेल में होना चाहिए वे बड़े आराम से टीवी पर प्रवचन दे रहे हैं। वे बहुत सदमे के साथ या देखते हैं कि मीडिया में जो कहा लिखा गया था है उसे उस पुराने संस्थान ने लपक लिया जो पहले ही निराश कर चुके थे। जिस मध्यवर्ग और छोटे-मोटे कारोबारियों की उम्मीद बन कर नमो सत्ता में आए थे वह उम्मीद खत्म हो गई । नोट बंदी की असफलता और जीएसटी के शिकंजे ने छोटे-मोटे व्यापारियों की कमर तोड़ दी ।लेकिन सरकार को विशेषकर नामों को इसकी कोई चिंता नहीं है। इसका सबसे ताजा उदाहरण है हाल में भाजपा के पुडुचेरी के एक नेता निर्मल कुमार जैन ने प्रधानमंत्री से यह पूछा आखिर सरकार मध्यवर्गीय समुदाय से टैक्स वसूलती है लेकिन मध्यवर्गीय समुदाय के छोटे कारोबारियों को बैंकों से कर्ज लेने की सुविधा क्यों नहीं प्रदान करती ? मोदी जी ने जवाब में कहा " आप व्यवसाय की बात करते हैं मैं आम आदमी की बात करता हूं और आम आदमी का ख्याल रखा जाएगा।" यहां एक प्रश्न है कि क्या छोटे व्यवसाई आम आदमी की श्रेणी में नहीं आते या फिर दोनों अलग अलग हैं। अगर हैं फिर नमो का यह नारा सबका साथ सबका विकास क्या मायने रखता है ? ऐसे कई छोटे-छोटे मसले हैं या स्थितियां हैं जो देश के मध्य वर्गीय समुदाय को बहुत बुरी तरह साल रही हैं। यही कारण है कि जिन्होंने 2014 में नमो का समर्थन किया था वे आज गुस्से में हैं। गौर कीजिएगा यहां वोट देने और नहीं देने का कोई प्रश्न नहीं है । केवल समर्थकों के गुस्से को रेखांकित करने की कोशिश की जा रही है। ऐसा भी हो सकता है कि 2019 में चुनाव के बाद फिर नमो की सरकार बने लेकिन समर्थकों में जो उम्मीदें उफन रही थीं वह शायद उतनी ज्यादा नहीं होंगी। उम्मीदों के उफान पर मजबूरियों के पानी के छींटे पड़ जाएंगे।
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