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Friday, December 28, 2018

मार्च के पहले पाकिस्तान भारत पर हमला कर सकता है

मार्च के पहले पाकिस्तान भारत पर हमला कर सकता है

हरिराम पाण्डेय
अब से कोई 40 साल पहले क्रिसमस के दिन सोवियत फौज के टैंक और सैनिक काबुल में उतारे गए थे और वहां कम्युनिस्टों तथा इस्लामी मुजाहिदीनों में खूनी जंग छिड़ गई थी। इन मुजाहिदीनों को पाकिस्तान, अमीरात, सऊदी अरब और पश्चिम के कई देश मदद कर रहे थे। 80 के दशक एक तरह से अफगान जिहाद के दशक थे और 1990 का वर्ष गृह युद्ध का था।  काबुल में तालिबान विजयी हुए थे। 21वीं सदी में आतंक के खिलाफ वैश्विक जंग आरंभ हुई। यह जंग अफगानिस्तान और अन्य मुस्लिम राष्ट्रों में थी। अफगान अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण दंडित हुए और पाकिस्तान पुरस्कृत हुआ। आधुनिक युग में यह किसी देश द्वारा लड़ा जाने वाला सबसे बड़ा युद्ध था । आज जब भी अफगानिस्तान का जिक्र आता है तो उसके साथ यह भी कहा जाता है कि अमरीका ने यहां सबसे लंबी लड़ाई लड़ी थी। कोई यह नहीं सोचता कि असहाय अफगानी एक नहीं खत्म होने वाली जंग के शिकार हुए और इसका उन्हें 40 वर्षों तक दंड भोगना पड़ा । दरअसल अफगानिस्तान महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता  के चौराहे पर फंस गया था जबकि उनकी कोई गलती नहीं थी। लेकिन बात यह उड़ाई गई कि उसे कम्युनिस्टों से मुक्त करने के लिए जंग लड़ी जा रही है । न्यू यॉर्क के डब्ल्यू टी सी पर हमले में सऊदी अरब की भूमिका थी। तालिबान अलकायदा को शरण दे रहे थे और पाकिस्तान खुफिया विभाग तालिबान की मदद कर रहा था। अफ़ग़ानिस्तान एक ऐसी जगह थी जहां क्रोधित अमरिका अपना गुस्सा उतार सकता था। अमरीकी गलत जगह लड़ाई लड़ रहे थे। अफगानिस्तान सही जगह नहीं थी। पाकिस्तान दो तरफा चाल चल रहा था और अमरीकी वहां डॉलर झोंक रहे थे। वहां बड़े आराम से जंग लड़ी जा रही थी वहां जो लोग मारे जा रहे थे उनकी तस्वीरें एलईडी स्क्रीन पर दिखाई जाती थी लेकिन अफगानियों के दर्द कभी रिकॉर्ड नहीं किए गए। हवाई हमलों पर ज्यादा भरोसा था। कोई भी महाशक्ति चुपचाप नहीं रह सकती क्योंकि इसका मतलब होता है जंग में पराजय।  इसमें हैरत नहीं कि जिन तालिबानियों को खत्म करने की  अमरीका ने शपथ ली थी  आज  अफगानिस्तान से सुरक्षित बाहर निकलने के लिए उसी  तालिबान से  अमरीका   वार्ता कर रहा है।
     डोनाल्ड ट्रंप का अमरीका पहले की नीति का यह स्पष्ट प्रदर्शन है। अमरीका अफगानिस्तान से बाहर निकलने के लिए शायद कोई निश्चित तिथि की घोषणा करने  वाला था कि उसने कहा कि वह पूरी फौज नहीं निकालेगा। उसके प्रतिनिधि तालिबान से बातचीत कर रहे हैं।वहां हिंसा जारी है। 25 दिसंबर को अचानक एक आत्मघाती हमले में काबुल में 50 लोग मारे गए । तालिबान ने इस हमले की जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया तो शायद संदेह की सुई इस्लामिक स्टेट की ओर जा रही है। कहा जा रहा है कि इस्लामिक स्टेट अफगानिस्तान में अपनी ताकत बढ़ा रहा है। सूत्रों के मुताबिक अफगानिस्तान में 1 जनवरी से 8 दिसंबर 2018 के बीच 46,655 लोग मारे गए ,यमन में इसी अवधि में 28,862 लोग मारे गए ,सीरिया में 2018 में 25,854 लोग मारे गए। इनमें नागरिक सरकारी फौजी और आतंकी सब शामिल थे। इसमें अफगानिस्तान सबसे आगे है। आतंकी गिरोहों में भारत की चर्चा है। अफगानिस्तान में सुरक्षा की स्थिति खराब होती जा रही है और तालिबान के कब्जे वाले हैं क्षेत्र में तो यह और भी खराब होती जा रही है।  अमरीका वहां सेना नहीं भेज पा रहा है। सैनिकों की कमी का सीधा अर्थ है हवाई हमलों पर निर्भरता और इस कारण लगातार बम गिराए जाएंगे। मरने वालों की संख्या बढ़ती जाएगी तालिबान और इस्लामिक स्टेट के बीच प्रतिद्वंद्विता वहां स्पष्ट दिखाई पड़ रही है
              अब से अगले दो महीनों में हो सकता है तालिबान नई ताकत के साथ उभरे। पाकिस्तान सिर्फ इसका इंतजार कर रहा है। आने वाले दिनों में अफगानिस्तान की सरकार तालिबान को ज्यादा महत्त्व देगी। तालिबान राजनीतिक आंदोलन नहीं बन सका और जिहादी ताकत बनकर रह गया। उम्मीद नहीं है कि वह अफगानिस्तान के संविधान को स्वीकार करें और बहुत संभव है इस्लामी कानून लागू करने की बात करें ।अमरीका पर बातचीत के मामले में भारी पड़ने का मतलब है अमरीका तो बच निकलेगा लेकिन वहां शांति नहीं आएगी। अफगानिस्तान कबीलों और आदिवासियों के तनाव में फंस जाएगा। ऐसे में इस्लामिक स्टेट के ताकतवर होने की आशंका और बढ़ जाती है। खबर है कि इस्लामिक स्टेट इस्लामिक मूवमेंट आफ उज़्बेकिस्तान और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान से भी हाथ मिला रहा है और उसकी उपस्थिति उत्तरी अफगानिस्तान में बढ़ रही है।
         दिल्ली में आईएसआईएस सेल का भंडाफोड़ होने से इस बात की आशंका और बढ़ जाती है ऐसे सेल्स देश में और भी कई जगह होंगे और यह भारतीय सुरक्षा के लिए बेहद खतरनाक हो सकते हैं । इसे अरबों द्वारा चलाए जाने की संभावना नहीं है। इसे कुछ लोकल लोग हैं चला सकते हैं । इधर अगर अफगानिस्तान या कहें तालिबान और अमरीका से बातचीत सफल हो जाती है इसका घाटा पाकिस्तान को उठाना पड़ेगा। इसके लिए वह पहले से ही तैयार हो रहा है और उसने अमीरात, सऊदी अरब और चीन से कुछ धन हासिल किया है ताकि उसकी ढुलमुल अर्थव्यवस्था को मदद मिल सके। इसका एक पहलू यह भी है कि दूसरे रूप में यह खेल चलता रहेगा। अभी हाल में राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने ट्वीट किया था की सीरिया के पुनर्निर्माण के लिए सऊदी सरकार धन देने को तैयार है । यह एक गहरी चाल है।   जिस क्षेत्र को अमरीका ने बर्बाद किया था उसी क्षेत्र को फिर से बसाने के लिए अमरीकी उद्योग को अवसर मिलेगा। लेकिन एक बार अगर अमरीका अफगानिस्तान से बाहर आ जाता है तो वह पाकिस्तान में दिलचस्पी नहीं लेगा या कहें पूरे क्षेत्र में दिलचस्पी नहीं लेगा। वह पूर्वी सीमा में शांति के लिए झूठा प्रयास करेगा। हो सकता है कि अफगानिस्तान समझौता होने तक  खालिस्तान और कश्मीर का मसला थोड़ा दब जाए । लेकिन पाकिस्तान तालिबान की अफगानिस्तान में विजय को अपनी नीतियों की असफलता मानेगा और वह दूसरी महाशक्ति की ओर मुड़ सकता है।  जैसे ही ऐसा होगा भारत के खिलाफ  जंग के लिए  तैयार किए गए   गजवा ए हिंद बटालियन सक्रिय हो जाएगा। हमें किसी झांसे में नहीं आना है या कोई भरोसा नहीं करना है हमें तैयार रहना होगा ।बहुत डर है कि आने वाले एक-दो महीनों में गजवा ए हिंद बटालियन भारत पर हमला बोल दे इस हमले से मुकाबले के लिए भारत को तैयार रहना होगा।

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