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Wednesday, December 12, 2018

इस्तीफा उर्जित पटेल का

इस्तीफा उर्जित पटेल का

रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने इस्तीफा दे दिया है। हालांकि उन्होंने इसके लिए व्यक्तिगत कारण बताया है, लेकिन कुछ दिनों से रिजर्व बैंक और सरकार के बीच जो चल रहा था उसे देखकर उनकी इस बात पर भरोसा नहीं होता। कुछ दिनों से सरकार और उर्जित पटेल या कहें रिजर्व बैंक के बीच जो खिंचाव चल रहा था उससे बैंक की स्वायत्तता को खतरा पैदा हो गया था। बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने हाल की अपनी पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि अगर कोई सरकारी कर्मचारी इस्तीफा देता है इसका मतलब वह विरोध में है। पटेल के इस्तीफे ने सबको हैरत में डाल दिया। हैरत इसलिए हुआ कि पिछले महीने सरकार और रिजर्व बैंक की बैठक में कई मसलों पर समझौता हो गया था। इनमें रिजर्व बैंक के जमा में से सरकार लेना चाहती थी यह भी मामला था। उस समय भी स्थिति ऐसी हो गई थी कि पटेल इस्तीफा दे देते। लेकिन ,ऐसा नहीं हो सका। बड़ा मुश्किल से इसे टाला गया। अगर उस समय स्वायत्तता के मामले पर पटेल का इस्तीफा हो जाता तो दुनिया भर में भारतीय रिजर्व बैंक की साख दो कौड़ी की हो जाती। यही नहीं, रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य भी सरकार में सरकार में किसी को फूटी आंख नहीं सुहा रहे हैं और उनके इस्तीफे की बात भी हुई थी। लेकिन हाल में उसका खंडन हो गया।  सबसे बड़ा जो मसला था वह था रिजर्व बैंक की स्वायत्तता का और उसके गवर्नर के काम करने की आजादी का। यह मसला हल नहीं हुआ। पटेल के इस्तीफे ने  सरकार को सकते में डाल दिया है।
        पटेल के इस्तीफे पर सवाल तो उठेंगे ही। यही नहीं यह भी पूछा जा सकता है कि आजाद ख्यालों वाले अर्थशास्त्रियों से मोदी सरकार की पटती क्यों नहीं है। महत्वपूर्ण पदों पर पर बैठे अर्थशास्त्री एक-एक करके विदा ले रहे हैं । कुछ दिन पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ,फिर नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया और आखिर में मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम सरकार के कॉरीडोर से निकल गए। जिस समय नोटबंदी हुई थी उस समय सुब्रमण्यम मुख्य आर्थिक सलाहकार थे और उन्होंने नोट बंदी को आर्थिक झटका बता कर इशारों ही इशारों में बता दिया कि वह सरकार के इस फैसले से सहमत नहीं थे। सुब्रमण्यम तो अब सरकार की जीडीपी नापने की विधि पर भी उंगली उठा रहे हैं और विकास दर तय करने की नीति आयोग की भूमिका पर भी संदेह जता रहे हैं। रघुराम राजन के बारे में यह बात उठाई गई थी कि वह कांग्रेस के समर्थक थे क्योंकि उनकी नियुक्ति कांग्रेस सरकार ने की थी।  बाकी सभी लोग तो नरेंद्र मोदी सरकार के ही समय में नियुक्त हुए थे ।  ऐसा क्यों हुआ? सरकार और इन अर्थशास्त्रियों में नहीं बनी और वे एक एक करके विदा लेते गए। पिछले चुनाव के समय यानी 2014 में मोदी जी ने 56 इंच का सीना तान कर " मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस" का नारा दिया था। लोगों को उम्मीद थी कि आर्थिक मोर्चे पर मोदी जी बहुत बड़ा काम करेंगे। लेकिन जब सरकार बनी तो बदले -बदले से मोदी जी नजर आने लगे और देखा जाने लगा संघ के स्वदेशी समर्थक सरकार का आर्थिक एजेंडा तय कर रहे हैं। शुरुआत रघुराम राजन से हुई। उस समय ऐसा लगा कि कांग्रेसी होने कारण राजन और मोदी जी में नहीं पट रही है उन्हें कई बार मजबूर भी पाया गया और अंततः उनका कार्यकाल नहीं बढ़ाया गया । उनके बारे में यह कहा जाने लगा कि वे अमरीका में पढ़े लिखे हैं इसलिए स्वदेश में जो आर्थिक समस्याएं हैं उनके बारे में पूरी जानकारी नहीं है। आर एस एस ने यह दुष्प्रचार आरंभ किया। रघुराम राजन को जाना पड़ा और उनका जाना पेशेवर अर्थशास्त्रियों के लिए झटका था।  क्योंकि वे कांग्रेस सरकार द्वारा नियुक्त किए गए थे इसलिए एक बात समझ में आ रही थी कि यह सब राजनीति प्रेरित है ।  बात तो बहुत बड़ी थी जानकार मानते हैं कि भारतीय आर्थिक स्थितियों की जो दलील दी जा रही थी वह स्वदेशी जागरण मंच के लोगों को सत्ता में सेट करने के लिए दी जा रही थी। इन  सभी महत्वपूर्ण पदों पर पेशेवर लोगों की जगह राजनीतिक लोगों को तरजीह दी जाने लगी। जो पढ़े-लिखे आर्थिक जानकार थे उनको विश्व बैंक और आईएमएफ की आर्थिक नीतियों का पिछलग्गू कह कर उनकी छवि बिगाड़ दी गई। बाद में वे सरकार से विदा लेने लगे। अब जहां तक उर्जित पटेल का सवाल है वह तो अरसे से भारत में काम कर रहे थे लेकिन उनके साथ विवाद का मुख्य कारण यह था की सरकार चाहती थी वे पेशेवर तरीके से ना काम करके सरकार की इच्छा पर काम करें, और सरकार की इच्छा स्वदेशी को बढ़ावा देना था। सभी सरकारों में ऐसा होता है। क्योंकि नीति का निर्माण और उसके लागू करने में एक राजनीतिक व्यवधान तो होता ही है। किसी भी नीति का राजनीतिक प्रभाव पड़ता है और उससे सरकार प्रभावित होती है। लेकिन, पेशेवर लोगों से अपनी इच्छा बताने का एक सम्मानजनक तरीका होता है । पिछले 5 वर्षों में देखा गया है कि मोदी सरकार के मंत्री अफसरों से सम्मान का बर्ताव नहीं करते और अफसर खासकर के अर्थशास्त्री खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं। पिछले महीने आर्थिक मामलों के सचिव सुभाष चंद्र गर्ग ने विरल आचार्य का जो मजाक उड़ाया वह सर्वविदित है । आर्थिक विशेषज्ञों की, विशेषकर नीति निर्माण से जुड़े विशेषज्ञों की यह सबसे बड़ी समस्या है। समझ में नहीं आता कि सरकार आर्थिक सुधारों को गति दे कर उदारीकरण को बढ़ाना चाहती है या संरक्षणवाद को बढ़ावा देकर स्वदेशी जागरण मंच को खुश करना चाहती है । पहले बात फैलाई गई कि पंचवर्षीय योजना या योजना आयोग कांग्रेस सरकार की समाजवादी नीति की वाहक है इसलिए उसे बंद कर दिया गया।  उसकी जगह नीति आयोग बनाया गया।  उसकी क्या भूमिका होगी इससे सरकार ने आंख मूंद ली। नीति आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने अपने इस्तीफे में निजी कारण बताया है लेकिन नीति आयोग की भूमिका तय नहीं करना एक तरह से संरक्षणवाद को बढ़ावा देना था और पनगढ़िया ने अपने कई लेखों में मोदी सरकार को इसके लिए चेताया भी । दरअसल सरकार में कई ऐसे दबाव समूह हैं जो उसकी नीतियों को प्रभावित करते हैं और इन समूहों के कारण नीतियों की दिशा तय करना कठिन हो जाता है। शक्ति का केंद्र पूरी तरह से प्रधानमंत्री कार्यालय में है और सलाहकारों से अपेक्षा की जाती है कि वह स्वतंत्र विचार न प्रगट करके नौकरशाहों की तरह प्रतिबद्धता जाहिर करें । इससे एक खींचतान आरंभ हो जाती है और इसका असर नौकरशाही पर भी पड़ता हुआ देखा जा रहा है। नौकरशाह भी किनारा कर रहे हैं। मसलन जीएसटी के पोस्टर ब्वॉय कहे जाने वाले राजस्व सचिव हसमुख अधिया 30 नवंबर को रिटायर हो गये। उन्होंने कार्यकाल बढ़ाने के ऑफर्स को ठुकरा दिया। आमतौर पर अभी तक देखा गया है कि बजट बनाए जाने के काम से जुड़े सरकारी अफसर अगर रिटायर होते हैं तो उनका कार्यकाल बढ़ा दिया जाता है। लेकिन उनका नहीं बढ़ाया गया। बताया जाता है कि जीएसटी को लेकर सरकार उनसे नाराज है । अभी चुनाव नजदीक है। कितना कुछ बदलेगा या अंदाजा लगाना मुश्किल है। लेकिन उर्जित पटेल का इस्तीफा भारतीय अर्थव्यवस्था और भारत की आर्थिक साख के लिए बेशक खतरनाक होगा और इसका असर दूर तक पड़ेगा।

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