1857 के गदर के बाद जब व्यापक पैमाने पर दिल्ली में गिरफ्तारियां शुरू हुई और दिल्ली में मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को भी गिरफ्तार कर लिया गया। मशहूर शायर मिर्जा गालिब को जब गिरफ्तार किया गया और उससे ब्रिटिश पुलिस ने पूछा वह हिंदू है या मुसलमान तो मिर्जा गालिब ने जो जवाब दिया उसके मायने बहुत गंभीर थे। गालिब ने उत्तर दिया कि वह दोनों है। यानी उसने संकेत दिया की समाज को बांटने की कोशिश की जा रही है उसे रोका जाना चाहिए। पुलिस व्यवस्था अंग्रेजों की थी इसलिए वह निष्क्रिय रही और कुछ नहीं हो सका। दंगे भड़क गए। उस समय से आज तक कई बार दिल्ली पुलिस के शासन और संचालन पर उंगलियां उठीं । सबसे ताजा घटना शाहीन बाग में जलती मोमबत्तियां के बीच दहकती दुकानें और धुआंती बस्तियों- घरों ,जलते हुए दूध की बदबू और नालियों के किनारे पड़ी लाशें और इन सब को रोकने के लिए बनाई गई पुलिस व्यवस्था संज्ञाशून्य नजर आई। बाद में पता चला की इसके पीछे राजनीति थी। राजनीति और धर्म के गठजोड़ और उसके घातक नतीजों की भर्त्सना जरूरी है। इसके साथ ही दिल्ली पुलिस व्यवस्था के शासन की समीक्षा भी। आने वाले दिनों में पुलिस के इस रवैये पर जांच आयोग बैठेगा। लेकिन इस बात को लेकर तू-तू मैं-मैं बढ़ जाएगी और राजनीति से पूरी घटना को सांप्रदायिक रंग दे दिया जाएगा।
दिसंबर महीने से सी ए ए और एनआरसी के विरोध में प्रदर्शन करने वालों ने दिल्ली के कई स्थानों पर धरने दिए और अंत में शाहीन बाग में आकर व धरना एक बड़े स्वरूप में बदल गया। पूरे देश में विरोध का टेंपलेट बन गया। यह धरना और प्रदर्शन एक तरह से देशभर के विरोध प्रदर्शनकारियों के लिए उदाहरण बन गया। यहां यह स्पष्ट है कि राजधानी की पुलिस निष्क्रिय बैठी रही और उसने अपनी ही जनता के खिलाफ होने वाली हिंसा करना तो आकलन नहीं किया और ना उसे रोकने की कोशिश की। दिल्ली पुलिस की सबसे बड़ी विपदा है कि वहां कोई भी सरकार हो पुलिस व्यवस्था केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के तहत आती है। यहीं से राजनीति शुरू हो जाती है। आलोचक और विपक्षी नेता पुलिस को भला बुरा कहने के साथ हीकेंद्र सरकार की आलोचना करते हैं और उसे अक्षम साबित करने की कोशिश करते हैं । यह समस्या का समाधान नहीं है। इसके लिए जरूरी है की शासन निष्पक्ष हो।
1947 की घटना इतिहास में दर्ज है। जब दंगाइयों ने खून खराबा शुरू किया तो सरदार पटेल ने बिल्कुल निष्पक्षता से उन पर कार्रवाई की। उन्होंने नहीं पूछा कि कौन किस जाति का है। वह अपना प्रशासनिक दायित्व निभाते रहे। जिसके चलते जनता का भरोसा सरकार पर कायम हुआ और स्थिति संभल गई। इसलिए शांति बनाने के लिए जरूरी है कि प्रशासन और कानून पर लोगों का भरोसा कायम होना चाहिए। लोगों में आपसे विश्वास बहुत जरूरी है।
लेकिन यहां सबसे बड़ा खतरा पारस्परिक विश्वास का है। किसी भी लोकतंत्र में तीन स्थितियां महत्वपूर्ण होती हैं। पहली, जनता में पारस्परिक विश्वास, दूसरी पुलिस व्यवस्था पर भरोसा और तीसरी शासन की निष्पक्षता। दिल्ली दंगों के दौरान दो चीजें स्पष्ट देखने को मिली। पारस्परिक विश्वास को खत्म करने की साजिश और दूसरे पुलिस की निष्क्रियता। राजनीतिक दल से संबंधित एक व्यक्ति ने दंगों का सामान मुहैया कराया और दंगे जब आरंभ हुए तो पुलिस मूकदर्शक बनी देखती रही। ना इस पर किसी नेता ने और ना ही सरकार ने ध्यान दिया कि यह एक बहुत बड़ी साजिश है। इस साजिश में सबसे बड़ा खतरा बहुसंख्यक समाज को भयानक स्वरूप देने का है। इस उद्देश्य के लिए कई स्तरों पर कई तरह के संचार तंत्रों का उपयोग किया गया। जो समुदाय निशाने पर था उसे पहले किसी भी तरह से बदनाम करने की कोशिश की गई। जैसे शाहीन बाग वाली घटना के दौरान एक महीने से ज्यादा वक्त तक सांप्रदायिक नफरत का माहौल बनाया गया और उसके बाद हमले शुरू हो गए । सरकार चुपचाप देखती रही। उसने यह पता लगाने की कोशिश नहीं की नफरत की आग धीरे-धीरे सुलग रही है। उसमें घी कौन डाल रहा है। सरकार का इतना बड़ा खुफिया तंत्र है ,इतनी बड़ी व्यवस्था है सब चुपचाप रहे देखते रहे। एक ऐसी साजिश थी जो व्यापक नरसंहार में बदल सकती थी अगर बहुसंख्यक समुदाय के कुछ लोग आगे नहीं आए होते और इस खून खराबे को उन्होंने रोका नहीं होता। दूसरे दिन जब सरकार जागी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। लेकिन नरसंहार रुक गया। यह सरकार की सफलता कही जाएगी फिर भी सतर्क रहने की जरूरत है ।
यह देश के दूसरे हिस्से में ना भड़के। सबसे बड़ा खतरा कोलकाता में नजर आ रहा है। सरकार को अपनी व्यवस्था चुस्त करनी चाहिए। क्योंकि वहां शाहीन बाग एक पर्दा था यहां पर्दे नहीं है लेकिन कुछ दीवारों के पीछे कुछ कुछ सुलग रहा है इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
मोहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है
Saturday, February 29, 2020
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है
Posted by pandeyhariram at 5:12 AM 0 comments
Thursday, February 27, 2020
"जेम्स बॉन्ड" एक्शन में
दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में हिंसा के कारण 30 से ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं और कई दुकाने जला दी गई हैं। उससे भी ज्यादा आपसी सौहार्द एवं भाईचारे को भारी आघात लगा है। पारस्परिक विश्वास का सत्यानाश होता दिख रहा है। मुस्लिम समुदाय की ओर से हिंदुओं पर आरोप लगाए जा रहे हैं सारी गड़बड़ी उन्होंने फैलाई है। सच क्या है यह जानने के लिए भारतीय खुफिया गिरी के "जेम्स बांड" कहे जाने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भी मैदान में उतर आए हैं । उन्होंने खुद कहा है कि वह गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के निर्देश पर ऐसा कर रहे हैं। उधर दिल्ली पुलिस का कहना है कि वहां शांति कायम हो गई है। इस हिंसा को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई हुई और अदालत ने सरकार को सख्त निर्देश दिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट करके दिल्ली के लोगों से शांति और भाईचारा कायम करने की अपील की। उधर , कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पूरे मामले पर कहा कि गृह मंत्री अमित शाह को इस्तीफा दे देना चाहिए। विपक्ष का यह रुख ऐसे मौके पर सही नहीं कहा जाएगा। एक तरफ जबकि देश में राजनीतिक एकता और सहयोग की आवश्यकता है तो विपक्षी अपना मतलब साधने की कोशिश में लगे दिख रहे हैं।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने उत्तर पूर्वी दिल्ली के प्रभावित इलाकों का दौरा किया और लोगों से मुलाकात की। अजित डोभाल को मुस्लिम साइकी का विशेषज्ञ माना जाता है और यही कारण है कि उन्हें दंगा प्रभावित क्षेत्रों में भेजकर स्थिति का आकलन करने और तदनुसार कदम उठाने के लिए भेजा गया है।कई जगहों पर मुस्लिम बुजुर्गों एवं आम लोगों ने सरकार और संघ के ऊपर उंगली उठाया और यह स्पष्ट कहा , "हमने कभी भी हिंदुओं पर अत्याचार नहीं किये और ना जुल्म होने दिया। अजित डोभाल ने कथित रूप से उस समय यह सब कहने से मना किया है। इसके पीछे शायद यह मंशा थी कि गुस्से को और भड़कने से रोका जाए ,क्योंकि इस तरह की घटनाएं जब - जब याद आती हैं मन पर प्रभाव तो पड़ता ही है। डोभाल ने मिलने वाले सभी लोगों को आश्वासन दिया कि अब पुलिस अपना काम करेगी और हम एक दूसरे की समस्याओं को बढ़ाएं नहीं बल्कि उन्हें सुलझाएं। एक बड़ी अच्छी बात कही कि यहां कोई किसी का दुश्मन नहीं है जो अपने देश से प्यार करते हैं, समाज से प्यार करते हैं, पड़ोसियों का भला चाहते हैं इन सभी को प्रेम से रहना चाहिए। यहां पारस्परिक एकता के साथ मिलकर काम करना चाहिए। कोई किसी का दुश्मन नहीं है। कुछ असामाजिक तत्व हैं हम उनके साथ सख्ती से निपटेंगे और अमन होगा। इस बीच स्थिति पर नजर रखने के लिए वहां खासकर के उत्तर पूर्वी दिल्ली की ड्रोन से निगरानी की जा रही है। डोभाल ने हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र जाफराबाद का भी दौरा किया और बताया हालात नियंत्रण में हैं और लोग संतुष्ट हैं। यद्यपि समाचार एजेंसियां बता रही हैं कि क्षेत्रों में पथराव अभी भी हुए हैं डोभाल को मुश्किल हालात से निपटने के लिए जाना जाता है वह प्रधानमंत्री के विश्वश्त भी हैं। पिछले साल अगस्त में अनुच्छेद 370 के ज्यादातर प्रावधानों को खत्म किए जाने के बाद डोभाल ने एक पखवाड़े से ज्यादा समय कश्मीर में रहकर हालात की निगरानी की थी और सरकार को रिपोर्ट दी थी। आज फिर डोभाल एक्शन में हैं। वह जमीनी स्थिति का जायजा लेने के बाद प्रधानमंत्री और कैबिनेट को दिल्ली के हालात के बारे में जानकारी देंगे। उन्होंने अपने दौरे में मिलने वाले लोगों को आश्वस्त करने की कोशिश की कि राजधानी में कानून व्यवस्था की स्थिति कायम होगी तथा हालात अब सामान्य होंगे।
आशा है कि दिल्ली में शांति कायम होगी लेकिन यह हिंसा एक लंबी कड़ी के रूप में भी बन रही है। अगर दंगों का मनोविज्ञान देखें तो दिल्ली का यह दंगा किसी संभावित षड्यंत्र की भूमिका है। सरकार अभी भी सही कदम उठा सकती है उसे स्पष्ट रूप से कानून और व्यवस्था लागू करने के और लोगों की में व्याप्त चिंता को खत्म करने के लिए इसके लिए उसे पूरी शक्ति लगानी होगी और बर्बरता को रोकना होगा, वरना हमारा लोकतंत्र एक ऐसे राष्ट्र में बदलने जा रहा है जिसमें बर्बरता और दंगे प्रमुख होंगे। सरकार का यह परम कर्तव्य है कि वह ऐसी बैर की भावनाओं को समाप्त कर समाज में सौहार्द कायम करे। हमारा देश 1947 से दंगे और बर्बरता का शिकार होता रहा है। इसे खत्म करना होगा और विश्वास की स्थापना करनी होगी। डोभाल ने मोर्चा संभाला है तो एक उम्मीद जगती है। वह सही बात सरकार को बताएंगे और सरकार बेशक उस पर अमल करेगी। डोभाल प्रधानमंत्री के करीबी माने जाते हैं और प्रधानमंत्री के निर्देश पर अगर वे इन क्षेत्रों के दौरे पर आए थे तो यह उम्मीद बनती है सरकार की मंशा सकारात्मक है।
Posted by pandeyhariram at 7:32 PM 0 comments
Wednesday, February 26, 2020
दो महा शक्तियों में समझौता
दिल्ली में हिंसा की पृष्ठभूमि में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और भारत के बीच कई समझौते हुए। इनमें रक्षा समझौता और व्यापारिक समझौता प्रमुख है। दोनों में अच्छे बुरे समय में एक दूसरे का हाथ थामने का वादा भी किया। यह शुक्रिया है कि ट्रंप ने अपने किसी भाषण में या किसी बातचीत में कोई ऐसी बात नहीं कही जिससे उनके मेजबान को शर्मिंदा होना पड़े। यहां तक कि सी ए ए जिसे लेकर दिल्ली में उत्ताल तरंगे उठा रही हैं और कश्मीर भी खबरों में है दोनों वाकयों को ट्रंप बचा ले गए। सीएए उन्होंने भारत का आंतरिक मामला बताया और कश्मीर को एक ऐसा मसला बताया जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद हल कर सकते हैं। एक तरह से से उन्होंने इन मामलों में मोदी की पीठ भी ठोक दी।
दिल्ली में जो कुछ भी हो रहा है वह एक दूसरा मसला है। लेकिन, ऐसे महत्वपूर्ण समय में इतना कुछ हो जाना भी अपने आप में एक बड़ी घटना है। ट्रंप के आने को लेकर करो जो उम्मीदें थीं, खास करके भारतीय दृष्टिकोण से, उतना मिला नहीं। जो कुछ भी हुआ वह भारतीय नजरिए से जरा फीका था। मुहावरों से ही बात शुरू की जाए तो "हाउडी मोदी" की तरह "नमस्ते ट्रंप" खुशगवार नहीं था और ना ही ट्रंप को देखने वालों की भीड़ के लिए उतनी जगह थी कि अमेरिका की तरह लोग किसी धुन पर नाच सकें। लेकिन, इसके बावजूद ट्रंप के स्वागत में खास किस्म की गर्माहट थी। आयोजन के बाद हिंदी में जो ट्वीट किया गया उसमें बहुत सुरुचि भी दिखाई पड़ रही थी। हालांकि उसे बहुत सावधानीपूर्वक लिखा गया था और अनुवाद किया गया था। डोनाल्ड ट्रंप के साथ रोमन अक्षरों को लेकर ही कई समस्याएं हैं ,देवनागरी के मामले में क्या होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ट्रंप के इस दौरे की सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि यह उनका पहला भारत दौरा था। कुछ वर्षों से चुनाव से पहले अमेरिकी राष्ट्रपतियों का भारत आना एक तरह से प्रचार का फार्मूला बन गया है। इसमें भारत की किसी भी सरकार का कोई करिश्मा नहीं है। बल्कि अमेरिका में भारतीयों के आकार का करिश्मा है।
ट्रंप साबरमती आश्रम भी गए थे। यह वहां कई बड़ी अच्छी तस्वीरें भी ली गई। ट्रंप ने "भारत माता की जय" के नारे लगाने से खुद को संयमित रखा। ट्रंप अक्सर जैसा भाषण देते हैं उससे अच्छा भाषण उन्होंने दिया। भाषण सुनने वालों की जो भीड़ थी वह अमेरिकी जनता की नहीं थी बल्कि भारतीय जनता की थी। उन्होंने वहां मौजूद भारतीयों को प्रसन्न करने की कोशिश भी की। मसलन, भारतीय समाज की सबसे कमजोर नस है धर्म । अमेरिकी राष्ट्रपति ने स्पष्ट कहा कि "भारत धार्मिक आजादी को लेकर बहुत गंभीर है और काम भी कर रहा है।" यह सी ए ए के विरोध में शाहीन बाग में चल रहे प्रदर्शन के परिप्रेक्ष्य में प्रदर्शनकारियों की परोक्ष रूप से आलोचना थी। उन्होंने कहा की आप भारत की तुलना में बाकी जगहों पर देखें तो पाएंगे कि धार्मिक आजादी को लेकर भारत बहुत गंभीर है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि मैंने दिल्ली में हिंसा के बारे सुना है लेकिन इसे लेकर पीएम मोदी से कोई बात नहीं की है।
दिल्ली में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में प्रदर्शन को लेकर हुई हिंसा में अब तक 10 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। इस मसले पर ट्रंप ने बड़ी सफाई से कह दिया "पीएम मोदी अतुलनीय हैं। वह धार्मिक आजादी को लेकर गंभीर हैं।" ट्रंप ने जानकारी दी कि "उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के साथ पाकिस्तान से पैदा होने वाले आतंकवाद पर भी बात की। मोदी आतंकवाद के सख्त खिलाफ हैं उन्होंने इसने एक नया जुमला जोड़ते हुए कहा मोदी जी बहुत ही शांत प्रकृति के व्यक्ति हैं लेकिन बहुत मजबूत हैं।" इसे शाहीन बाग में सक्रिय इस्लामी चरमपंथियों को चेतावनी भी कह सकते हैं।
ट्रंप के जाने के बाद सरकार का परम कर्तव्य है कि वह दिल्ली में हो रही हिंसक घटनाओं को काबू कर ले नहीं तो ट्रंप के पीछे पीछे खबरें दुनिया भर में फैलेंगी और इससे भारत सरकार को कमजोर साबित करने की कोशिश कई खेमे में होगी। इन घटनाओं को देखकर कुछ ऐसा लगता है दिल्ली का अपना खुफिया तंत्र इस हद तक सुस्त हो चुका है कि उसे भनक तक नहीं मिली कि ट्रंप के दौरे में ऐसा हो सकता है उधर आरोप-प्रत्यारोप का बाजार गर्म है। विपक्ष, खास तौर पर आम आदमी पार्टी , का आरोप है कि पुलिस को हरकत में आने का आदेश ही नहीं दिया गया। पुलिस की भूमिका पर सवाल इसलिए उठ रहे हैं की उसे कहीं भी बल प्रयोग करते नहीं देखा गया। पुलिस सरकार का तंत्र है जो आमतौर पर राज्य सरकार के हाथ में होता है। दिल्ली में ऐसा नहीं है, यह तंत्र केंद्र सरकार के हाथों से संचालित होता है। अगर उसे उपयोग में नहीं लाया गया तो वह कुछ भी नहीं कर सकेगा। वैसे हमारे देश का कानून ऐसा है कोई भी संज्ञेय अपराध यदि पुलिस की मौजूदगी में होता है तो उसे हरकत में आना चाहिए। लेकिन धीरे-धीरे रिवाज कम होता जा रहा है। पुलिस व्यवस्था दो तरह की होती है। रीएक्टिव पुलिसिंग और प्रीवेंटिव पुलिसिंग। यहां पुलिस के दोनों भाग निष्क्रिय नजर आए। खास करके प्रीवेंटिव पुलिसिंग। ऐसी व्यवस्था के तहत पुलिस को इंटेलिजेंस जुटाकर घटना से पहले कार्रवाई करनी होती है। अब भी सरकार को चेतना होगा और पुलिस की इंटेलिजेंस विंग को सक्रिय करके हर चीज पर काबू पाने की कोशिश करनी होगी।
Posted by pandeyhariram at 6:21 PM 0 comments
Tuesday, February 25, 2020
ट्रंप का भारत आना
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का भारत दौरा कई समझौतों और आश्वासनों के साथ-साथ कई मनभावन प्रदर्शनों के बीच भव्य रहा।यद्यपि पाकिस्तानी सरकार को यह फूटी आंख नहीं सुहा रहा है। लेकिन भारत में इसे लेकर काफी उत्साह है। अभी तक आलोचना के स्वर नहीं सुनने को मिले हैं। केवल उनके दौरे या उनकी भारत में मौजूदगी के बीच शाहीन बाग में जो हिंसक घटनाएं हुई अगर उनको जोड़ा जाए तो यह उनका विरोध कम और भारत का अपमान करने की मंशा ज्यादा थी। यह एक राष्ट्र विरोधी कृत्य है और इसकी भर्त्सना की जानी चाहिए। यद्यपि इसकी पृष्ठभूमि की समीक्षा करें तो एक खास संदेश मिलता है। बकौल वाशिंगटन पोस्ट ट्रंप अपने देश में मुसलमानों पर पाबंदियां लगाना चाहते हैं और मोदी जी ने विपक्षी दलों के कथनानुसार पाबंदियां लगाने का काम शुरू कर दिया है। यह एक तरह से ट्रंप का विरोध किया जाना होगा। लेकिन ऐसे संदेशों को ना माना जाए तो अच्छा है। लेकिन जिन लोगों ने यह सब किया है उन्हें भी अपने देश के सम्मान के बारे में सोचना चाहिए ।
अमेरिका और भारत के बीच क्या है जो समझौते हुए हैं उनसे अलग दोनों देशों के बीच के सियासी संबंधों पर सोचा जाना जरूरी है। भारत और अमेरिका के बीच आरंभ से ही संबंधों में उतार-चढ़ाव होता रहा है। लेकिन तब भी दोनों के संबंध कायम है। इसका कारण है वह सेतु जो भारत के सॉफ्ट पावर से निर्मित हुआ है । इसे संजोग ही कहा जा सकता है कि ट्रंप की भारत यात्रा अहमदाबाद से आरम्भ हुई। अहमदाबाद पटेल समुदाय का निवास स्थान है। वह पटेल समुदाय जो एक जमाने में अमरीका में मोटेल व्यापार का अगुआ था। भारतीय प्रवासियों का समुदाय दोनों देशों के बीच संबंध को कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब भी संबंधों में थोड़ी सी ठंडक आने लगती है तो यह समुदाय उसे फिर से गरमाने का काम करता है। भारत और अमेरिका के बीच यह सब क्लिंटन के जमाने में आरंभ हुआ जब पाकिस्तान दुनिया भर में आतंकवाद के लिए विख्यात था और उसका प्राथमिक लक्ष्य भारत था। आज तक उसकी धमक अमेरिकी राष्ट्रपतियों की बातचीत में सुनाई पड़ती है। डोनाल्ड ट्रंप के भी सब ईगो में कहीं न कहीं वही था तथा यही कारण है कि उन्होंने अपने भाषण में वादा किया कि वह आतंकवाद को समाप्त करेंगे । ट्रंप ने अपने भाषण में कहा कि वह पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत के खिलाफ आतंकवाद को रोकने की कोशिश करेंगे। कंपनी भारत के चंद्रयान मिशन की भी तारीफ की और स्पष्ट कहा कि वह भारत के साथ मिलकर भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि भारत और तेजी से आगे बढ़ेगा कंपनी कहा कि अमेरिका भारत के साथ प्यार करता है और उसकी इज्जत करता है। वह भारत के लोगों का हमेशा निष्ठावान दोस्त बना रहेगा। 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने भी समझ लिया कि आतंकवाद कितना खतरनाक है और तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत की तरफ हाथ बढ़ाया। इस दोस्ती को आगे बढ़ाने के लिए क्लिंटन ने कई प्रभावशाली आप्रवासी भारतीयों को सहायता ली। इसके बाद वे भारत आए। उनका भारत आना अटल बिहारी वाजपई द्वारा अपनाई गई भारतीय विदेश नीति के लिए एक महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में माना जाएगा। वाजपेई जी ने उस समय निर्गुट संबंधों को किनारा करके द्विपक्षीय संबंधों पर जोर दिया। यह दो दशक में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की पहली भारत थी। उस समय तक भारतीय आप्रवासी नागरिकों पर आरोप था कि वे 1991 की मंदी के लिए दोषी हैं और अमेरिका में उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था। लेकिन बाजपेई क्लिंटन के संबंधों के बाद भारतीय कंपनियां वहां उतरने लगी। बुश के जमाने में भी भारत अमेरिका संबंध कुछ मद्धिम पड़े फिर तब भी भारत को एक विश्वस्त सहयोगी के रूप में माना जाता था। 2010 में लगभग 30 लाख भारतीय अमेरिका में रहते थे और उनकी मौजूदगी को देखते हुए पहली बार अमेरिकी राष्ट्रपति ने व्हाइट हाउस में दीपावली पर दीए जलाए । एक बार फिर सॉफ्ट पावर ने कमाल किया और कूटनीति में शीत युद्ध की जो जंग थी वह खत्म हो गई। हाल में हाउडी मोदी को जो सफलता मिली उसने तो कमाल कर दिया और अब नमस्ते ट्रंप ने एक नया अध्याय संबंधों में जोड़ दिया।
अब जबकि ट्रंप भारत आए हैं तो वे यहां का स्वागत सत्कार देख मुग्ध हो गए। बेशक ताजमहल के सौंदर्य के प्रति उनकी आत्ममुग्धता में कहीं सियासत नहीं दिख रही थी। इन सबके बावजूद जिन लोगों ने उपद्रव करके भारत को बदनाम करने की कोशिश की है उनकी न केवल सार्वजनिक निंदा होनी चाहिए बल्कि उनके नेताओं की शिनाख्त कर उन्हें दंडित भी किया जाना चाहिए।
Posted by pandeyhariram at 5:37 PM 0 comments
Sunday, February 23, 2020
आज से ट्रंप की भारत यात्रा
अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा आज से आरंभ हो रही है। ट्रंप की यह पहली भारत यात्रा है। जाहिर है कि भारत दुनिया के महाबली के स्वागत करने के लिए बहुत उत्साहित है। इसके पीछे राजनीतिक और व्यापार जैसे कई कारण हैं। इस दौरे से जुड़ी है जो सबसे रोचक बात वह है कि दोनों देशों के बीच 70 हजार करोड़ से ज्यादा का प्रस्तावित सौदा होने वाला है। यद्यपि, ट्रंप ने कहा था कि वे भविष्य के लिए बड़े व्यापारिक डील को बचा रहे हैं। यानी ट्रंप ने इशारा किया था इस दौरे में बड़े व्यापारिक समझौते नहीं होंगे। अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइटहाइजर को पिछले हफ्ते भारत आना था लेकिन उन्होंने अपनी यात्रा मुल्तवी कर दी। क्योंकि ,कई मुद्दों पर दोनों देशों में एकमत नहीं हुआ जा सका। इस बारे में ट्रंप ने कहा था कि भारत हमारे साथ बहुत अच्छा सलूक नहीं करता है लेकिन इसके बावजूद मैं प्रधानमंत्री मोदी को बहुत पसंद करता हूं। पिछले 3 वर्षों से भारत और अमेरिका के संबंधों में कई बार उतार-चढ़ाव देखे गए। चीन के बाद अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। 2018 में अमेरिका का द्विपक्षीय कारोबार 142.6 अरब डालर था यह एक रिकॉर्ड है। लेकिन 2019 में य सोदा घट गया और घटकर 23.2 अरब डालर हो गया। इससे लगता है कि दोनों देशों के बीच व्यापारिक तनाव बढ़े हैं। अमेरिका के साथ भारत का व्यापार घाटा फिर कम होने लगा है। लेकिन अमेरिका का गुस्सा अभी उतरा नहीं है। अमेरिका और भारत के बीच व्यवसाय युद्ध तब शुरू हुआ जब ट्रंप ने भारत से आने वाली स्टील उत्पादों पर 25% और अलमुनियम उत्पादों पर 10% ड्यूटी लगा दी। इस ड्यूटी का असर भारत पर पड़े इसके पहले भारत ने अमेरिका से कई बार अनुरोध किया था कि वह अपने फैसले पर पुनर्विचार करे। इतना ही नहीं भारत ने कोई जवाबी कदम भी नहीं उठाया था। जबकि दूसरी तरफ, अमरीकी राष्ट्रपति ने खुलेआम कहा था कि भारत कैसे अमेरिका से आने वाले उत्पादों पर ज्यादा टैक्स लगाता है। ट्रंप ने भारत को "ट्रैफिक किंग ऑफ वर्ल्ड" कहा था। इसके बाद भारत ने 16 जून 2019 से अमेरिका में बने या अमेरिका से आयातित वस्तुओं पर 28% ड्यूटी लगा दी। अमेरिका को काफी गुस्सा आया और उसने इसकी शिकायत विश्व व्यापार संगठन में भी की थी। अमेरिका और भारत कई मुद्दों पर एक मत नहीं है। फेडरेशन आफ इंडियन एक्सपोर्ट आर्गेनाइजेशन के महानिदेशक अजय सहाय के मुताबिक अमेरिका हार्ले डेविडसन मोटरसाइकिल, इलेक्ट्रॉनिक और सूचना तकनीकी उत्पादों पर बड़े शुल्क, मेडिकल उपकरणों की कीमत पर नियंत्रण, डेरी मार्केट में कम पहुंच और डाटा लोकलाइजेशन से भी चिंतित है। अमेरिका के डेरी कारोबारी भारत में अपने उत्पाद बेचना चाहते हैं। लेकिन उनके साथ समस्या है कि वह अपने पशुओं को खून से बना हुआ चारा खिलाते हैं। यह भारतीय धार्मिक भावनाओं से विपरीत है। अब अमेरिका से भारत यह चाहता है की वह एक सर्टिफिकेट जारी करे जिससे यह साबित हो सके कि यह उत्पाद शुद्ध है। राष्ट्रीय किसान महासंघ ने हाल ही में कहा था एक तरफ केंद्र सरकार 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी करने का वादा कर रही है और दूसरी तरफ एक ऐसा व्यापार समझौता करने पर तुली हुई है जिसका खामियाजा किसानों को भुगतना होगा। इस सौदे की वजह से हर साल कृषि ,डेयरी और पोल्ट्री उत्पाद अमेरिका से आयात किए जाएंगे। भारत सरकार को सावधान करने के लिए गत 17 फरवरी को राष्ट्रीय किसान महासंघ ने भारत अमेरिका व्यापारिक समझौते के खिलाफ प्रदर्शन भी किया था। केंद्रीय बजट में सरकार ने अमेरिका से आयात किए जाने वाले चिकित्सा उपकरणों पर टैक्स लगा दिए। यह तो पहले से विवाद का कारण था। यानी इस बार बजट के प्रावधानों को लेकर भी नया विवाद छिड़ सकता है। विशेषज्ञों का मानना है की ट्रंप के दौरे के दौरान अगर भारत और अमेरिका के बीच दोनों दे किसी बड़े व्यापारिक सौदे पर आगे बढ़ने का निर्णय करते हैं। जिसका का प्रभाव आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा। हालांकि 10 बिलियन डालर के व्यापार पैकेज से भारत और पाकिस्तान के बीच सभी द्विपक्षीय मसले नहीं सुलझेंगे । यह हालांकि अनुमान है फिर भी अगले दो-तीन वर्षों में दोनों देशों में व्याप्त तनाव घटेंगे और इससे दोनों देशों को लाभ होगा।
Posted by pandeyhariram at 4:58 PM 0 comments
Friday, February 21, 2020
मोदी की भाजपा के नए मतदाता
एक तरफ बहुत तेजी से मुस्लिम आबादी के विकास का भय फैलाया जा रहा है। कई नेताओं पर मुस्लिमों की तरफदारी के आरोप लगाए जा रहे हैं दूसरी तरफ आंकड़े बता रहे हैं की मोदी की भाजपा के अधिकांश मतदाता बेशक धार्मिक नहीं है लेकिन वे बहुसंख्यक वर्ग के हैं। भारतीय जनता पार्टी की 2019 की शानदार चुनावी सफलता अप्रत्याशित थी। लेकिन उसका अगर उपलब्ध आंकड़ों से आधार पर समाज वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो पता चलेगा यह भारतीय राजनीति में एक व्यापक वैचारिक परिवर्तन का नतीजा था। भाजपा विजय को कुछ लोग तात्कालिक संदर्भ के चश्मे से देखते हैं। लेकिन, इसके संरचनात्मक परिवर्तन के कारक तत्वों को नहीं देख पाते हैं। इतिहास के गलियारों में जरा पीछे लौटे तो 1857 के सिपाही विद्रोह के बाद एक ऐसा ही सामाजिक परिवर्तन हुआ था। जिसके परिणाम स्वरूप भारतीय मध्यवर्ग की उत्पत्ति हुई थी। आज लगभग डेढ़ शताब्दी के बाद कुछ वैसे ही कारकों की उत्पत्ति हुई है। सामाजिक बदलाव दिखाई पड़ने लगे हैं। मध्यवर्ग के विस्तार और धार्मिक हिंदू राष्ट्रवाद से इतर एक नए प्रकार के जातीय राजनीति बहुसंख्यक वाद ने भाजपा से ऊंची जाति वालों की पार्टी के ठप्पे को हटाने में मदद की है। भाजपा विपक्षी दलों पर अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण आरोप प्रचारित करती है और खुद सबके साथ समान व्यवहार के सिद्धांत पर चलने का दावा करती है। भाजपा अक्सर कहती है कि वह किसी का तुष्टिकरण नहीं करती है। उसका यह प्रचार उन हिंदुओं के समर्थन को हासिल करने में सहायक हुआ है जिनका मानना है कि भाजपा से पहले जितने भी दल थे वे सब के सब मुस्लिम तुष्टीकरण के तरफदार थे। इसमें कोई आश्चर्य ही कि भाजपा के प्रचार को मुसलमानों और ईसाइयों के संदर्भ में पूर्वाग्रह से ग्रसित कहा जा सकता है। यह जो नया सामाजिक बदलाव हुआ उसके कारक तत्व थे, नरेंद्र मोदी की बेशुमार लोकप्रियता, भाजपा की संगठनात्मक बढ़त, राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे और गरीबों के बारे में सोचने वाली एक सरकार की छवि। इसी वैचारिक बदलाव के दायरे में भाजपा राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों पर बढ़ चढ़कर बोलती है और उसे अपनाती भी रही है। यह मसले भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा के अनुरूप थे। साथ ही अधिकाधिक मतदाताओं तक सीधे पहुंचने के लिए भाजपा द्वारा सोशल मीडिया के प्रयोग और कल्याणकारी योजनाओं के फायदे, परिवारों और पार्टी के बीच की कड़ी साबित करने में पार्टी की सफलता इसकी राजनीति के वैचारिक धरातल में बदलाव को उजागर करते हैं। शुरुआत कहां से हुई यह जानना ज्यादा जरूरी है। सबसे पहले मतदाता की वैचारिक सोच में ढांचागत परिवर्तन हुआ। भाजपा ने खुद को प्रचारित करना आरंभ किया और जहां उसकी छवि ऊंची जाति वाले पार्टी की थी। वहीं व्यापक हिंदू समाज की छवि बनने लगी। यह सवाल उठता है कि भाजपा के नए मतदाता कौन हैं? इसके लिए नेशनल इलेक्शन स्टडीज (एन ई एस) 2019 के तीन सवालों का उपयोग किया जा सकता है। एन ई एस में पूछा गया है कि 2019 और 2014 के चुनाव में उत्तरदाता ने किसको वोट दिया था? क्या वह खुद को किसी पार्टी विशेष का पारंपरिक समर्थक मानता है? सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार इन सवालों का जवाब देने वालों में से लगभग 13% ने खुद को भाजपा का परंपरागत मतदाता कहा है। इसके बाद लगभग 22% ने खुद को मोदी के शीर्ष की ओर बढ़ने के बाद भाजपा का समर्थक बताया और 11% भाजपा के निवर्तमान समर्थक थे। भाजपा के नए मतदाताओं के पिछड़ी जातियों के ग्रामीण अर्ध शिक्षित और नौजवान होने की अधिक संभावना है। 2019 में भाजपा के लिए पहली बार वोट डालने वालों के स्वरूप भारतीय समाज के प्रतिबंधित करते हैं और इसका एकमात्र अपवाद है धार्मिक अल्पसंख्यक। परंपरागत रूप से उच्च और मध्यम वर्ग के लोग भाजपा के समर्थन में थे।2014 में यह स्थिति बदल गई। 2019 आते-आते हालात और बदले तथा गरीब तबका भी भाजपा से जुड़ गया। यही नहीं भाजपा ने सामाजिक बदलाव की दिशा में एक और काम किया। वह कि इसने अपने वोटरों के बीच लैंगिक भेदभाव के अंतर को खत्म करने में सफलता पाई। पहले महिला वोटरों में भाजपा की लोकप्रियता कम थी। यही नहीं भाजपा का समाज सुधार आयु पिरामिड को भी ज्यादा बेहतर ढंग से प्रतिबिंबित करता है। इतना ही नहीं भारत में बहुत व्यापक जनसांख्यिकी परिवर्तन हो रहा है और हर क्षेत्र में जो बदलाव हो रहे हैं वह चिताओं पर असर डाल रहे हैं।
गुरुवार को संघ प्रमुख मोहन भागवत ने रांची में कहा कि राष्ट्रीयता को हिंदू वाद के साथ जोड़ा जा रहा है। लेकिन एन ई एस में सवाल का उत्तर देते हुए बताया गया है कि सर्वे में ऐसा कुछ नहीं पाया गया है। इन निष्कर्षों के आधार पर कहा जा सकता है कि भाजपा की 2019 की विजय सिर्फ चुनाव पूर्व तात्कालिक कारणों से नहीं हुई बल्कि इसमें भारतीय राजनीति और समाज में जारी बदलाव की भूमिका थी और यह परिवर्तन लंबे काल तक चलता रहेगा और इससे यह उम्मीद की जा सकती है अगले चुनाव में भी भाजपा को ही सफलता मिलेगी।
Posted by pandeyhariram at 8:10 PM 0 comments
Thursday, February 20, 2020
राम मंदिर निर्माण के लिए उठा दूसरा चरण
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए दूसरा चरण आरंभ हो गया है पहला चरण तब हुआ था जब सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में फैसला सुनाया था। अब राम मंदिर निर्माण के लिए दूसरा चरण श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के गठन के बाद आरंभ हो गया। इस ट्रस्ट का गठन नरेंद्र मोदी सरकार ने किया है । शीर्ष अदालत द्वारा राम मंदिर के पक्ष में फैसला देने के बाद वह मंदिर निर्माण के लिए न्यास के गठन के आदेश पर 5 फरवरी को केंद्र सरकार ने ट्रस्ट का ऐलान किया था। इस कार्रवाई के बाद राम मंदिर निर्माण की ओर आगे बढ़ने में सरलता होगी। बुधवार को ट्रस्ट की पहली बैठक हुई विश्व हिंदू परिषद चंपत राय को ट्रस्ट के महासचिव का दायित्व और स्वामी गोविंद देव गिरी जी को कोषाध्यक्ष का पद सौंपा गया। प्रशासनिक अधिकारी रहे नृपेंद्र मिश्र को समिति का चेयरमैन बनाया गया है। नृत्य गोपाल दास ने कहा है कि लोगों मध्य निर्माण के दौरान लोगों की भावनाओं का सम्मान किया जाएगा और जल्दी से जल्दी मंदिर का निर्माण होगा । इस ट्रस्ट का प्रमुख वरिष्ठ अधिवक्ता के परासरण को बनाया गया है एवं इसके अन्य सदस्य है जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती जी महाराज (इलाहाबाद) जगद्गुरु माधवाचार्य स्वामी विश्व प्रसिद्ध प्रसन्न तीर्थ जी महाराज (उडुपी के पेजावर मठ से) युगपुरुष गोविंद देव गिरी जी महाराज (पुणे ) और देवेंद्र प्रकाश मिश्र (अयोध्या) शामिल हैं।
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में की थी। भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश के अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए श्री राम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की स्थापना संबंधित गजट अधिसूचना जारी की थी। उत्तर प्रदेश सरकार ने कैबिनेट बैठक में मस्जिद के लिए 5 एकड़ जमीन दिए जाने पर भी मुहर लगाई थी। अयोध्या के रौनाही में यह जमीन दी जाएगी। रौनाही अयोध्या लखनऊ मार्ग पर है।
हालांकि यह सब हो गया लेकिन मंदिर का निर्माण तो थन से होगा और उस धन को जमा करने के लिए अभी तक कोई समुचित व्यवस्था नहीं हुई है। राम मंदिर जन्मभूमि क्षेत्र को दो करोड़ रुपए का एक बड़ा दान मिला था। ट्रस्ट की 12 करोड़ के कई चेक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 5 फरवरी को सदन में की गई घोषणा के बाद ही मिले थे। इस ट्रस्ट ने इन चेक वापस कर दिया है।दो करोड़ चेक बिहार के रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी किशोर कुणाल दे दिया था। इसकी मुख्य वजह यह है कि ट्रस्ट के पास अभी तक इतनी बड़ी धनराशि रखने के लिए कोई जगह नहीं है। कोई साधन नहीं है। कुणाल ने यद्यपि 10 करोड़ रुपए दान देने की बात कही थी। लेकिन जैसे ही नए ट्रस्ट की घोषणा हुई वह दो करोड़ के चेक के साथ अयोध्या पहुंचे। ट्रस्ट ने चेक को लौटा दिया क्योंकि इतने बड़े दान को स्वीकार करने की कोई व्यवस्था उनके पास नहीं है। ट्रस्ट के सदस्यों के मुताबिक निर्माण के लिए मिलने वाले फंड की कोई कमी नहीं। देशभर से लोग दान देने को तैयार हैं। इसके लिए इसी प्रकार के अभियान की जरूरत नहीं है। ट्रस्ट के गठन के तुरंत बाद गृह मंत्रालय के अपर सचिव डी मुर्मू ने एक रुपए का दान देकर इसके शुरुआत की औपचारिक राशि प्रदान की । 1989 में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए पहला पत्थर लगाने वाले ट्रस्ट के अकेले दलित सदस्य कमलेश चौपाल के अनुसार लोगों ने दान देना शुरू कर दिया है। लेकिन उसे स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं। सबसे पहले खजांची की नियुक्ति होगी, बैंक में खाता खोला जाएगा, ट्रस्ट का ऑफिस कहां होगा यह देखा जाएगा इसके बाद ही यह राशि स्वीकार की जा सकती है। सी ए ए और एनआरसी की पृष्ठभूमि में ट्रस्ट का निर्माण अपने आप में एक ऐतिहासिक फैसला है और साहसिक कृत्य है। सरकार को भारतीय संस्कृति एवं भारतीय सातत्य को बनाए रखने के लिए इस तरह का कदम उठाने के लिए साधुवाद। सरकार को यह भी प्रचारित करना चाहिए जिस मंदिर का निर्माण हो रहा है उसके नायक भगवान श्री राम हैं जो किसी जाति के नहीं है भक्तों के है पूरे हिंदुस्तान के हैं।
Posted by pandeyhariram at 5:17 PM 0 comments
Wednesday, February 19, 2020
ट्रंप की भारत यात्रा
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अगले हफ्ते के पहले दिन 24 फरवरी को भारत आ रहे हैं। इनकी यात्रा को लेकर दुनिया भर में तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। किसी ने इसके नकारात्मक इसके सकारात्मक पक्ष पर रोशनी डाली है। अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने ट्रंप की भारत यात्रा और उस दौरान होने वाली रैलियों की बात कहते हुए ट्रंप को मोदी का पिछलग्गू बताया है। लेकिन चुनाव के पहले 40 लाख भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक ट्रंप के लिए इन टिप्पणियों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अमेरिका में नवंबर में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं। ट्रंप ने अपनी भारत यात्रा के दौरान हवाई अड्डे से स्टेडियम तक लाखों लोगों की भीड़ की बात कही है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 50 से 70 लाख लोगों की उपस्थित होने की बात कही है। ट्रंप को यह महसूस हो रहा है यह यात्रा उनके चुनाव में प्रवासी भारतीयों से संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह यात्रा उनके वोटों को आकर्षित कर सकती है। जैसा कि लग रहा है डोनाल्ड ट्रंप इस यात्रा में कश्मीर का पत्ता तुरुप का हो सकता है। क्योंकि ट्रंप इस यात्रा के दौरान व्यापार संधि और कूटनीतिक रिश्ते को बिगाड़ने वाली अपनी छवि को सुधारने का प्रयास करेंगे।
राष्ट्रपति की यात्रा से कुछ ही दिन पहले चार अमरीकी सांसदों ने भारत का दौरा किया और उन्होंने कश्मीर के हवाले से अपने विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो को पत्र लिख कर प्रजातंत्र में जारी इतने लंबे इंटरनेट बैन और आम लोगों को नेताओं के लंबे कैद को लेकर चिंता जताई थी। जिन्होंने पत्र लिखे थे उनमें सत्तारूढ़ दल के दो तथा विपक्ष के दो सदस्य थे। ट्रंप ने पहले भी भारत और पाकिस्तान के बीच इस मसले पर मध्यस्थ की भूमिका निभाने की पहल की थी हालांकि भारत ने साफ इंकार कर दिया था। पाकिस्तान के बालाकोट पर हमले के दौरान पकड़े गए एयरफोर्स के पायलट अभिनंदन को रिहा करवाने में प्रमुख भूमिका निभाने के संकेत भी राष्ट्रपति ट्रंप में उस दौरान दिए थे। अमेरिकी चुनाव नजदीक आ रहे हैं और राष्ट्रपति चुनाव को देखते हुए यह प्रयास दोबारा कर सकते हैं। हालांकि अब तक जितने भी सर्वे आए हैं उनमें ट्रंप की लोकप्रियता का आंकड़ा 50% से कम है। अमेरिका को महत्वपूर्ण दिखा सकने वाला किसी भी तरह का फैसला इस आंकड़े को बढ़ाने में मददगार हो सकता है।
खबर है कि राष्ट्रपति ट्रंप कई बड़ी भारतीय कंपनियां जैसे तेल और गैस क्षेत्र की जानी-मानी कंपनी रिलायंस ऑटो और कई दूसरे अहम क्षेत्रों में मौजूद टाटा संस, टेलीकॉम कंपनी एयरटेल, महिंद्रा एंड महिंद्रा तथा अन्य कई कंपनियों के प्रमुखों से मिलेंगे। निर्माण क्षेत्र में तेजी लाना और नौकरियों के लिए नए मौके मुहैया कराना ट्रंप प्रशासन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है खास करके इस चुनाव में। फिलहाल अमेरिकी निर्माण क्षेत्रों में सुधार आया है और सुधार के आंकड़े आशा जनक हैं। महिंद्रा एंड महिंद्रा ने अमेरिका में एक अरब डॉलर निवेश और उसके बलबूते रोजगार से नए अवसरों बात की थी। 100 अरब डालर से टाटा समूह की 13 कंपनियां अमेरिका में हैं। जिसमें 35000 लोग काम करते हैं । व्यापार संस्था सीआईआई के एक अध्ययन के अनुसार अमेरिका में कम से कम एक सौ भारतीय कंपनियों में कुल 18 अरब डालर का निवेश है और इनमें एक लाख से अधिक अमरीकी लोगों को रोजगार हासिल है । अभी उम्मीद की जा रही है कि भारत अमेरिका से 24 लड़ाकू हेलीकॉप्टरों की खरीद के लिए 2.6 अरब डालर के रक्षा सौदे को अंतिम रूप दे सकता है।
विश्लेषकों के अनुसार डॉनल्ड ट्रंप की भारत यात्रा उनसे अपने चुनाव के मद्देनजर है। लेकिन यहां सवाल उठता है कि भारतीय मूल के अमेरीकीयों का कितना वोट ट्रंप के खाते में जाएगा इसे लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। एशियन अमेरिकन लीगल डिफेंस एजुकेशन फंड नाम की संस्था के मुताबिक अधिकांश भारतीय डेमोक्रेट्स के वोटर है और इकोनामिक एंड पॉलीटिकल वीकली के अनुसार 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में इन लोगों ने 77% वोट हिलेरी क्लिंटन को दिया था। यद्यपि हाल के वर्षों में अमेरिका में रिपब्लिकन हिंदू कोलिशन जैसी संस्थाओं की पहुंच में इजाफा हुआ है। प्रवासी भारतीयों इस संस्था इंडियास्पोरा के कार्यकारी निदेशक संजीव जोशीपुरा का कहना है यह बड़ा मुश्किल है बताना कि राजनीतिक तौर पर राष्ट्रपति के लिए यह यात्रा कितनी मददगार होगी उनका कहना है कि वोटर दोनों नेताओं के बीच फरिश्तों को किस तरह देखेंगे अभी से कहना मुश्किल है। लेकिन, यह तय है कि अपने वोट का फ़ैसला करते समय उनके मन में कहीं न कहीं राष्ट्रपति ट्रंप को लेकर दिए गए बयानों कदमों और अमरीकी वीजा को निश्चित बनाए जैसे सवाल जरूर घूम रहे होंगे जिनका सीधा असर भारत जैसे देशों से वहां जाने वाले लोगों पर पड़ता है।
Posted by pandeyhariram at 5:39 PM 0 comments
Tuesday, February 18, 2020
फौज में महिलाओं को बराबर का हक
महारानी लक्ष्मी बाई , दुर्गावती और लक्ष्मी सहगल के इस मुल्क में फौज में बराबरी का दर्जा हासिल करने के लिए महिलाओं को 17 बरस लंबी कानूनी लड़ाई से जूझना पड़ा। तब कहीं जाकर बराबरी का दर्जा हासिल हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने सेना में लैंगिक भेदभाव को खत्म करते हुए सोमवार को अपने अत्यंत महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि इस सभी पात्र महिला अफसरों को 3 महीने के भीतर सेना में स्थाई कमीशन दिया जाए। अदालत ने केंद्र की दलील को निराशाजनक बताया। जिसमें महिलाओं को कमांड पोस्ट ना देने के पीछे शारीरिक क्षमताओं और सामाजिक मानदंडों का हवाला दिया गया था। अभी तक थल सेना में 14 वर्ष तक सेवा देने वाले पुरुष अफसरों को ही स्थाई कमीशन के बारे में पात्र माना जाता था। केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर महिला अधिकारियों के आदेश लेने को तैयार नहीं होंगे लेकिन अदालत ने इसे खारिज कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले दुनिया के कई ऐसे देश हैं जहां महिलाएं सेना में कमांडिंग पोजीशन में है अगर इतिहास की बात करें तो दूसरे विश्व युद्ध में सैनिकों को शुरू हुई तो बहुत से देशों में औरतों को सेना में शामिल करना शुरू किया। लेकिन इनमें सिर्फ सोवियत संघ ही एक ऐसा मुल्क था जिसने मैदाने जंग में महिलाओं को उतारा था। हालांकि सोवियत संघ के विघटन के बाद वहां भी अब महिलाओं को युद्ध में लड़ने की इजाजत नहीं है। दुनिया भर में 80 के दशक के बाद महिलाओं की प्रशासनिक और सहायक भूमिका में बड़ा बदलाव 21वीं सदी की शुरुआत में हुआ। जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और शांति औरतों की समान भूमिका का प्रस्ताव किया यह वही वक्त था जब 11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर आतंकी हमला हुआ था और उसके बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने अफगानिस्तान और इराक में सेना भेजी थी। इन सेनाओं में औरतों की खास टुकड़ियां थी। जिन्हें फीमेल इंगेजमेंट टीम कहा जाता था। अमेरिका और ब्रिटेन में औपचारिक रूप से औरतों को युद्ध में शामिल होने की इजाजत नहीं थी पर युद्ध की आवश्यकता ही कुछ ऐसी थी कि उनकी टीम शामिल हुई और करीब डेढ़ सौ औरतों की युद्ध में जान गयी। अमेरिका में यह औपचारिक इजाजत 2013 में दी गई। 2016 में ब्रिटेन ने की औपचारिक इजाजत दे दी। कुछ ऐसे देश हैं जहां युद्ध में औरतों को हिस्सेदारी देने की असल वजह उदारवादी सोच है। दुनिया में मर्द और औरतों की बराबरी के मामले में सबसे आगे आने वाले स्कैंडिनेवियन देश नार्वे, फिनलैंड और स्वीडन में भी इजाजत है। 2018 में नैटो में शामिल स्लोवेनिया एकमात्र ऐसा देश बना जिसने एक महिला को देश के सुप्रीम कमांडर के रूप में नियुक्त किया। फ्रांस में महिलाएं पनडुब्बियों और दंगा नियंत्रण दल को छोड़कर वहां की सेना सभी क्षेत्रों में सेना में सेवा देती हैं।
सरकार ने इस फैसले के पूर्व सुप्रीम कोर्ट में तरह-तरह की दलीलें पेश की थी परंतु सुप्रीम कोर्ट ने इसे नहीं माना कोर्ट का कहना था कि खेसारी दलीलें बताती हैं की माइंडसेट यानी सोचने के तरीके को बदलना होगा ताकि सेना में सच्ची बराबरी हासिल हो सके। अदालत ने सभी भेदभाव को खत्म कर दिया। अब महिला सैनिक अफसर सभी मोर्चों के कमांड पोस्ट पर तैनात की जा सकेंगी। इसका अर्थ महिलाएं एवं सभी तरह की ट्रेनिंग भी हासिल कर सकती हैं। जिससे उन्हें विभिन्न मोर्चों पर तैनात किए जाने के लिए प्रशिक्षित किया जा सके। हालांकि सेना ने आधिकारिक तौर पर इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की है लेकिन फैसले के कुछ ही घंटों के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इसका स्वागत किया। अब इस फैसले का जो प्रभाव पड़ेगा उसे मानव संसाधन विभाग तथा सेना के मानव संसाधन प्रबंधन विभाग को झेलना है। अब इस संबंध में उसे अपनी नीति बदलनी होगी। लेकिन सबसे बड़ा बदलाव सेना की संस्कृति उसके नियमों ,पदों के मूल्यों इत्यादि में आएगा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से अब किसी को कुछ नहीं करना है क्योंकि यह बाध्यता मूलक है।
Posted by pandeyhariram at 5:05 PM 0 comments
Monday, February 17, 2020
मुफ्त की सुविधाएं और हमारे चुनाव
किसी हिंदी फिल्म का एक दृश्य याद आता है कि झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले कुछ मतदाताओं को कुछ राजनीतिक नेता पैसे बांट रहे थे और जब पुलिस ऑफिसर बने उस फिल्म के नायक को यह बात पता चली तो उसने घटनास्थल पर पहुंचकर पैसा लेने वाले नौजवान की जमकर पिटाई की। अभी पिटाई चल ही रही थी कि उस नौजवान की मां आ गई और उसने बहुत मार्मिक बात कही कि " इस थोड़े से रुपए में आपको बेशक फर्क नहीं पड़ता लेकिन हमें पड़ता है। आप बच्चे को पीट रहे हैं लेकिन उन लोगों को कुछ नहीं कर पाते जो यह पैसे बांट रहे हैं।" यह दृश्य खुद में भारतीय चुनाव व्यवस्था और उसके बरक्स हमारी समाज व्यवस्था का एक उदाहरण है। अभी हाल में दिल्ली चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने मुफ्त की बिजली, मुफ्त का पानी और महिलओं के लिए मुफ्त बस यात्रा की सुविधा देकर प्रचंड बहुमत से चुनाव में विजय पाई। अरविंद केजरीवाल ने मतदाताओं को यह भरोसा दिलाया कि यह सुविधाएं आगे भी जारी रहेगी। बेशक यह सही है। कोई भी सरकार अपने प्रदेश की जनता के हितों के लिए क्या कर सकती है, कल्याण के लिए कुछ कदम ,जिसे वह उचित कदम कहती हैं , उसे उठाने का फैसला कर सकती है। लेकिन सवाल है ,क्या मतदाताओं को मुफ्त सुविधाएं प्रदान करने का वादा या प्रलोभन लोकतांत्रिक शुचिता के अनुरूप है? जब चुनाव आते हैं तो राजनीतिक दल मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए अपने घोषणा पत्रों में कई सुविधाओं का जिक्र करते हैं। उन्हें एक तरह से प्रलोभन देते हैं और प्रलोभन देने की इस प्रवृत्ति से सुप्रीम कोर्ट भी सहमत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि चुनाव के दौरान घोषणा पत्रों में मुफ्त की सुविधाएं देने या कह सकते हैं रेवड़ियां बांटने का प्रलोभन मतदाताओं को नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि इससे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की बुनियाद कमजोर होती है। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में अपने फैसले में कहा था कि चुनाव घोषणा पत्रों में किए गए वायदों का जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण नहीं है। परंतु इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि बड़े पैमाने पर मुफ्त सुविधाएं समाज के सभी वर्गों के लोगों को प्रभावित करती है और इस तरह की गतिविधियां बड़े पैमाने पर स्वतंत्र निष्पक्ष चुनाव की जड़ों को हिला देती है। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि चुनाव आयोग को आदर्श आचार संहिता में अलग से एक शीर्षक के तहत राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों के बारे में प्रावधान करना चाहिए।
संविधान की धारा 324 के अंतर्गत स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की होती है और वह इसके लिए लगातार प्रयास करता रहता है। उन प्रयासों में विभिन्न तरह के आदेश और निर्देश भी रहते हैं । चुनाव आयोग को यह मालूम है कि इस सरकार की कीमत पर इस तरह की सुविधाओं के वायदों से निष्पक्ष चुनाव की प्रक्रिया प्रभावित होती है और इसलिए उसने इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों या निर्णय लागू करने की इच्छा भी व्यक्त की थी। चुनाव आयोग इस तरह का कोई भी आदेश या निर्देश नहीं दे सकता जो कानून के दायरे में नहीं हो। मुफ्त की सुविधाओं के वायदे पर अंकुश लगाने के बारे में कोई कानून नहीं है इसलिए राजनीतिक दल एक सीमा तक ही सुविधाएं दे सकते हैं। यद्यपि चुनाव घोषणा पत्र को सीधे-सीधे शासित करने के लिए हमारे देश में कोई नियम नहीं या कोई कानून नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले के बाद 2014 में चुनाव आयोग ने आदर्श आचार संहिता में एक नया प्रावधान जोड़ा। इस प्रावधान में मतदाताओं को अपने मताधिकार का प्रयोग करने के दौरान उन्हें प्रभावित करने से रोकने के लिए कई तरह के आदेश जारी किए। इसका असर भी हुआ। पर कोई विशेष प्रभाव दिखाई नहीं दिया ना ही कोई बदलाव नहीं आया जितने प्रावधान हैं सब सुझाव की तरह थे। चुनाव आयोग ने भी कहा था कि राजनीतिक दलों को ऐसे वादे करने से बचना चाहिए जिनसे चुनाव की स्वतंत्रता और निष्पक्षता प्रभावित होने के साथ-साथ मतदाताओं पर गैर जरूरी असर भी पड़ने लगे। कोर्ट के फैसले के 7 साल गुजर गए लेकिन हालात वही के वही हैं। मतदाता वर्ग से किए गए वायदे ऐसे अव्यावहारिक होते हैं जिन्हें पूरा ही नहीं किया जा सकता या पूरा करना व्यवहारिक नहीं है। संभवत ऐसा नहीं देखा गया है कि किसी राजनीतिक दल के पास कोई ठोस योजना हो कि वह सत्ता में आएगा तो विकास कार्यों से अलग इस तरह के वायदों को पूरा करने के लिए क्या करेंगे और इस पर कितना धन खर्च करेंगे।लेकिन मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए मुफ्त की सुविधाएं देने का सिलसिला चल रहा है इसका परिणाम यह हुआ की सरकारी धन का उपयोग विकास कार्यों की बजाए मतदाताओं को संतुष्ट करने या कह सकते हैं अपने वोट बैंक को एकजुट कर बनाए रखने के लिए अनावश्यक और अन उत्पादक कार्यों पर खर्च होता है । यह मुफ्त की सुविधाएं देने की बातों का दिनोंदिन इन दायरा बढ़ता जा रहा है और अगर इस पर रोक नहीं लगाई गई तो एक बहुत गंभीर विभ्रम की स्थिति पैदा हो जाएगी जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। साथ ही इससे विकास भी प्रभावित होगा। उदाहरण के लिए देख सकते हैं कि आप पार्टी का मुफ्त बिजली
बसों में महिलाओं की यात्राएं फ्री करने पर जितना खर्च हो रहा है वह तो दिल्ली के विकास के खर्चों को काटकर ही होगा अथवा अनावश्यक टैक्स बढ़ाकर होगा। इससे बड़ी कठिनाई पैदा होगी। विकास रुक जाएगा और मुफ्त के पाने की आदत बढ़ती जाएगी और बाद में दूसरे राज्यों के लोग भी इस तरह की सुविधाओं की अपेक्षा करेंगे अथवा एक नए किस्म का सामाजिक तनाव शुरू हो जाएगा इस पर रोक लगाना जरूरी है।
Posted by pandeyhariram at 6:53 PM 0 comments
Sunday, February 16, 2020
असहमति और लोकतंत्र
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ में शनिवार को कहा कि असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व है और असहमति को सिरे से राष्ट्र विरोधी करार देना लोकतंत्र विरोधी है। ऐसे विचार संरक्षण वादी ताकतों के खिलाफ विचार विमर्श करने की मंशा को बढ़ावा देते हैं। चंद्रचूड़ की यह टिप्पणी ऐसे वक्त आई है जब संशोधित नागरिकता कानून (सी ए ए) और एनआरसी ने देश के कई हिस्सों पर व्यापक असर डाला है और देश के विभिन्न हिस्सों में प्रदर्शन हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि सवाल करने की गुंजाइश खत्म करना और असहमति को दबाना सभी तरह की प्रगति चाहे वह राजनीतिक हो आर्थिक हो सांस्कृतिक हो या सामाजिक उसकी बुनियाद को नष्ट करना है। असहमति को खामोश करना और लोगों के मन में भय पैदा करना व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हनन और संवैधानिक मूल्य के प्रति प्रतिबद्धता को खत्म करना है। असहमति दरअसल लोकतांत्रिक तौर पर निर्वाचित एक सरकार में विकास एवं सामाजिक संबंधों के लिए अवसर पैदा करते हैं। कोई भी सरकार उन मूल्यों एवं पहचानों को अपना बताने का और एकाधिकार का दावा नहीं कर सकती जो बहुलवादी समाज की हो गई है। चंद्रचूड़ के भाषण या कहिए अभिव्यक्ति से यह प्रतीत होता है कि असहमति पर अंकुश लगाने के लिए सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल और डर की भावना को पैदा करना स्वतंत्र शांति के खिलाफ है और बहुलवादी समाज की संवैधानिक दूर दृष्टि को भड़काता है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की इस टिप्पणी के प्रिज्म में नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी खिलाफ प्रदर्शनों को देखें । देश के कई हिस्सों में प्रदर्शन हो रहे हैं। यहां यह बता देना प्रासंगिक होगा कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ उस पीठ का हिस्सा थे जिसने उत्तर प्रदेश में सी ए ए के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले से क्षतिपूर्ति वसूल करने के जिला प्रशासन द्वारा कथित प्रदर्शनकारियों को भेजी गई नोटिस पर जनवरी में प्रदेश की सरकार से जवाब मांगा था। किसी भी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए राष्ट्र विरोधी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह किसी कानून का विरोध करता है या करना चाहता है। विरोध को रोकना नाजायज है, खास करके ऐसे विरोध को जो किसी सरकार के किसी कदम के मुकाबले खड़ा करता है।
इन दिनों संशोधित नागरिकता कानून सी (ए ए ) पर सबसे ज्यादा बहस चल रही है इस बहस में भविष्य के भारत के दो पृथक अवधारणाओं की अभिव्यक्ति के लिए एक संदर्भ बिंदु तैयार हुआ है। हमारे समाज की यह ट्रेजडी है कि बौद्धिक आलस्य के कारण हम इस पर एक नए दर्शन की नींव नहीं रख पा रहे हैं । अब से पहले भी धर्मनिरपेक्षता तथा फासीवाद, राष्ट्रवाद जैसे पुराने द्वैत सिद्धांतों पर बहस हुई है। सी ए ए पर बहस ने भारत की अवधारणा संबंधी पुराने सिद्धांतों पर पुनर्विचार का एक नया अवसर प्रदान किया है। जरूरत है वर्तमान भारतीय राजनीति की दशा और दिशा को स्पष्ट करने वाले विचारों पर मनन हो। इस नए हालात से राजनीतिक विचारों का एक नया संघर्ष शुरू होता है।
नए भारत के विचार को आधिकारिक तौर पर पेश किया गया है। एक तरफ सीए ए की वैचारिक बुनियाद है दूसरी तरफ भारत के स्वधर्म का उतना ही प्रभावशाली विचार है। यही विचार हमारी राजनीतिक संस्कृति में एक बुनियादी बदलाव का प्रस्ताव पेश करता है। यह याद रखना जरूरी है कि नया भारत एक वैचारिक रूपरेखा है। इसे भाजपा ने दो हजार अट्ठारह में अपने राजनीतिक सिद्धांत के तौर पर अपनाया था। मोदी जी ने नए भारत की तीन विशेषताओं को बताया है। वह है नवाचार, कड़ी मेहनत और रचनात्मकता से संचालित राष्ट्र। शांति ,एकता और भाई चारे की विशेषता वाला राष्ट्र भ्रष्टाचार ,आतंकवाद, काले धन और गंदगी से मुक्त भारत। मोदी जी ने इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए भारतीय नागरिकों से 8 सूत्री शपथ लेने की अपील की है। इनमें दो बिंदु अत्यंत दिलचस्प है कि मैं "एक सुगम में भारत के लिए अपना पूर्ण समर्थन देता हूं और मैं नौकरी देने वाला बनूंगा ना कि नौकरी ढूंढने वाला।"
स्वधर्म - लोकतंत्र विविधता और विकास की पश्चिमी राजनीति का दर्शन को भारतीय संदर्भ में नए सिरे से परिभाषित करने यह कोशिश ऐसी है जिससे भारत ने दुनिया को यकीन दिला दिया है कि बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में और औपचारिक शिक्षा के अभाव की स्थिति में भी लोकतंत्र कायम रह सकता है। विविधता में एकता भारत का एक पुराना नारा है। जिसने विविधता की भारतीय अवधारणा ,सांस्कृतिक, धार्मिक अंतरों पर जोर देने कि नहीं बुनियादी रूप में विभिन्नता और तरीकों की स्वीकार्यता के विकास की अवधारणा को परिभाषित किया गया है, जो कि जीडीपी विकास दर या प्रति व्यक्ति आय तक सीमित नहीं है। आखरी व्यक्ति के बारे में सबसे पहले सोचने का विचार विकास की अवधारणा में हमारा विशिष्ट योगदान है और मोदी जी ने अक्सर यह बात कही है। अब इन आंदोलनों का फल क्या होगा यह कोई नहीं जानता लेकिन नए भारत और न्याय संगत भारत के बीच वैचारिक संघर्ष जो शुरू हो चुका है वह भविष्य में भी कायम रहेगा।
Posted by pandeyhariram at 8:08 PM 0 comments
Friday, February 14, 2020
चुनाव में दागी उम्मीदवारों की बढ़ती तादाद पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश
देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को यह फैसला दिया के दागी उम्मीदवारों को चुनाव का टिकट देने के कारणों को स्पष्ट करना होगा और उनके संपूर्ण चुनावी इतिहास के बारे में अखबारों में विज्ञापन देने होंगे। राजनीति में अपराधियों की बढ़ती दखलंदाजी से पूरा का पूरा वातावरण है अपराधमय दिखने लगा था । अगर आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि स्थिति कितनी बिगड़ती जा रही है। भारत में 2004 में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या 24% थी जो 2009 में बढ़कर 30% हो गई और 2014 में यह संख्या 34% हो गई। हैरत होती है 2019 में यह अनुपात बढ़कर 41% हो गया। इसका मतलब है लगभग आधे लोग आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं।
आगे क्या होगा? लेकिन, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उम्मीद की जाती है की ऐसे चलन पर रोक लगेगी। खुद को साफ सुथरा और अपराध से दूर बताने वाले यह राजनीतिज्ञ किस पैमाने तक अपराध के दलदल में फंसे हैं यह अंदाजा लगाना मुश्किल है। यह आंकड़े तो उनके हैं जो सजायाफ्ता हैं। अपराध शास्त्र के अनुसार सबसे खतरनाक होता है अपराध किस दिशा में सोचना। आपराधिक सोच वाले राजनीतिज्ञ देश के साथ कुछ भी कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट तो सिर्फ उन्हीं पर रोक लगा रहा है जो सजा पा चुके हैं। कोर्ट के इस फैसले से अपराधिक पृष्ठभूमि वालों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बेशक दूर रखने में मदद मिलेगी लेकिन इससे दूर होना बड़ा कठिन है। न्यायिक व्यवस्थाओं का ही नतीजा है कि अदालत से 2 साल से अधिक की सजा होते ही अब ऐसे सांसदों- विधायकों की सदस्यता समाप्त हो रही है। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। देश की राजनीति को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तत्वों से मुक्त करने की कल्पना को साकार करने के लिए राजनीतिक दलों के सक्रिय सहयोग की अपेक्षा की जाती है। लेकिन, किसी भी तौर पर सत्ता को हासिल करने की लालसा की वजह से यह लक्ष्य हासिल करने में कितनी सफलता मिलेगी यह तो आने वाला समय बताएगा।
इस लक्ष्य को हासिल करने की विदिशा में तरह-तरह के तर्क और कुतर्क दिए जा सकते हैं। लेकिन, इन तर्कों से जनता के बीच राजनीतिक दलों की छवि किसी भी तरह सुधर नहीं रही है । बल्कि जनता के बीच यह धारणा तेजी से बन रही है कि सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। कोई किसी से कम नहीं है। आज राजनीतिज्ञ का मतलब है दबंग होना है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के 27 अगस्त 2014 के फैसले को देखना उचित होगा। जिसमें संविधान पीठ ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को सुझाव दिया था कि बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों तथा भ्रष्टाचार के आरोपों में अदालत में मुकदमों का सामना कर रहे व्यक्तियों को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि जब न्यायपालिका और प्रशासनिक सेवाओं में संदिग्ध छवि वाले व्यक्तियों की नियुक्ति नहीं हो सकती है तो सरकार में कैसे जगह दी जा सकती है। लेकिन, अदालत के इस सुझाव की ओर ज्यादा गंभीरता नहीं दिखाई गई। चुनाव आयोग और अदालत में चुनावी प्रक्रिया में दागी उम्मीदवारों की भागीदारी पर अंकुश लगाने के लिए कई आदेश दिए इनकी वजह से हालात कितने बदले हैं यह अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ है। लेकिन अभी भी चुनाव में ऐसे नेताओं की जमात दिख सकती है जिन पर गंभीर किस्म के अपराध के आरोप हैं। आपराधिक छवि वाले नेताओं के कारण ही आपराधिक मामलों के निपटारे में देरी हो रही है और देश की लगभग हर अदालत में लंबित मामलों की फेहरिस्त और लंबी होती जा रही है। अदालत या चुनाव आयोग चाहता है राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को चुनाव लड़ने के लिए अपना उम्मीदवार नहीं बनाए लेकिन इस विषय पर राजनीतिक दलों में कोई भी आम सहमति नहीं देखी जाती है। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के विश्लेषण के मुताबिक 17 वीं लोकसभा चुनाव 1070 प्रत्याशियों के खिलाफ बलात्कार ,हत्या ,हत्या के प्रयास महिलाओं के प्रति अत्याचार जैसे गंभीर अपराधों के मामले लंबित होने की जानकारी उनके हलफनामे में थी। इनमें भाजपा के यानी कह सकते हैं सत्तारूढ़ दल के 124 ,कांग्रेस के 107, बसपा के 60 ,सीपीएम के 24 और 292 निर्दलीय उम्मीदवार थे। स्वच्छ सरकार बनाने का दावा करने वाली भाजपा के 67 में से 17 और कांग्रेस के 66 में से 13 उम्मीदवार दागी छवि की है बसपा भी पीछे नहीं है इसके 66 प्रत्याशियों में से 10 खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं।
आपराधिक छवि वाले व्यक्तियों को चुनाव में टिकट नहीं देने के सवाल पर राजनीतिक दलों में आम सहमति नहीं है। ऐसी स्थिति में उम्मीद की जानी चाहिए अनुच्छेद 370 से अधिकांश प्रावधान खत्म करने और नागरिकता संशोधन कानून बनाने जैसे कठोर कदम उठाने वाली केंद्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के मद्देनजर कानून में अपेक्षित संशोधन कर उन लोगों को चुनाव लड़ने से रोकने का प्रावधान करेगी जिनके खिलाफ गंभीर प्रकार के अपराध के आरोप हैं। यही नहीं , अगर सभी राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सत्यता से पालन करें तो देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करने की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण कदम होगा।
Posted by pandeyhariram at 11:36 PM 0 comments
Thursday, February 13, 2020
सजा हाफिज सईद को
मुंबई हमले के मास्टरमाइंड और कई आतंकी कार्रवाई को अंजाम देने वाले कुख्यात आतंकी हाफिज सईद को आतंकवाद के लिए नाजायज फंडिंग के दो अलग-अलग मामलों में साढे़ 5 साल की अलग-अलग सजा सुनाई गई। यह दोनों सजाएं एक साथ शुरू होंगी। पाकिस्तान में मेलजोल और शांति के पैरोकार के रूप में मीडिया में प्रचारित हाफिज सईद को लाहौर के आतंकवाद विरोधी अदालत ने लाहौर और गुजरांवाला में दायर दो मामलों में सजा सुनाई। हाफिज सईद जमात-उद-दावा का प्रमुख है और उसका साथी जफर इकबाल दोनों पर आतंकवाद के लिए गैर कानूनी ढंग से धन इकट्ठा करने और मुहैया कराने का आरोप है। हाफिज सईद के संगठन जमात-उद-दावा पर बंदिशें हैं और उन पाबंदियों के बावजूद उसने पाकिस्तान में अपनी कारगुजारियां बंद नहीं की। हालांकि सईद और उसके साथी ने इन आरोपों को गलत बताया है और कहा है कि अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण यह सब हुआ है। सईद की गिरफ्तारी साल भर पहले पंजाब के लाहौर में हुई थी और पंजाब पुलिस के काउंटर टेररिज्म डिपार्टमेंट ने पिछले साल 17 जुलाई को हाफिज सईद और उसके संगठन के नेता जफर इकबाल को पंजाब के शहर गुजरांवाला से गिरफ्तार किया था।
हालांकि इस सजा के बावजूद पाकिस्तान के कट्टरपंथी धार्मिक नेता सईद को सुरक्षा देने की बात कर रहे हैं। पाकिस्तान के गृह राज्य मंत्री शहरयार अफरीदी मिल्ली ने कई नेताओं के साथ मिलकर इस पर बात की है। सईद की पार्टी को चुनाव आयोग से मान्यता मिलनी थी लेकिन नहीं मिली। पाकिस्तानियों को संदेह है कि अमेरिकी दबाव के कारण ऐसा हुआ है। पाकिस्तान के कुछ मंत्रियों का मानना है कि हाफिज सईद पाकिस्तान और धर्म के हक में है। इसलिए उस का साथ देना जरूरी है। वे उसे संसद में लाना चाहते हैं।
अब सईद को सजा मिल गई है। लेकिन जबसे उसे गिरफ्तार किया गया तब से इसमें अमेरिका की भूमिका पर उंगली उठाई जा रही है। उसकी गिरफ्तारी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की वाशिंगटन यात्रा से कुछ दिन पहले हुई थी माना जा रहा है इस कार्रवाई से पाकिस्तान संदेश देना चाहता था कि वह आतंकियों - चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई में जुटा हुआ है। इस कार्रवाई पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ट्वीट किया था कि 10 साल की तलाश के बाद मुंबई हमलों के कथित मास्टरमाइंड को पाकिस्तान में सजा दे ही दी। जब से हाफिज सईद को गिरफ्तार किया गया है तब से आलोचक इस कार्रवाई पर संदेह की नजर रखे हुए हैं। रक्षा विशेषज्ञ सुशांत सरीन के मुताबिक पाकिस्तान ने भले ही उस पर कार्यवाही की है लेकिन उसकी नीति में कोई बुनियादी परिवर्तन आया हो इसके संकेत नजर नहीं आ रहे हैं। अभी यह कहना जल्दी बाजी होगी कि सजा पूरी करेगा या नहीं इसके पहले भी कई बार देखा गया है कि जब दबाव पैदा होता है तो पाकिस्तान कुछ इस तरह की कार्रवाई करता है और जब समय के साथ दबाव कम होने लगता है तो वह अपने आप मामला खत्म हो जाता है। पिछले 15-20 सालों में पाकिस्तान की ओर से ऐसी कार्रवाई या करीब 6 या 7 बार हो चुकी है। मुंबई हमलों के बाद भी हाफिज सईद को गिरफ्तार किया गया था। उसके बाद कई बार उसे हिरासत में लिया गया और नजरबंद किया गया। कुछ दिन मुकदमा चला कर छोड़ दिया गया। साल 2008 में जब सबसे पहले हाफिज सईद और उनके सहयोगियों पर कार्रवाई हुई थी तो उस समय भी ऐसा लगा था अब कड़ी कार्रवाई होगी लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला। इसलिए किसी भी एक कार्रवाई से यह मान लेना कि पाकिस्तान की ओर से आतंकवाद का समर्थन करने वाले इस संगठन पर या ऐसे संगठनों पर ठोस कार्रवाई की शुरुआत होगी यह गलत है। इमरान खान बेहद चुनौतीपूर्ण हालात में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने थे और उन्होंने वादा किया था नए पाकिस्तान का। लेकिन ऐसा कुछ हो नहीं रहा है। इस समय पाकिस्तान पर चौतरफा दबाव है। आईएमएफ और फाइनेंशियल फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स पाकिस्तान पर लगातार दबाव बन रहा है। टास्क फोर्स ने तो अक्टूबर तक समय दिया था यही वजह है कि पाकिस्तान ने पिछले दिनों आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले संगठनों की संपत्तियों और अकाउंट को जप्त करने और फ्रिज करने की कार्रवाई की। उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज किया गया।
वैसे रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान की कार्रवाई दिखावा है। केवल हाफिज सईद के संगठन ही नहीं लश्कर-ए-तैयबा और फलाहे इंसानियत जैसे संगठनों पर भी अर्से से मुकदमे चल रहे हैं। लेकिन, कोई नतीजा नहीं निकला है। यह भी वैसा ही होगा। हाल के मामलों से पता चला है कि पूरी दुनिया में स्वीकार्य आतंकवाद की अवधारणा को पाकिस्तान ने पहली बार स्वीकार किया है। पाकिस्तान आतंकवादी संगठनों को विभिन्न प्रकारों से बांटता था ,जैसे जो पाकिस्तान में एक्टिव हैं या नहीं और जिन से सीधे पाकिस्तान को खतरा है या नहीं। पेरिस में फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की हालिया बैठक में पाकिस्तान ने कहा था यह संगठन आतंकवादी गतिविधियों में शामिल नहीं है। इनसे ज्यादा खतरा तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान या आईएसआईएस जैसे खतरनाक समूहों से है। हालांकि वैश्विक समुदाय का मानना है की इन सभी संगठनों से समान तरह के खतरे हैं। आज जो अंतरराष्ट्रीय स्थिति है इसमें पाकिस्तान को अपनी नीतियों में बदलाव लाना ही बेहतर होगा ताकि उसे वैश्विक दबाव के सामने झुकना ना पड़े और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वह अलग-थलग नजर नहीं आए। बेहतर होगा पाकिस्तान अन्य संगठनों पर भी कार्रवाई करे। जब तक वैसा नहीं करता है तब तक उस पर वैश्विक दबाव बना रहेगा।
Posted by pandeyhariram at 5:38 PM 0 comments
Wednesday, February 12, 2020
दिल्ली चुनाव से सबक
दिल्ली इतिहास से लेकर आज तक हमेशा खबरों में रही है। चाहे वह मुगलों के दिल्ली हो या अंग्रेजों की या कांग्रेसियों की या फिर आज के भाजपा की दिल्ली की। सबसे बड़ी खूबी है कि वह हर परीक्षा में एक नया सबक दे जाती है। चुनाव भी परीक्षा ही है ,फर्क यही है इस परीक्षा में जिसे लोकतंत्र की परीक्षा कहते हैं वहां इंसानों को तौला नहीं जाता है बल्कि गिना जाता है कि किसके हिस्से में कितने लोग खड़े हैं। यह एक ऐसी जंग है जिसमें जंग का नायक खुद नहीं लड़ता बल्कि लड़ने वाली योद्धाओं के साथ खड़ा रहता है और बार-बार पूछता है "मामकाः पांडावैश्चैव किम अकुर्वत संजय:।" हर बार चुनाव सबक दे जाता है। उसके खुद के सबक भी होते हैं। मसलन दिल्ली चुनाव के नतीजों में केजरी का केसरी बनाना और नमो - अशा को निराशा हाथ लगना यह सबक देता है कि चुनाव में कामयाबी के भाजपा के फार्मूले ने इसे सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया।
ऑर्गेनाइजेशनल बिहेवियर के सिद्धांतों के मुताबिक सबसे अच्छी रणनीति के मॉडल के कुछ अभिशाप भी होते हैं। मोदी और शाह के अधीन भाजपा ने 2014 में ही चुनाव जीतने का एक कामयाब फार्मूला बना लिया है। वह इसे पार्टी की सबसे अच्छी रणनीति का मॉडल कहते हैं। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि आत्म संतुष्टि के चलते योद्धा लापरवाह हो जाते हैं और उनकी कार्यशैली में बदलाव की जरूरत होती है। जिसे कामयाब रणनीति कहते हैं वह एक तरह से टेंपलेट बन जाता है। जिसमें कोई परिवर्तन किया ही नहीं जा सकता दिल्ली में भाजपा के साथ यही हुआ। इसकी जो सबसे अच्छी रणनीति थी वह अंतिम क्षणों में पाकिस्तान विरोधी बयानबाजी विपक्ष को राष्ट्र विरोधी साबित करने तथा चुनाव क्षेत्र में बड़े नेताओं की विशाल शोभा यात्राएं थी। इससे एक वातावरण तो बनता है। पार्टी और समर्थकों में थोड़ा जोश तो आता है। लेकिन, इसने भाजपा को एक ऐसे टेंप्लेट में बांध दिया कि इसमें बदलाव किया ही नहीं जा सकता। अगर मार्क्सवाद के पराभव को देखें तो उसके साथ भी कुछ ऐसी ही कमी थी। मार्क्सवादी दूसरों की सुनने को तैयार नहीं थे। आज भाजपा के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। हर आलोचक को राष्ट्र विरोधी करार दे दिया जाना इसकी सबसे बड़ी पहचान है।
अब जरा दिल्ली को देखें । वहां की टोपोग्राफी कुछ अजीब सी है। दिल्ली का एक हिस्सा जो लुटियंस का हिस्सा है उसे इस बात का अहंकार है कि वह सरकार बनाता है और उसे चलाता है। दूसरा हिस्सा दिल्ली में बसी ब्यूरोक्रेसी है जिसमें वर्तमान और निवर्तमान लोगों का हिस्सा है। वे केवल सिद्धांत और गणना की बात करते हैं। तीसरा हिस्सा पंजाबियों और जाटों का है जो एकदम स्पष्ट सोचता है और सीधी बात करता है जो सच है। चौथा हिस्सा बिहार तथा अन्य प्रांतों से आए प्रवासी मजदूरों का है। जिसे हर बात में अपना लाभ दिखता है दिल्ली में किसी भी सरकार को बनाने और रोकने में तीसरे और चौथे हिस्से की सबसे बड़ी भूमिका होती है। क्योंकि यही तबका सड़कों पर लोगों के विचारों को बनते बिगड़ते देखता है तथा उसमें परिवर्तन और परिवर्धन की कोशिश करता है। इस तबके को यह विश्वास है कि सरकारी सेवाओं की डिलीवरी केजरीवाल सुनिश्चित करते हैं। केजरीवाल हिंदुत्व विहीन राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाते हैं और हिंदुत्व को भी गले लगाते हैं। यह भाजपा के लिए एक नई चुनौती है। इसके अनुरूप भाजपा ने अपने सिद्धांतों और नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं किया। सॉफ्टवेयर क्षेत्र में एक शब्द बड़ा ही पॉपुलर है। उसे सिस्टम कहते हैं। यदि सिस्टम बहुत दृढ़ता से कनफिगर किया गया हो तो बाहरी परिस्थितियों से इसमें सुधार नहीं किया जा सकता। आज मोदी और शाह के बीच का जो सिस्टम है भाजपा का उसमें कामयाबी का जो फार्मूला कनफिगर किया हुआ है उसमें बदलाव किया ही नहीं जा सकता। भाजपा की दूसरी सबसे बड़ी रणनीति है उसका धुआंधार प्रचार। 2014 के चुनाव बहुतों को याद होंगे। गुजरात मॉडल का प्रचार किस तरीके से किया गया था। इसका कथानक कैसे गढ़ा गया था। सबने ध्यान दिया होगा कि चुनाव आते-आते गुजरात की पृष्ठभूमि से उभरकर मोदी असाधारण व्यक्तित्व हो गए। ऐसी भूमिका बनाई गई मानो भारत को मोदी का ही इंतजार था। कांग्रेस के पास ऐसी रणनीति नहीं थी जो इस मिथक को खत्म कर सके।
उधर 2018 में आम आदमी पार्टी ने मोहल्ला क्लीनिक और स्कूलों में सुधार का काम बड़े जोर शोर से आरंभ किया। भाजपा ने इस पर सवाल उठाने में देर कर दी। उसे मोदी और शाह के तिलिसमात पर भरोसा था। भाजपा ने बड़ी चालाकी से कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाया और पूरी लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने में सफलता पाई। इससे वोट बैंक में सेंध लगाने की उसकी मंशा बहुत कामयाब हो गई। भाजपा ने मनोज तिवारी को आगे कर दिया। लेकिन वह केजरीवाल की लोकप्रियता का मुकाबला नहीं कर पाए। उधर मनोज तिवारी की मदद के बजाय भाजपा ने शाहीन बाग को खलनायक साबित करने पर ज्यादा जोर लगाया। इस रस्साकशी में भाजपा यह नहीं देख सकी कि अन्य पार्टियां भी उसकी रणनीति का अनुकरण कर सकती हैं और कर रही है। आम आदमी पार्टी ने भाजपा के कई विशिष्ट तरीकों को जैसे मीम चुटकुले और व्हाट्सएप संदेशों को अपनी तौर पर गढ़ लिया । भाजपा ने एक समय में इसके जरिए राहुल गांधी का कद छोटा कर दिया था आम आदमी पार्टी ने इसी के जरिए मनोज तिवारी को निस्तेज कर दिया और वह वास्तविक तौर पर कभी मुकाबले में आ ही नहीं सके। अरविंद केजरीवाल की बहुत सी शिकायतें प्रसारित की गयीं और अरविंद केजरीवाल ने लगातार उन शिकायतों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया। मोदी जी की गोटी उल्टी पड़ गई।
Posted by pandeyhariram at 5:40 PM 0 comments
Tuesday, February 11, 2020
अब चुनाव में लड़ाई लंबी होनी चाहिए
दिल्ली में एक बार फिर "कमल" का सपना चकनाचूर हो गया और स्वप्न जो फूल से झरे थे उन पर झाड़ू फिर गई। केजरीवाल का "अरविन्द " तीसरी बार दिल्ली में खिल रहा है। अरविन्द केजरीवाल तीसरी बार मुख्यमंत्री बन रहे हैं। यह करिश्मा से कम नहीं है। एक ही व्यक्ति लगातार तीसरी बार देश के सबसे महत्वपूर्ण और सजग विधानसभा में सरकार बनाने जा रहा है। दिल्ली कहते हैं दिलवालों का शहर है और लोग अपनी बातों का एक साथ दबंग अंदाज में खुलकर इजहार करते हैं। केंद्र सरकार की लगातार कोशिशों के बावजूद दिल्ली उसके हाथ नहीं लग रही है। चुनाव के पहले एक सॉनेट बड़ा प्रचारित हुआ था,
निकले करने विकास सूरज की सुर्ख गवाहीमें
आज खुद टिमटिमा रहे जुगनू से नौकरशाही में
लेकिन, अरविंद केजरीवाल ने यह प्रमाणित कर दिया कि वह जुगनू से नहीं टिमटिमा रहे हैं। इस चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण यह जानना है कि भाजपा के विशाल आकार और पूर्णत: साधन संपन्न होने के बावजूद वह क्यों पराजित हो गई और तुलनात्मक रूप में बहुत छोटी पार्टी "आम आदमी पार्टी " कैसे जीत गई? बेशक इसकी वजह अरविंद केजरीवाल हैं। 2019 के चुनाव में पराजय के बाद अरविंद केजरीवाल ने बहुत महत्वपूर्ण सबक सीखी। दिल्ली में यह बात फैलाई गई "केंद्र में नरेंद्र मोदी का कोई तोड़ नहीं है " और उसी संदर्भ में जब भी केजरीवाल वोटरों के बीच गए तो उन्होंने ने वोटरों को यह समझाने की कोशिश की कि " दिल्ली में केजरीवाल का कोई विकल्प नहीं है।"
भाजपा की सबसे बड़ी कमी है कि विधानसभा चुनाव में पेश करने के लिए उसके पास वैसे विराट चेहरे नहीं है जैसे केंद्र में बैठे हैं। यही कारण था कि भाजपा को दिल्ली के अलावा महाराष्ट्र ,हरियाणा और झारखंड जैसे राज्यों में भी धूल चाटनी पड़ी। यहां तक कि आम चुनाव से पहले राजस्थान चुनाव में भी ऐसा ही नारा था "वसुंधरा तेरी खैर नहीं, मोदी तुझसे बैर नहीं।" इन तमाम कारणों से यह स्पष्ट हो गया कि भाजपा के लिए राज्यों में अच्छे नेता नहीं हैं। दिल्ली में पिछले चुनाव में भी भाजपा के समक्ष यही संकट था। हिंदी में एक कहावत बहुत लोकप्रिय है कि " दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है।" 2015 में किरण बेदी को पेश कर राजधानी में 70 में से 3 सीटों पर सिमटी भाजपा ने इस बार किसी को सामने रखने का जोखिम नहीं उठाया और केजरीवाल के मुकाबले ऐसे अनजान चेहरों को उतारा जिनके हारने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर दिल्ली में भाजपा और कांग्रेस के नेताओं की सरगोशियों पर ध्यान दें तो इसके संकेत मिल सकते हैं दोनों दलों के बड़े नेताओं में चुपके-चुपके ही सही लेकिन स्पष्ट कहा जा रहा था कि वह केजरीवाल के मुकाबले किसी मजबूत कैंडिडेट को खड़ा करके उसको खत्म नहीं करेंगे। यानी ,उन्हें यह भरोसा था शायद ही जीत सकें।
चमकीली कोठियों और चौड़े राजपथों की दिल्ली का बहुत बड़ा हिस्सा झुग्गियों और सिंगल बैडरूम की सीलन भारी कोठारिया में रहता है। सरकार के द्वारा मुफ्त में दी जाने वाली सुविधाओं और चीजों की जहां उच्च मध्यवर्ग आलोचना करता है वही यह निम्न मध्यवर्ग और झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले मजदूरों के किए एक बहुत बड़ी नेमत है या फिर उनके बीच खूब चलते हैं। यह वोटर झुग्गियों और अनधिकृत कालोनियों में रहते हैं। आम चुनाव में बुरी तरह पराजित होने के बाद केजरीवाल ने मुफ्त की चीजों का ऐलान करना शुरू कर दिया।जब उन्होंने बस और मेट्रो को महिलाओं के लिए मुफ्त करने की घोषणा की तो यह लगभग धमाके की तरह था। महिलाओं के लिए बस फ्री कर दी मेट्रो में अभी तक यह सुविधा नहीं मिली है। इसके बाद इस तरह की कई घोषणाएं ,जिसमें सबसे महत्वपूर्ण 200 यूनिट बिजली की खपत पर जीरो बिल। यह घोषणा सोशल मीडिया से सड़क तक चर्चा का विषय रही और ऑटो वालों तक ने कहना शुरू कर दिया "केजरीवाल मेरा हीरो, बिजली का बिल मेरा जीरो।" जिन्होंने पिछले चुनाव के बाद दिल्ली की यात्रा की है उन्होंने ऑटो के पीछे स्लोगन को लिखा देखा होगा और स्लोगन से एक खास वर्ग के लोगों की भावनाओं का साफ साफ पता चलता है। इस बार वोटों की गिनती में यह भावनाएं वोट में बदलती देखी गई, फलस्वरूप केजरीवाल तीसरी बार सीएम बन गए। हाल में देश में कुछ खासकर दिल्ली में कुछ घटनाएं हुईं। जिनमें से सी ए ए और अन्य नागरिकता संबंधी से उन मुद्दों को राष्ट्र प्रेम के मुद्दे में बदलने में लगी भाजपा दिखी। लेकिन केजरीवाल ने सारे सकारात्मक प्रयोग किए। बिजली, पानी, स्कूल, स्वास्थ्य इत्यादि को अपना मुद्दा बनाया। आप ने पूरा चुनाव मुद्दों पर लड़ा। वह जैसे मसले को अखबार बनाते रहे और आदमी पार्टी वायदे पूरे करने पर काम करती रही। वोटरों को भाजपा के राष्ट्रीय मुद्दों की जगह 'आप' के स्थानीय मुद्दे ज्यादा पसंद आए। यद्यपि भाजपा ने कैंपेन में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन 'आप ' ने लगभग रोजाना प्रेस कॉन्फ्रेंस करके एक टेंपो बनाए रखा। 'आप' ने भारतीय चुनाव अभियान प्रणाली में एक नया अध्याय जोड़ा कि आज के चुनाव में प्रचार यानी लड़ाई लंबी लड़नी होगी। कुछ हफ्तों या पखवाड़े में लड़ाई खत्म नहीं होती है। यही कारण है कि 'आप' ने चुनाव की घोषणा होने से पहले से अपना अभियान आरंभ कर दिया और उसे जारी रखा। पिछले दो चुनावों में बुरी तरह पराजित होने के बावजूद कांग्रेस ने कोई सबक नहीं सीखा। उसने लगभग हथियार डाल दिए।
केजरीवाल ने चुनाव से ठीक पहले हनुमान चालीसा का पाठ किया जिसकी चर्चा बहुत है। हालांकि यह चर्चा नेगेटिव है फिर भी यह कहा जा सकता है की बेशक उनकी सफलता यह बताती है की किसी काम के पहले अगर हनुमान चालीसा पढ़ी जाए तो सफलता जरूर मिलती है:
प्रभु मुद्रिका मेली मुख माहीं
जलाधि लांघ गए अचरज नाहीं
Posted by pandeyhariram at 4:59 PM 0 comments
Monday, February 10, 2020
आलोचना के पहले सोचना होगा
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कहा है कि बजट में 2024 25 तक देश को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनाने की आधारशिला रखी गई है। उन्होंने कोलकाता में संवाददाताओं से कहा वित्त वर्ष 2020 - 21 में बजट में खपत बढ़ाए जाने के उपाय किए गए हैं। साथ ही यह सुनिश्चित किया गया है कि सरकार इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए निवेश करे। इससे आखिरकार देश की अर्थव्यवस्था को 5000 अरब डालर का बनाने में मदद मिलेगी। वित्त मंत्री ने कहा कि हमने खपत बढ़ाने और पूंजीगत निवेश को सुनिश्चित करने की नींव डाली है। सरकार इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने पर खर्च करेगी इसका लघु एवं दीर्घ अवधि में व्यापक असर देखने को मिलेगा।
वित्त मंत्री के इस कथन के परिप्रेक्ष्य में अगर देखा जाए तो बहुत उम्मीदें जगती हैं हालांकि कुछ टीकाकारों का कहना है कि अर्थव्यवस्था के मामले में वर्तमान सरकार का काम ठीक नहीं रहा है। लगभग आम सहमति इस बात पर है 2014 के चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री जी ने जो वायदे किए थे उन्हें पूरा नहीं किया जा सका। निकट भविष्य के आसार बहुत अच्छे नजर नहीं आ रहे हैं। बेशक इस बात को कहने का कोई फायदा नहीं है कि आने वाले दिनों में भी बहुत कुछ अच्छा होगा। सरकार तमाम प्रमुख आर्थिक पहल करने में पिछड़ गई है और वह संरक्षणवाद की ओर मुड़ गई है। रोजगार और व्यापार के मोर्चों पर उसका कामकाज ठीक नहीं है ,लेकिन अगर इस बात का विश्लेषण करें तो सबसे पहले एक बात मान कर चलना होगा कि इस साल वृद्धि दर 5% रही और अगले साल 6% रहेगी। 2020- 21 तक के 3 वर्षों में औसत वृद्धि दर महज 5.7% ही रहेगी। यह आंकड़ा मनमोहन सिंह सरकार के आखरी 3 वर्षों में औसतन वृद्धि दर के आंकड़े की तुलना में काफी कमजोर रही। मनमोहन सरकार के अंतिम 3 वर्षों में वृद्धि दर 6.2% थी इस आंकड़े को नई सदी के शुरुआती वर्षों के बाद कभी नहीं छुआ जा सका है। इसलिए आलोचकों को पूरा आधार मिल गया है। इसका अंदाजा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के भाषण से नहीं लगता है। आखिर सरकार के पहले 4 वर्षों में वृद्धि दर 7.7% थी और दोनों कार्यकालों को जोड़ कर देखा जाए तो 7 वर्षों में औसत वृद्धि दर 6.9% थी। यह उठना गिरना लगभग चौथाई सदी से जारी है। मनमोहन सरकार के आखिरी 3 वर्षों की कमजोर दर से पहले के 3 वर्षों में यह दर प्रशंसनीय थी। उस अवधि में यह दर 7.5 प्रतिशत रही और सब हासिल हुआ था जब दुनिया आर्थिक संकट से जूझ रही थी। इसी तरह 2003 में 4.2% गिरावट दर्ज की गई। लेकिन इसके बाद के 3 साल में इसका औसत 4.23 प्रतिशत का रहा था और फ़िर गति तेज हो गई थी। अगर संक्षेप में कहें तो फिर गति तेज हो गई थी फिर सुस्त हो गई फिर तेज हो जा सकती है। इसकी वजह आपस में जुड़ी हुई है। फिलहाल जिसे सुस्ती कहा जा रहा है उसकी सबसे और सामान्य बात है यह बिना किसी बाहरी कारण के आई है। जैसा कि पिछले 50 वर्षों में आई सुस्ती के दौरों के साथ हुआ। यह वर्तमान दौर की सुस्ती को तुलनात्मक रूप से ज्यादा गंभीर बना देता है। अगर भारतीय अर्थव्यवस्था ठीक नहीं होती है तो जाहिर है कि व्यवस्था में ही कमजोरी है।
अब इसके बाद आलोचना की ओर दूसरा कदम उठाने से पहले इस बात पर गौर करना होगा कि मोदी सरकार ने क्या-क्या सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन किए वित्तीय सेवाओं में। रसोई के लिए साफ-सुथरे ईंधन, शौचालय ,बिजली, डिजिटल लेनदेन को आसान बनाया और अब किसानों को नगद में भुगतान तथा मुफ्त मेडिकल सेवा भी मुहैया कराई । अब जैसा कि वित्त मंत्री ने बताया की मूल मुद्रास्फीति सहित माइक्रोइकोनॉमिक बैलेंस अच्छी अवस्था में है । मोदी जी के आलोचक सामाजिक बदलावों को और उसके महत्व को लगभग समझ नहीं पाते हैं। इसकी वजह यह हो सकती है की विफलता है तो दिख जाती है। जैसे गंभीर होती बेरोजगारी, उपभोग में गिरावट और इसका निवेश पर असर , निर्यात में गतिरोध नीतिगत सुधारों के प्रमुख पदों पर कानूनी निष्क्रियता ,किसानों के समक्ष चुनौतियां इत्यादि इत्यादि।HH अब इसमें जो ज्यादा बाल की खाल निकालते हैं वह संस्थाओं के हरा जैसी समस्याओं को भी जोड़ सकते हैं तू बात वित्त मंत्री ने कही है वाह 1 दिन में तो हो नहीं सकता किसी के पास कोई जादू की छड़ी तो होती नहीं है लेकिन इन तथ्यों की समीक्षा करने वालों के लिए यह जरूरी है कि वे आक्रामक रुख ना अपनाएं बेरोजगारी जैसी समस्या से बेशक निपटना होगा क्योंकि यह बढ़ती विषमता और विकास के लाभ के असमान वितरण से उत्पन्न हुई है। इसकी मूल में वही बातें हैं । कई मोर्चों पर ज्यादा काम करने की जरूरत है। जैसा कि वित्त मंत्री ने कहा है कि इंफ्रास्ट्रक्चर को सुधारना होगा और अगर ऐसी स्थिति में आर्थिक वृद्धि रफ्तार पकड़ती है तो मोदी सरकार को दाद देनी होगी। क्योंकि इससे सरकार का आर्थिक रिकॉर्ड चमक सकता है। लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ तो तेज वृद्धि का अगला चरण शुरू होने में देर हो सकती है। फिर भी वित्त मंत्री की है बात आशा जनक है एवं उम्मीद करनी चाहिए कि विकास होगा। क्योंकि हमारे देश में इंफ्रास्ट्रक्चर की सबसे बड़ी कमी है। अगर इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं होगा तो अर्थव्यवस्था को विकसित होने के प्रचुर आधार नहीं मिलेंगे। अर्थव्यवस्था पर असर बहुत धीरे-धीरे होता है इसलिए सरकार की आलोचना करने से पहले कुछ सोचना जरूरी है।
Posted by pandeyhariram at 5:55 PM 0 comments
Sunday, February 9, 2020
यौन अपराधों में मौत की सजा बढ़ी पर मामले लंबित
इन दिनों फेसबुक में या अन्य सोशल मीडिया में कई क्लिपिंग वायरल हो रही है जिसमें निर्भया कांड के दोषियों को किस तरह सजा दी जाए इसके बारे में तरह-तरह के मसाले परोसे जा रहे हैं। लेकिन सच तो यह है कि निर्भया कांड के अपराधियों को फांसी देने की सजा कानून के दांव पेच में उलझ के रह गई है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी एक बार याचिका खारिज कर दी है। कब यह सजा व्याहारिक होगी यह कहना बड़ा मुश्किल है। लेकिन, अगर आंकड़े देखें तो 2004 से लेकर अब तक भारत में केवल चार लोगों को फांसी दी गई है। आखरी बार 2015 में फांसी हुई थी। इन 4 लोगों में 3 आतंकवाद के दोषी थे और एक नाबालिग से बलात्कार का दोषी था। विशेषज्ञों का मानना है कि निर्भया कांड ने पूरे देश को झकझोर दिया लेकिन इससे अपराध कम नहीं होंगे इससे एक ऐसी स्थिति बनेगी जो सुधारों को वस्तुत: लागू करने से सरकार का ध्यान हट जाएंगे जिससे बलात्कार के मामलों में अभियोग चलाने में सुधार आ सकता है ।
नेशनल क्राईम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के जेल के आंकड़ों के अनुसार 2018 में 126 दोषियों को मौत की सजा सुनाई गई। जबकि 2017 में 121 दोषियों को सजा सुनाई गई थी। यानी एक वर्ष में 53% ज्यादा भारत में मौत की सजा रेयरेस्ट ऑफ द रेयर यानी दुर्लभतम मामलों में सुनाई जाती है। अदालतों ने इस विकल्प का उपयोग विभिन्न मामलों में किया है, जैसे हत्या ,आतंकवाद, अपहरण के साथ हत्या, दंगे के साथ हत्या ,नशीले पदार्थ से जुड़े अपराध और बलात्कार के साथ हत्या से संबंधित मामले शामिल हैं। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की वार्षिक रिपोर्ट 'डेथ पेनेल्टी इन इंडिया" की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में मौत की सजा पाने वाले अपराधियों में से 40% से अधिक और 2019 में इनमें से आधे 52.9% एवं अपराधों और हत्या के दोषी थे। जनता की चिंताओं को दूर करने के लिए अदालत ने यही एक आसान रास्ता चुना है। अगर अपराध शास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें तो हिंसा के मामले कम हों ऐसी व्यवस्था साकार नहीं कर पा रही है ना ऐसा सामाजिक सुधार हो पा रहा है। कोलकाता हाई कोर्ट वकील एवं समाजसेवी का मल्लिका राय चौधरी के मुताबिक "2019 में सरकार ने पॉक्सो एक्ट 2012 में संशोधन किया था और इसमें व्यवस्था की गई थी 12 साल से कम उम्र के बच्चों के बलात्कार के मामले में सजा-ए-मौत का प्रावधान जोड़ा जा सके।" 2 महीने पहले हैदराबाद में एक पशु चिकित्सक के बलात्कार के मामले में आरोपी चार व्यक्तियों को पुलिस ने एनकाउंटर में मार दिया इसे न्यायिक कार्रवाई के बगैर हत्या की संज्ञा दी गई थी। बाद में आंध्र प्रदेश विधानसभा ने एक विधेयक पारित कर बलात्कार के मामलों में मौत की सजा का प्रावधान किया था। मौत की सजा पर विधि आयोग की 2015 रिपोर्ट के मुताबिक यह साबित नहीं किया जा सकता कि उम्र कैद की तुलना में मौत की सजा एक कड़ा तरीका है।
निर्भया कांड के बाद कई कानूनी सुधार और बदलाव हुए इनमें क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट 2013 भी शामिल था। पीछा करना, अंग प्रदर्शन ,एसिड अटैक और यौन उत्पीड़न इसके दायरे में लाए गए। इन सुधारों से बलात्कार के अपराधियों को दर्ज करने के मामलों में सुधार आया। परंतु अपराधियों की गिरफ्तारी और उनका दोष साबित करने की दर में बहुत ज्यादा सुधार नहीं आया। 2019 के एक अध्ययन के अनुसार अगस्त 2019 में बलात्कार के मामले में दोषी करार दिए गए लोगों की संख्या 2007 से कम हो रही है साल 2006 में यह 27% थी 2016 में या 18.9 प्रतिशत हो गई।
31 दिसंबर 2019 तक देश में मौत की सजा पाए 378 कैदी थे। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के रिपोर्ट के मुताबिक निचली अदालतों में 2019 में 102 मामलों मैं मौत की सजा सुनाई थी जबकि पिछले साल की संख्या 162 थी। 2019 में सुनाई गई मौत की सजा में से आधे से ज्यादा यानी 54 अपराधियों की संख्या ऐसी थी जिन पर यौन अपराधों से जुड़ी हत्याओं की सुनाई गई थी। ऐसे 40 मामलों में पुलिस की उम्र 12 साल से कम थी। यहां एक दिलचस्प तथ्य सामने आता है कि अपमान और कानून लागू करने वाले अधिकारियों की लापरवाही के कारण बलात्कार के पीड़ित लोग रिपोर्ट बहुत कम दर्ज कराते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक अपराध करने वाले पीड़ित की जानकार हुआ करते हैं और 50% तो पीड़ित के दोस्त परिवार या पड़ोसी हुआ करते हैं इसलिए मामले कम दर्ज होते हैं।
Posted by pandeyhariram at 5:19 PM 0 comments
Friday, February 7, 2020
सत्ता के लोभ में बंट गया देश
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा करते हुए कहा कि देश के विभाजन के लिए सत्ता का लोभ कारक तत्व है। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू का नाम लिए बिना कहा कि किसी को प्रधानमंत्री बनना था सिर्फ इसलिए हिंदुस्तान का बंटवारा कर दिया गया और जमीन पर लकीर खींच कर एक पाकिस्तान और एक हिंदुस्तान बना दिया गया। पाकिस्तान में लाखों हिंदुओं और सिखों पर जुल्म और जबरदस्ती हुई इस जुल्म और जबरदस्ती की कल्पना आज की पीढ़ी नहीं कर सकती है। वह नागरिकता संशोधन कानून के संदर्भ में बोल रहे थे।
जिन्होंने भारत के इतिहास को गंभीरता से पढ़ा होगा और समझा होगा वे इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि बंटवारे के लिए जिम्मेदार कौन था? 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के पूर्व देश के राजनीतिक क्षेत्र में कांग्रेस का दबदबा था और मुस्लिम लीग एक ताकतवर प्रतियोगी के रूप में उभर रही थी। भारत छोड़ो आंदोलन के बाद से ही स्थितियां बदलने लगीं। जिन्ना के पक्ष में और मुस्लिम लीग के पक्ष में सत्ता का संतुलन झुकने लगा। गांधी को अपनी ज़िद से हटना पड़ा। के एम मुंशी ने अपनी पुस्तक "इंडियन कांस्टीट्यूशनल डेवलपमेंट" में लिखा है कि परिवर्तन यानी मुस्लिम लीग के पक्ष में सत्ता के संतुलन का कारण चाहे जो हो गांधी का पक्ष कमजोर होना बंटवारे का मुख्य कारण है। एक तरफ तो भारतीय राजनीति में गांधी की कोशिशों के बावजूद उच्च वर्गीय समुदाय का वर्चस्व था। उसमें निम्न वर्ग की यूं ही कोई खास कदर नहीं थी। वह केवल मरने मारने या फिर धरने प्रदर्शन के लिए उपयोग में लाए जाते थे। भारतीय समाज परंपराओं और धर्म से जुड़ा हुआ है ,इसलिए आज भी राजनीति की किसी बात को संप्रदायिकता या धर्म का एंगल दे दिया जाता है और बात बढ़ने लगती है। अभी सीएए तथा एनआरसी के बारे में ही देखिए। बात को कुछ इस तरह मोड़ दी गई है कि इससे देश के अल्पसंख्यक समुदाय को हानि होगी और लोगों ने इस पर विश्वास कर लिया तथा सरकार के विरोध में प्रदर्शन , उपद्रव इत्यादि होने लगे। कभी किसी ने सोचा नहीं या उन्हें सोचने का मौका नहीं दिया गया यह जो बात फैलाई जा रही है उसका उद्देश्य फिर दूसरा भी हो सकता है और वह दूसरा उद्देश्य क्या है? इसको जानना पहले जरूरी है। प्रधानमंत्री के लाभ समझाने के बावजूद ग्रास रूट अस्तर के अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं उन्हें इस सच्चाई के बारे में बहुत कम जानकारी है या कहें सच उन तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता है। उन तक पहुंचने के पहले इसके कितने पहलू बना दिए जाते हैं कि गंभीर कन्फ्यूजन हो जाता है।
ठीक बंटवारे के पहले समाज कि कुछ ऐसी ही स्थिति थी। सत्ता के लोभ में तत्कालीन कांग्रेसी नेता कुछ भी करने को तैयार थे। जिन बच्चों को काट दिया गया ,नौजवानों को फांसी पर चढ़ा दिया गया उन्हें शहादत का लबादा पहनाकर महिमामंडित किया गया। आज सरकार के खिलाफ कुछ ऐसे ही वातावरण की रचना करने की कोशिश की जा रही है। कोई यह नहीं सोचता कि इंसानी वजूद और पीड़ा प्रमुख है । आज शाहीन बाग और उस तरह के अन्य शहरों में प्रदर्शन को अगर राजनीति की इंटरप्ले के नजरिए से मूल्यांकन करें तो बात समझ में आएगी। इसका सच क्या है? यह कांग्रेस की आदतों में शुमार है। जब जब उसकी सत्ता को खतरा महसूस हुआ है तब तब उसने कुछ इसी तरह की सामाजिक साजिशों की रचना कर सत्ता को हथियाने की कोशिश की है। लोग इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं या समझते भी भी जानबूझकर अनजान बने हुए हैं कि किसी भी क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया होती है। नेहरू के भीतर सत्ता का लोभ पनपा और उसी के प्रतिक्रिया स्वरूप जिन्ना भी अपनी जगह पर अड़ गए। नतीजा हुआ कि भारत बंट गया और बंटवारे के नाम पर बनी नियंत्रण रेखा। उसकी लकीर से अभी भी हिंदुओं और सिखों का खून रिस रहा है।
मोहब्बत करने वालों में झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है
Posted by pandeyhariram at 5:05 PM 0 comments
Thursday, February 6, 2020
श्री राम जन्मभूमि तीर्थ राष्ट्रीय एकता का प्रतीक
अब यहां सबसे स्वाभाविक प्रश्न है कि राम जन्म भूमि ट्रस्ट के पास मंदिर निर्माण के लिए उपयुक्त धन है या नहीं और अगर धन है तो कितना है। उसके पास कितना पैसा जमा है। यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर सब कोई जानना चाहेगा। राम मंदिर आंदोलन का नेतृत्व करने वाली संस्था विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में भव्य मंदिर के निर्माण के उद्देश्य से 1985 में श्री राम जन्मभूमि न्यास की स्थापना की थी और यह न्यास मंदिर को मिलने वाले चंदे का प्रबंधन करता रहा है। जैसी कि खबर है ट्रस्ट के पास लगभग 13 करोड़ रुपए इस उद्देश्य के लिए जमा हैं। जिनमें लगभग साढे आठ करोड़ रुपए कॉर्पस फंड में और साढे चार करोड़ रुपए नन कॉर्पस फंड में जमा हैं। हां एक तथ्य काबिले गौर है कि ट्रस्ट को 2018 - 19 में करीब 45 लाख रुपए का चंदा मिला था और उसके पिछले वर्ष इस संस्था को डेढ़ करोड़ रुपए मिले थे। 1990 में विश्व हिंदू परिषद ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर बताया था कि उसे 1989 के आंदोलन के दौरान राम मंदिर के लिए 8 करोड़ 29 लाख रुपए का चंदा मिला था जिसमें उसने एक करोड़ 63 लाख रुपया खर्च कर दिए थे। अभी हाल में जारी एक प्रेस रिलीज में विश्व हिंदू परिषद ने कहा है कि वह राम मंदिर निर्माण के लिए कोई चंदा नहीं एकत्र कर रही है ,नाही इस तरह की उसने कोई अपील की है। दूसरी ओर अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि ट्रस्ट की कार्यशाला में अभी भी मंदिर निर्माण के लिए चंदा लिया जा रहा है। विश्व हिंदू परिषद के महासचिव मिलिंद परांडे के मुताबिक राम जन्मभूमि ट्रस्ट ने 1989- 90 के बाद राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए कोई धन संग्रह की अपील नहीं की है और ना ही ऐसा कोई धन संग्रह किया है। उन्होंने कहा कि धन का खर्च न्यास की देखरेख में उद्देश्य के अनुसार ही हुआ है। जो भी धन समाज ने स्वयं लाकर सौंपा है उसे ही स्वीकार किया गया है।
हममें से बहुतों को याद होगा कि 80 के दशक में विहिप नेता अशोक सिंघल की अगुवाई में राम मंदिर आंदोलन चरम पर था और एक नारा एक गीत के रूप में प्रचलित था कि " सवा रुपैया दे दे भैया, रामशिला के नाम का , राम के घर में लग जाएगा पत्थर तेरे नाम का।" विहिप ने सब को बताया था कि इस पैसे का उपयोग तब होगा जब मंदिर बनेगा।
विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने नई दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि मंदिर निर्माण की मूल डिजाइन को ही माना जाएगा क्योंकि आंदोलन ने इसी डिजाइन को अनुमति दी है। उन्होंने कहा कि हर एक हिंदू को धन से और शरीर से इस मंदिर के निर्माण में सहयोग देने की आजादी है। आलोक कुमार ने कहा की हर एक व्यक्ति को कम से कम 11 रुपए दान देने को कहा जाएगा ताकि मंदिर निर्माण के लिए धन एकत्र हो। हर एक हिंदू को मंदिर निर्माण में हाथ लगाने का मौका दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि, राम मंदिर आंदोलन के दौरान जिन गांव ने रामशिला या ईंट दिया था 25 मार्च चैत्र नवरात्रि से 8 अप्रैल हनुमान जयंती के बीच राम उत्सव मनाने के लिए कहा जाएगा और वह राम मंदिर निर्माण के लिए शोभा यात्राएं निकालेंगे। आलोक कुमार ने कहा अयोध्या में राम मंदिर बनने में लगभग 4 वर्ष लगेंगे और प्रयागराज की यात्रा करने वालों की राह में यह एक प्रमुख तीर्थ होगा।
उधर पूर्व मंत्री उमा भारती ने बाबरी विध्वंस पर एक विवादित बयान देते हुए कहा है कि अगर वह ढांचा नहीं गिरा होता तो सच्चाई लोगों के सामने नहीं आती । अगर संरचना नहीं हटाई गई होती तो पुरातत्व विभाग की टीम महत्वपूर्ण सबूतों का पता नहीं लगा पाती। जब उनसे पूछा गया कि राम मंदिर निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाले निर्णय का श्रेय किसे दिया जाना चाहिए तो उन्होंने कहा कि यह श्रेय माननीय सर्वोच्च न्यायालय को जाता है लेकिन जिन साक्ष्यों ने वास्तव में निर्णय का आधार बनाया वह 6 दिसंबर 1993 को अपनी जान गंवाने वालों के परिणाम थे। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण में 15 साल पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के बाद अयोध्या में विवादित भूमि की खुदाई की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने 9 नवंबर 2019 को अपने फैसले में कहा था अयोध्या में विवादित स्थल के नीचे की संरचना इस्लामिक नहीं है। लेकिन पुरातात्विक सर्वेक्षण स्थापित नहीं कर पाए कि क्या मस्जिद बनाने के लिए मंदिर को गिराया गया था।
बुधवार को राम मंदिर ट्रस्ट की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही कि देश का हर नागरिक भारतीय है। प्रधानमंत्री के इस कथन से देश में एकता को बल मिलेगा और पारस्परिक सौहार्द को बढ़ावा मिलेगा। अगर इस दिशा में सभी सोचें तो भारत सच में महान बन जाएगा। प्रधानमंत्री की बात पर ध्यान देना जरूरी है। इस पर किसी तरह की राजनीति गलत होगी। क्योंकि यह देश की एकता और एकजुटता का प्रश्न है। इस समय राष्ट्रीय एकजुटता ही सबसे प्रमुख है। ऐसे समय में राम मंदिर निर्माण के लिए कदम बढ़ाया जाना एक तरह से राष्ट्र निर्माण की ओर कदम बढ़ाने की तरह है। क्योंकि राम समस्त देशवासियों को एक साथ लेकर चलने और उनमें सौहार्द भरने के समर्थक थे। उन्होंने केवट को भी यह हक दिया की वह नाव देने से इंकार कर दे ,साथ ही शबरी के जूठे बेर भी खाए। राम भारतीय एकता के प्रतीक हैं और इस समय सबसे ज्यादा संकट भारतीय एकता पर है और प्रधानमंत्री की घोषणा एकता के भाव को बढ़ावा देगी।
वह राम न हिंदू हैं न मुसलमान हैं
वह तो समूचा हिंदुस्तान हैं
Posted by pandeyhariram at 4:40 PM 0 comments
Wednesday, February 5, 2020
पड़ोसी को पांच 7 दिनों में धूल चटाने का साहस
अभी पिछले चार-पांच दिनों में सेना को लेकर दो बड़ी महत्वपूर्ण बातें सामने आयीं। पहली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि हमारी फौज पाकिस्तान को 1 हफ्ते से कम समय में हरा सकती है और दूसरी बात लेखा महा परीक्षक यानी सीएजी रिपोर्ट में कही गई है कि सियाचिन में तैनात भारतीय सैनिकों के पास सर्दियों के लिए विशेष कपड़ों और साजो सामान के भंडार की भारी कमी है। यहां तक कि उन्हें जरूरत के मुताबिक खाना भी नहीं मिल रहा है। रक्षा मंत्रालय ने हालांकि कहा है कि कमियों को ठीक कर दिया जायेगा। एक सेना अधिकारी ने बयान दिया है कि सीएजी की जिस रिपोर्ट को चर्चा का विषय बनाया जा रहा है वह 2015 -16 से 2018 -19 के दौरान की है। अब चीजों को सुधार दिया गया है। सियाचिन में तैनात एक सैनिक की पोशाक पर करीब ₹100000 तक का खर्च आता है।
हमारे देश में जहां 'ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी' से लेकर देश भक्ति के एक मजबूत आइकन के रूप में सेना को प्रस्तुत करने के प्रयास के बीच सीएजी की रिपोर्ट काफी हताश करने वाली है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री का यह कथन के एक सप्ताह से कम समय में हमारी सेना पाकिस्तान को पराजित कर सकती है। आश्चर्य की बात है कि दुनिया की चौथी सबसे बड़ी फौजी ताकत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी फौजी ताकत को महज सप्ताह भर से कम समय में पराजित कर सकती है। जबकि ,दोनों देश परमाणु हथियारों से लैस हैं। कुछ लोग इसे प्रधानमंत्री का बड़बोलापन कह रहे हैं। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी मुगालते में रहने वाले व्यक्ति नहीं है और उनमें अकूत स्मार्टनेस है। अगर ऐसा नहीं होता तो वे इस पद तक पहुंचते ही नहीं। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न है की आप कोई जंग सात दिनों में या दस दिनों में जीत सकते हैं या नहीं ? यहां जवाब निर्भर करता है कि जीत की परिभाषा क्या होगी? जीत किसे समझा जाए?
सच्चे रणनीतिक मसले अत्यंत जटिल होते हैं। इसमें सामने वाले का मनोविज्ञान समझना होता है कृष्ण का दूत बनकर कर दुर्योधन की सभा में जाना ऐसे रणनीतिक मसलों का एक बड़ा ही सटीक उदाहरण है । सबसे पहले यह समझना जरूरी है रणनीतिक मसले खिलवाड़ वाले मुद्दे नहीं होते। रणनीतिक मसलों को समझने के लिए रणनीतिक और राजनीतिक इतिहास में ढूंढना पड़ता है और जीत हार की कुछ अशाश्वत परिभाषाओं को खंगालना पड़ता है। इसलिए जो चर्चा नरेंद्र मोदी से शुरू होती है और अपने पीछे 2 भुट्टो, इंदिरा गांधी, वीपी सिंह, अटल बिहारी वाजपई तक जाकर फिर मोदी पर लौटती है। यहां सब से बड़ी बात है कि वह जमाना बीत गया जो दूसरे विश्वयुद्ध का था। अब किसी देश को या देशों के समूह को दूसरे विश्वयुद्ध वाले अंदाज में हराना नामुमकिन है। उस विश्वयुद्ध के बाद इतिहास में कोई ऐसी मिसाल नहीं है। महाबलशाली अमेरिका कोरिया, वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक में उलझा रहा। उसने केवल निजाम बदलने में सफलता पाई। अफगानिस्तान में सोवियत संघ की विफलता ने उसकी विचारधारा और सैन्य गुटबंदी को ही खत्म कर दिया। बेहद अमीर सऊदी अरब करीब 5 वर्षों में गरीब यमन को नहीं हरा सका। इराक ने 1980 में ईरान पर हमला किया और 8 वर्षों की जंग के बाद दोनों देशों के हाथ केवल लाशें ,अपंगता और युद्ध बंदी ही लगे। कोई वास्तविक लाभ नहीं मिला। किसी छोटे देश में बहुराष्ट्रीय दबाव के बल पर निजाम बदलने को उस देश पर विजय नहीं कह सकते। हमारा देश पिछले 73 वर्षों में पाकिस्तान और चीन से चार बड़ी लड़ाइयां लड़ चुका है। जिनमें से दो निर्णायक रहीं। 1971 की लड़ाई में विजय याद रहती है सबको लेकिन 1962 में चीन से लड़ाई के दौरान पराजय कोई याद नहीं रखता। हम उसे भूल जाते हैं। चीन से पराजय भी 2 पखवाड़े के जोरदार ऑपरेशन के बाद हुई थी।
मोदी जी की बात पर जो लोग हंसते हैं उन्हें हमेशा याद रखना चाहिए कि दोनों युद्ध दो हफ्तों में खत्म किया गया। लेकिन आज आधुनिक राष्ट्रों के बीच के युद्ध में हार जीत की परिभाषा बदल गई है। 1971 में पाकिस्तान का विभाजन कर दिया गया और ढाका पर कब्जा हो गया तो इंदिरा जी ने पश्चिमी क्षेत्र में बराबरी पर चल रही लड़ाई में पाकिस्तान से एकतरफा युद्ध विराम की पेशकश की। जैसे ही पाकिस्तान ने इसे कबूल किया इंदिरा जी ने अपनी जीत की घोषणा कर दी। इसी तरह 1962 में चीन ने भारत को एकतरफा युद्ध विराम की पेशकश की और वह भी घोषित कर दिया गया कि वह लद्दाख के कुछ हिस्से छोड़कर युद्ध से पहले वाली जगह पर लौट रहा है। जैसे ही भारत ने इस पेशकश को कबूल किया और संकल्प लिया कि इसका बदला बाद में लेंगे चीन ने अपनी विजय की घोषणा कर दी।
चीन को समतल क्षेत्र में ऐसी लड़ाई में उलझे रहने के खतरे मालूम थे। जिसमें जीतना मुश्किल था । ल इंदिरा गांधी को भी सोवियत संघ द्वारा समझाए बुझाने पर समझ में आया कि पश्चिमी क्षेत्र में जो लड़ाई बराबर की है। इसलिए किसी युद्ध में विजय तब तक नहीं होती जब तक दूसरे देश को बुरी तरह परास्त नहीं कर दिया जाता है या घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया जाता है । जैसा कि नाजी जर्मनी और साम्राज्यवादी जापान के मामले में हुआ था। मध्य युग में तय किए गए मानदंड को पूरा कर लिया जाता है तो जीत मानी जाती है जब लड़ाई करने वाला देश यह फैसला कर लेता है उसने अपना मकसद हासिल कर लिया। आज जीत के लिए सबसे पहले अपना लक्ष्य साफ तौर पर तय करना पड़ता है और यह दूरदर्शिता दिखानी पड़ती है कि अपनी जीत की घोषणा कब कर देनी होगी।
कारगिल की लड़ाई सबको याद होगी। चर्चा यही से शुरू हुई थी। उस लड़ाई में भारत विजयी हुआ था । उसका कारण था की अटल बिहारी बाजपेई ने जीत की परिभाषा काफी छोटी तय की थी और पाकिस्तान को एलओसी के पीछे धकेल दिए जाने को ही पाकिस्तान पर जीत मान लिया। पाक ने मुख्य इलाके पर कब्जा करके भारत को कश्मीर पर समझौते के लिए मजबूर करने के मकसद से लड़ाई शुरू की थी। बाजपेई जी ने इस मकसद को नाकाम करना ही अपना लक्ष्य तय किया था और जैसे ही अलग हासिल हुआ उन्होंने जीत की घोषणा कर दी।
लेकिन इसी वर्णपट पर बालाकोट के हमले को देखें। प्रश्न उलझन भरा है। भारत ने एक रणनीतिक और राजनैतिक संदेश देने के लिए पाकिस्तान में बहुत भीतर तक घुस कर बमबारी की थी। अपना मकसद पूरा कर लेने के बाद उसे पाकिस्तानी जवाब के लिए तैयार रहने के सिवा कुछ नहीं करना था । उधर, पाकिस्तान को भारत का एक पायलट और एक विमान का मलबा हाथ लगा। दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी विजय की घोषणा कर दी। इसका मतलब है कि लड़ाई चाहे जो भी हो अगर आप जीत की परिभाषा तय करना जानते हैं और आप में दूरदर्शिता है तो आप युद्ध जीत सकते हैं यहां तक कि बिना लड़े भी जीत सकते हैं और बहुत संभव है कि आने ही वाले वर्षों में ऐसा हो जहां तक सेना को आइकन के रूप में प्रस्तुत करने का सवाल है तो मोदी जी ने बड़ी चालाकी से या कहें बहुत सामर्थ्य पूर्ण ढंग से फौज को आम जनता के लिए एक बिंब बना दिया। उसे होने वाली तकलीफ हो और उसकी तकलीफ हो इतना गौरवान्वित कर दिया है कि खुद फौजी भी शिकायत ना करें ।अगर इस नजरिए से मोदी जी वाली बात देखें तो मामला दूसरा ही दिखेगा। मोदी जी की बात देश का साहस बढ़ती है कि वे एक साथ हैं और पड़ोसी से डर नहीं है।
Posted by pandeyhariram at 5:21 PM 0 comments
Tuesday, February 4, 2020
शाहीन बाग प्रदर्शन: संयोग नहीं प्रयोग है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को दिल्ली के सीबीडी ग्राउंड में चुनावी रैली में कहा कि शाहीन बाग में बीते कई दिनों से नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हो रहे प्रदर्शन संजोग नहीं प्रयोग हैं । उन्होंने कहा कि इसके पीछे राजनीति का एक ऐसा डिजाइन है जो राष्ट्र के सौहार्द को खंडित करेगा। यह सिर्फ इसी कानून के विरोध का प्रदर्शन का मामला होता तो सरकार के आश्वासन के बाद समाप्त हो चुका होता लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। संविधान और तिरंगे की ओट में असली साजिश से ध्यान हटाया जा रहा है। प्रधानमंत्री का यह कहना बिल्कुल सही है। कहते हैं, दिल्ली में कम से कम 9 शहर हैं और यहां की अधिकांश आबादी दूसरे शहरों से या दूसरी जगहों से आकर बसी है। अखबारों को सही मानें तो महिलाएं शाहीन बाग में दिन-रात प्रदर्शन कर रहीं है और प्रतिरोध की कविताएं गा रही हैं ,क्रांति के गीत सुन रही साथ ही हड्डियों तक पहुंचने वाली सर्द रातों में बच्चों को लोरियां भी सुना रहीं हैं। वह बच्चों को ठंड में भी लेकर आई हैं। प्रदर्शन करने वाली महिलाएं गरीब हैं और बच्चों के लिए दाईयां नहीं रख सकती हैं। उन महिलाओं के बारे में टीवी रपटों को देखा जाए तो यह कहते सुना जा सकता है कि वे संविधान बचाने के लिए प्रदर्शन कर रही हैं।
जिन लोगों ने जमाना देखा है उन्हें यह मालूम होगा कि प्रदर्शन क्या होते हैं। 80 के दशक में बिहार का प्रदर्शन सामाजिक और राज्य का विरोध के लिए चक्का जाम कर दिया जाना और सड़क परिवहन को ठप किया कर दिया जाना उस समय की मामूली बात थी। आडवाणी जी को गिरफ्तार किए जाने के बाद लगे कर्फ्यू को तो सब ने महसूस किया होगा। हाईस्कूल की परीक्षाओं में हममें से बहुतों ने सरकार की नीतियों के निर्देशात्मक सिद्धांत और मूलभूत सिद्धांत पर लेख लिखे होंगे। 2011 में अमेरिका में ओकूपाई मूवमेंट शुरू हुआ था। यह मूवमेंट आर्थिक असमानता का था। टाइम पत्रिका में इस मूवमेंट के बारे में बड़ी अच्छी तस्वीर छपी थी। जिसमें एक दरवाजे पर लिखा था "आप घर छोड़ चुके हैं" और दूसरे पर लिखा था "वेलकम टू लाइफ।" एक तरह से यह मूवमेंट लोगों को राजनीति में सीधे सक्रिय होने का एहसास कराने वाला था जो लोग इसमें शामिल हो रहे थे वह नए उत्साह से भरे हुए थे। 2012 में फिलाडेल्फिया में "ओकूपाई द हुड" शुरू हुआ था।
शाहीन बाग के इसी प्रदर्शन के बीच गणतंत्र दिवस भी आया। फूल बरसाते हेलीकॉप्टर और राजपथ पर निकली झांकियों के बीच फूल से महरूम शहीन बाग की झांकी देखकर वर्षों पहले लिखी हरिशंकर परसाई की कविता "सत्यमेव जयते" याद आती है, जिसमें कहा गया है कि "यह हमारा मोटो है लेकिन झांकियां झूठ बोलती हैं।" इन सबके बावजूद मोदी जी का यह कहना कि "यह प्रदर्शन संजोग नहीं एक प्रयोग है," बिल्कुल सही लगता है। क्योंकि इस प्रदर्शन का असर हमारे समाज पर बहुत दिनों तक रहेगा। इस तरह के प्रदर्शन अक्सर समाज के सोच को बदलते हैं और वर्चस्व स्थापना की ओर कदम बढ़ाने के लिए उकसाते हैं। जब -जब भी इस तरह के सार्वजनिक प्रदर्शन हुए हैं तब -तब व्यवस्था प्रभावित हुई है। भारत में इस तरह का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन सिपाही विद्रोह के बाद लोगों का अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर आना था। उसके बाद नमक आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन , जयप्रकाश के संपूर्ण क्रांति आंदोलन इत्यादि। सब में व्यवस्था को प्रभावित होते देखा गया है और सारे इस तरह की आंदोलन अपने आप में एक प्रयोग के तौर पर थे। वह प्रयोग व्यवस्था को प्रभावित करने वाला था। शाहीन बाग का यह प्रदर्शन एक वैसा ही प्रयोग है। लेकिन इस प्रयोग में समाज को और उसके सौहार्द को दो हिस्से में बांटने की साजिश दिखाई पड़ती है। इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समय रहते हैं देश की जनता को चेतावनी दी है।
इस आग को राख से बुझाइए
इस दौरे सियासत का अंधेरा मिटाइए।
Posted by pandeyhariram at 5:07 PM 0 comments
Monday, February 3, 2020
आने वाले दिन और भी मुश्किलें पैदा कर सकते हैं
एक पखवाड़े पहले ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें दुनिया भर में अमीर और गरीब आबादी के बीच का फर्क दिखाया गया था। इस रिपोर्ट ने दुनियाभर के नीति निर्माताओं को सकते में डाल दिया। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में अमीरों की संख्या बढ़ी है और गरीबों की घटी है। एक आम आदमी यह सुनकर हक्का-बक्का रह सकता है कि दुनिया में केवल 62 ऐसे लोग हैं जिनके पास इतनी ज्यादा दौलत है जितनी कुल मिलाकर इस धरती पर मौजूद आबादी के आधे सबसे गरीब लोगों के पास नहीं है। सरल शब्दों में कहें तो 62 लोग जो एक बड़ी बस में समा सकते हैं उनके पास इतनी दौलत है जितनी दुनिया के साढे 3 अरब लोगों के पास कुल मिलाकर नहीं है। आप कह सकते हैं कि यह कौन सी नई बात है ? तो क्या यह नहीं पूछेंगे कि विकास और तरक्की के दावे सिर्फ कुछ लोगों को अमीर बनाने के लिए हैं। गरीब अगर गरीब हुआ तो यह चिंता की बात नहीं है क्या अमीर और गरीब के बीच का अंतर बढ़ना समाज या आम लोगों के लिए चिंता की कोई बात नहीं है? ऑक्सफैम की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया का हर तीसरा आदमी भारी गरीबी में जी रहा है और ऑक्सफैम की कोशिश लोगों की सामूहिक शक्ति को जुटाकर गरीबी भुखमरी के खिलाफ मुहिम करना है। इस सिलसिले में स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीतियों को प्रभावित करना है ताकि गरीबी कम हो। 2015 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार बीटन को मिला था उनके शोध के अनुसार गरीबी और अमीरी की असमानता की ओर दुनिया को देखना चाहिए। जब ज्ञान और टेक्नोलॉजी का विस्तार हो रहा है तो आखिर गरीबी क्यों बढ़ रही है? इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए।
ये आंकड़े एक गंभीर समस्या की ओर इशारा करते हैं, जो ही यह भी बताते हैं कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष सामने आए और इसका समाधान करे, ताकि दूरगामी आर्थिक विकास हो सके। भारत आर्थिक असमानता के लिए कई तरह से बदनाम है। सुनकर हैरत होगी कि भारत के शीर्ष तकनीकी सीईओ को जितना 1 वर्ष में वेतन मिलता है उतनी दौलत कमाने में घरेलू कामकाज करने वाली एक महिला को 22 हजार 277 वर्ष लगेंगे ।
इस पर लगातार बहस होती है दुनिया के हर मंच पर बहस होती है कि विकास हो। लेकिन विकास का अर्थ क्या है? यहां सबसे जरूरी है आज के नौजवान के लिए इस असमानता का भविष्य में क्या अर्थ होगा यह समझना। अगर ऑक्सफैम रिपोर्ट कोई संकेतक है तो इसका मतलब है कि असमान वर्तमान और ज्यादा असमान भविष्य का सृजन करेगा। इसमें भारतीय समाज की क ई विफलतायें भी शामिल हैं। वैसे असमानता का यह भार महिलाओं को ज्यादा बर्दाश्त करना पड़ता है। उन्हें लगातार देखरेख और खर्च के बोझ से निपटना पड़ता है। अगर आंकड़ों को देखें तो महिलाओं को रोजाना 352 मिनट इस देखरेख के कार्य में लगाने पड़ते हैं। जबकि, पुरुषों को केवल 51.8 मिनट लगाने होते हैं। यही नहीं इन दिनों समाज कल्याण के काम बहुत कम देखे जा रहे हैं। समाज कल्याण के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वह किसी निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए हो रहा है। गैर बराबरी के चलते देश में समाज कल्याण पर खर्च बहुत तेजी से घट रहा है और सकल घरेलू उत्पाद का केवल 5% स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च हो रहा है।
महिलाओं को घरेलू देखरेख के लिए कोई पैसा नहीं मिलता है। यही नहीं अधिकांश महिलाओं को कामकाज करने की अनुमति भी नहीं मिलती है। श्रम शक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी के बारे में एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 2017 -18 में बड़ी तेजी से इसमें गिरावट आई है और अब केवल 16.5% ही रह गई है । इतना ही नहीं बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है यह चिंता का विषय है। क्योंकि, बहुत कम महिलाएं श्रम शक्ति में अपनी भूमिका निभा रही हैं। जो पहले थी भी वह इन दिनों बेकार हो गई हैं एक ऐसे समय में जब महिला और पुरुष की धन के बीच समानता को खत्म करने की कोशिश हो रही है और महिलाओं की आमदनी बढ़ाने का प्रयास चल रहा है वैसे में ऑक्सफैम की यह रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं को कम मजदूरी मिलती है और रोजगार भी कम मिलता है
रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं की 2019 में लोगों में घर खरीदने की क्षमता तेजी से घटी है इससे पता चलता है की लोग किराया के मकान में रह ले रहे हैं क्योंकि यह माई की बढ़ी हुई दर देने का सामर्थ्य में खत्म होता जा रहा है इस स्थिति का प्रभाव देश के आर्थिक विकास पर पड़ रहा है। विगत 15 वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था इस असमानता को इसी प्रकार झेलती रही है। किंतु अब असमानता सीमा पार कर चुकी है । आंकड़ों के मुताबिक देश की 75% महिलाएं जो काम करती हैं उनकी औसत आमदनी ₹20000 है। साथ ही 60% दिहाड़ी पर काम करने वाली महिलाएं केवल ₹5000 कमा पाती हैं। इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। यहां तक कि जो लोग कमाते हैं वह भी इतना नहीं कमा पाते कि राष्ट्रीय व्यय चक्र को संभाल सकें। अभी जो समाजिक और छात्र विरोध चल रहा है उसके मूल में यही आर्थिक असमानता भी एक कारण है। आर्थिक मंदी के कारण समस्याएं और तनाव बढ़ते जा रहे हैं। लोगों को यह बताना जरूरी है कि यह मामला अर्थव्यवस्था का है। समाजिक खर्चों में वृद्धि कर और देखरेख के काम में प्रवृत्तियों को परिवर्तित कर अच्छे वेतन की अगर व्यवस्था हो सके तो इस उद्देश्य की ओर यानी संदेश में शांति बढ़ावा देने और तनाव घटाने के उद्देश्य की ओर बढ़ा जा सकता है। इससे केवल वर्तमान प्रभावित नहीं हो रहा है हमारा आने वाला कल भी इससे प्रभावित होगा और देश के सामने अन्य कई समस्याएं उत्पन्न होंगी।
Posted by pandeyhariram at 4:49 PM 0 comments