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Wednesday, February 5, 2020

पड़ोसी को पांच 7 दिनों में धूल चटाने का साहस

पड़ोसी को पांच 7 दिनों में धूल चटाने का साहस 

अभी पिछले चार-पांच दिनों में सेना को लेकर दो बड़ी महत्वपूर्ण बातें सामने आयीं। पहली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि हमारी फौज पाकिस्तान को 1 हफ्ते से कम समय में हरा सकती है और दूसरी बात लेखा महा परीक्षक यानी सीएजी रिपोर्ट में कही गई है कि सियाचिन में तैनात भारतीय सैनिकों के पास सर्दियों के लिए विशेष कपड़ों और साजो सामान के भंडार की भारी कमी है। यहां तक कि उन्हें जरूरत के मुताबिक खाना भी नहीं मिल रहा है। रक्षा मंत्रालय ने हालांकि कहा है कि कमियों को ठीक कर दिया जायेगा। एक सेना अधिकारी ने बयान दिया है कि सीएजी की जिस रिपोर्ट को चर्चा का विषय बनाया जा रहा है वह 2015 -16 से  2018 -19 के दौरान की है। अब चीजों को सुधार दिया गया है। सियाचिन में तैनात एक सैनिक की पोशाक पर करीब ₹100000 तक का खर्च आता है।
        हमारे देश में जहां 'ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी' से लेकर देश भक्ति के एक मजबूत आइकन के रूप में सेना को प्रस्तुत करने के प्रयास के बीच सीएजी की रिपोर्ट काफी हताश करने वाली है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री का यह कथन के एक सप्ताह से कम समय में हमारी सेना पाकिस्तान को पराजित कर सकती है। आश्चर्य की बात है कि दुनिया की चौथी  सबसे बड़ी फौजी ताकत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी फौजी ताकत को महज सप्ताह भर से कम समय में पराजित कर सकती है। जबकि ,दोनों देश परमाणु हथियारों से लैस हैं। कुछ लोग इसे प्रधानमंत्री का बड़बोलापन कह रहे हैं। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी मुगालते में रहने वाले व्यक्ति नहीं है और उनमें अकूत स्मार्टनेस है। अगर ऐसा नहीं होता तो वे इस पद तक पहुंचते ही नहीं। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न है की आप कोई जंग सात दिनों में या दस दिनों में जीत सकते हैं या नहीं ? यहां जवाब निर्भर करता है कि जीत की परिभाषा क्या होगी? जीत किसे समझा जाए?
   सच्चे रणनीतिक मसले अत्यंत जटिल होते हैं। इसमें सामने वाले का मनोविज्ञान समझना होता है कृष्ण का दूत बनकर कर दुर्योधन की सभा में जाना ऐसे रणनीतिक मसलों का एक बड़ा ही सटीक उदाहरण है । सबसे पहले यह समझना जरूरी है रणनीतिक मसले खिलवाड़ वाले मुद्दे नहीं होते। रणनीतिक मसलों को समझने के लिए रणनीतिक और राजनीतिक इतिहास में ढूंढना पड़ता है और जीत हार की कुछ अशाश्वत परिभाषाओं को खंगालना पड़ता है। इसलिए जो चर्चा नरेंद्र मोदी से शुरू होती है और अपने पीछे 2 भुट्टो, इंदिरा गांधी, वीपी सिंह, अटल बिहारी वाजपई तक जाकर फिर मोदी पर लौटती है। यहां सब से  बड़ी बात है कि वह जमाना बीत गया जो दूसरे विश्वयुद्ध का था। अब किसी देश को या देशों के समूह को दूसरे विश्वयुद्ध वाले अंदाज में हराना नामुमकिन है। उस विश्वयुद्ध के बाद इतिहास में कोई ऐसी मिसाल नहीं है। महाबलशाली अमेरिका कोरिया, वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक में उलझा रहा। उसने केवल निजाम बदलने में सफलता पाई। अफगानिस्तान में सोवियत संघ की विफलता ने उसकी विचारधारा और सैन्य  गुटबंदी को ही खत्म कर दिया। बेहद अमीर सऊदी अरब करीब 5 वर्षों में गरीब यमन को नहीं हरा सका। इराक ने  1980 में ईरान पर हमला किया और 8 वर्षों की जंग के बाद दोनों देशों के हाथ केवल लाशें ,अपंगता और युद्ध बंदी ही लगे। कोई वास्तविक लाभ नहीं मिला। किसी छोटे देश में बहुराष्ट्रीय दबाव के बल पर निजाम बदलने को उस देश पर विजय नहीं कह सकते। हमारा देश पिछले 73 वर्षों में पाकिस्तान और चीन से चार बड़ी लड़ाइयां लड़ चुका है। जिनमें से दो निर्णायक रहीं। 1971 की लड़ाई में विजय याद रहती है सबको लेकिन 1962 में चीन से लड़ाई के दौरान पराजय कोई याद नहीं रखता। हम उसे भूल जाते हैं। चीन से पराजय भी 2 पखवाड़े के जोरदार ऑपरेशन के बाद हुई थी।
      मोदी जी की बात पर जो लोग हंसते हैं उन्हें हमेशा याद रखना चाहिए कि दोनों युद्ध दो हफ्तों में खत्म किया गया। लेकिन आज आधुनिक राष्ट्रों के बीच के युद्ध में हार जीत की परिभाषा बदल गई है। 1971 में पाकिस्तान का विभाजन कर दिया गया और ढाका पर कब्जा हो गया तो इंदिरा जी ने पश्चिमी क्षेत्र में बराबरी पर चल रही लड़ाई में पाकिस्तान से एकतरफा युद्ध विराम की पेशकश की। जैसे ही पाकिस्तान ने इसे कबूल किया इंदिरा जी ने अपनी जीत की घोषणा कर दी। इसी तरह 1962 में चीन ने भारत को एकतरफा युद्ध विराम की पेशकश की और वह भी घोषित कर दिया गया कि वह लद्दाख के कुछ हिस्से छोड़कर युद्ध से पहले वाली जगह पर लौट रहा है। जैसे ही भारत ने इस पेशकश को कबूल किया और संकल्प लिया कि इसका बदला बाद में लेंगे चीन ने अपनी विजय की घोषणा कर दी।
         चीन को समतल क्षेत्र में ऐसी लड़ाई में उलझे रहने के खतरे मालूम थे। जिसमें जीतना मुश्किल था । ल इंदिरा गांधी को भी सोवियत संघ द्वारा समझाए बुझाने पर समझ में आया कि पश्चिमी क्षेत्र में जो लड़ाई बराबर की है। इसलिए किसी युद्ध में विजय तब तक नहीं होती जब तक दूसरे देश को बुरी तरह परास्त नहीं कर दिया जाता है या घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया जाता है । जैसा कि नाजी जर्मनी और साम्राज्यवादी जापान के मामले में हुआ था। मध्य युग में तय किए गए मानदंड को पूरा कर लिया जाता है तो जीत मानी जाती है जब लड़ाई करने वाला देश यह फैसला कर लेता है उसने अपना मकसद हासिल कर लिया। आज  जीत के लिए सबसे पहले अपना लक्ष्य साफ तौर पर तय करना पड़ता है और यह दूरदर्शिता दिखानी पड़ती है कि अपनी जीत की घोषणा कब कर देनी होगी।
          कारगिल की लड़ाई सबको याद होगी। चर्चा यही से शुरू हुई थी। उस लड़ाई में भारत विजयी हुआ था । उसका कारण था की अटल बिहारी बाजपेई ने जीत की परिभाषा काफी छोटी तय की थी और पाकिस्तान को एलओसी के पीछे धकेल दिए जाने को ही पाकिस्तान पर जीत मान लिया। पाक ने मुख्य इलाके पर कब्जा करके भारत को कश्मीर पर समझौते के लिए मजबूर करने के मकसद से  लड़ाई शुरू की थी। बाजपेई जी ने इस मकसद को नाकाम करना ही अपना लक्ष्य तय किया था और जैसे ही अलग हासिल हुआ उन्होंने जीत की घोषणा कर दी।
        लेकिन इसी वर्णपट पर बालाकोट के हमले को देखें। प्रश्न उलझन भरा है। भारत ने एक रणनीतिक और राजनैतिक संदेश देने के लिए पाकिस्तान में बहुत भीतर तक घुस कर बमबारी की थी। अपना मकसद पूरा कर लेने के बाद उसे पाकिस्तानी जवाब के लिए तैयार रहने के सिवा कुछ नहीं करना था । उधर, पाकिस्तान को भारत का एक पायलट और एक विमान का मलबा हाथ लगा। दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी विजय की घोषणा कर दी। इसका मतलब है कि लड़ाई चाहे जो भी हो अगर आप जीत की परिभाषा तय करना जानते हैं और आप में दूरदर्शिता है तो आप युद्ध जीत सकते हैं यहां तक कि बिना लड़े भी जीत सकते हैं और बहुत संभव है कि आने ही वाले वर्षों में ऐसा हो जहां तक सेना को आइकन के रूप में प्रस्तुत करने का सवाल है तो मोदी जी ने बड़ी चालाकी से या कहें बहुत सामर्थ्य पूर्ण ढंग से फौज को आम जनता के लिए एक बिंब बना दिया। उसे होने वाली  तकलीफ हो और उसकी तकलीफ हो इतना गौरवान्वित कर दिया है कि खुद फौजी भी शिकायत ना करें ।अगर इस नजरिए से मोदी जी वाली बात देखें तो  मामला दूसरा ही दिखेगा। मोदी जी की बात देश का साहस बढ़ती   है कि वे एक साथ हैं और  पड़ोसी से डर नहीं है।


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