दिल्ली दंगे के बारे में तरह तरह की कहानियां आ रहीं हैं। तरह-तरह के विचार प्रगट किए जा रहे हैं। कोई नेता बोलता है तो कोई हथियार निकाल लेता है। बचपन में एक कहानी पढ़ी थी एक आदमी अपने किसी दोस्त से पैसे मांगने जा रहा था। रास्ते भर वह सोचता रहा कि अगर उसने पैसे देने से इंकार कर दिया क्या किया जाएगा। अंत तक वह बेहद उत्तेजित हो गया और जैसे ही दोस्त ने दरवाजा खोला उसने उसके मुंह पर मुक्का मार दिया। दिल्ली दंगे में ठीक ऐसा ही हो रहा है। हमारे देश में दो ही कौम प्रमुख हैं। हिंदू और मुसलमान दोनों में एक दूसरे के विरोध में तरह तरह की बातें होती हैं। लेकिन यह बातें किसी व्यक्ति विशेष की नहीं होती, यह बातें सामान्यीकरण की होती हैं। लेकिन यही सामान्यीकरण सबसे ज्यादा खतरा पैदा करता है । अभी दिल्ली के दंगों के दौरान खबर आई कि भाजपा एक नेता की एक परिचित मुसलमान जान बचाई। लेकिन कई नेता मुस्लिमों को लक्ष्य बनाकर विस्फोटक बातें बोलते रहते हैं। सोचने वाली बात है या फिर कौन से कारण हैं कि एक नेता के लिए मुस्लिम या हिंदू मित्र हैं ,कुछ नेताओं के लिए यह दुश्मन है। ऐसा भी नहीं जिनके लिए दुश्मनी का भाव है वे उनके मित्रों में शामिल नहीं है। फिर इतने विस्फोटक बयान क्यों दिए जाते हैं? क्या ऐसे बयान वाले नेता अब दूसरी कौम के अपने दोस्त की जान ले लेते हैं ? शायद ऐसा नहीं होता ,जो लोग जहर उगलते हैं वह अपनी दोस्ती बरकरार रखते हैं। यहां तक कि सड़कों पर तलवार और बंदूक लेकर खून नहीं करते हैं, जो भी अपनी दोस्ती कायम रखते हैं। यह नफरत किस लिए? अगर इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो पता चलता है यह नफरत काल्पनिक दुश्मन के लिए है। जो विस्फोटक बातों से तैयार हो जाता है । जैसे किसी पेड़ पर भूत का डेरा या किसी सुनसान मकान में चुड़ैल का निवास ,ऐसा शायद नहीं होता लेकिन लोग उससे भयभीत रहते हैं। इसी तरह जहरीली बातों से तैयार काल्पनिक शत्रुओं को बहुत सारे अनजान लोग मिलकर मारते काटते हैं । ऐसा ही 1984 में सिखों के रूप में तैयार हुआ था। वही भाव इस बार एक नई जाति के रूप में सामने खड़ा है।
विस्फोटक भाषण खतरनाक क्यों होते हैं इसलिए कि यह किसी अनजान इंसान के लिए दुश्मन तैयार करते हैं। अभी हाल के दिल्ली के दंगों के बारे में ऐसी तमाम कहानियां हैं , जिसमें हिंदुओं ने मुसलमानों को बचाया, मुसलमानों ने हिंदुओं को बचाया। क्योंकि यह लोग जो बरसों से एक दूसरे के पड़ोस में रहते थे उनके साथ उठते बैठते थे उनके प्रति मन में नफरत नहीं थी। क्योंकि वह एक दूसरे को जानते थे। इस तरह की नफरत हमेशा काल्पनिक दुश्मन के लिए होती है। इस तरह के दंगों में यही कारण है कि बाहर से लोग बुलाए जाते हैं फसाद करने के लिए। क्योंकि वे एक दूसरे को जानते नहीं। यह उसे मारते हैं जिनसे एक काल्पनिक संबंध है। हथियार से तो सामने खड़े किसी भी आदमी को मारा जा सकता है लेकिन विस्फोटक भाषणों से जन्मे राक्षस से अपने दिमाग में हर किसी को मारते चलते हैं। यह दुश्मन उनकी कल्पना में है। ऐसा भी नहीं यह सारी चीजें बिल्कुल एक दूसरे से पृथक हैं। ऐसा भी नहीं कि दो जाननेवाले दुश्मन को नहीं मारेंगे। भड़काऊ भाषण के बाद यह पहला कदम होगा। इसके बाद के कदम के रूप में लोग अपनी जान पहचान वालों को भी मार सकते हैं । शांति की बात करने वालों को ही मार सकते हैं। सांप्रदायिक नफरत ऐसे ही फैलती है। अगर दिमाग में दुश्मन तैयार होता है और धीरे-धीरे दुश्मन की संख्या बढ़ती जाती है। उसकी लिस्ट लंबी होती जाती है। क्योंकि सांप्रदायिक राजनीति केवल दुश्मनों पर ही चलती है। अगर विस्फोटक भाषण देकर कोई नेता रोज दुश्मन ना बनाएं तो वह किस चीज पर बात करेगा। फिर तो उसे मसलों पर बात करनी पड़ेगी । जो उसके उद्देश्य नहीं हैं। उनका उद्देश्य होता है इन लोगों में इतनी नफरत भर दो की दरवाजा खोलते ही लोग एक दूसरे पर टूट पड़े।
बेशक सुप्रीम कोर्ट ने नफरत फैलाने वाले बयानबाजों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया है इसके बावजूद कुछ सवाल अभी भी ऐसे हैं जिनकी जवाब मिलने बाकी हैं। मसलन जो नेता खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं वह ऐसे बयान बाजों की आलोचना करते समय अभिव्यक्ति की आजादी जैसे जुमले का उपयोग क्यों करते हैं। समाज में कटुता पैदा करने वाले ऐसे लोग चाहे किसी भी दल या धर्म के हैं समाज के लिए बहुत ही घातक हैं। यह लोग सुर्खियों में रहने की लालच में आपत्तिजनक भाषण देते हैं, लोगों को भड़काते हैं।
यहां एक बात बार-बार कुरेद रही है कि केजरीवाल देश के लेफ्ट लिबरल, शहरी अभिजात्य व सवर्ण मध्यवर्ग में जो संतुष्टि का भाव है उसके पीछे का समाजशास्त्रीय दर्शन क्या है? दिल्ली की हिंसा बहुत सारे सवाल पैदा कर रही है जिसका उत्तर मिलना बाकी है।
Sunday, March 1, 2020
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