कोलकाता महानगर में फुटपाथों पर लगभग 70000 लोग रहते थे। कोविड-19 के भयंकर प्रहार से इनकी जिंदगी और इनके रहने के लिए कुछ नहीं रहा उसी तरह अन्य शहरों में भी हालत हैं। कोलकाता का तो आलम यह है कि सड़क पर भिखारी नजर नहीं आते। मंदिरों के सामने भिखारियों का जमघट एक स्थाई दृश्य था खत्म हो गया। मंदिर बंद हो गए ।परोक्ष रूप से कहें तो देश के लगभग 130 करोड़ लोग घरों के अंदर कैद हो गए हैं। मानव इतिहास में ऐसा कभी पाया नहीं गया है। भारत जहां की सड़कें सदा जीवंत रहती थीं। उन सड़कों पर जिंदगी के हर पहलू देखने को मिला करते थे। आज सब वीरान हैं। 3 मई तक यह सब कुछ जारी रहने की उम्मीद है। गूगल द्वारा जारी मोबाइलिटी डाटा के अनुसार भारत में सार्वजनिक उद्यानों में लोगों की आवाजाही में 69% की कमी हुई है। बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों में भीड़ लगभग नहीं है। जिन सघन बाजारों में सुबह से शाम तक भारी भीड़ लगी रहती थी और उनकी तस्वीरें अलग-अलग कोणों से सोशल मीडिया में घूमती रहती थी, आज वहां वीरानी है। इस बीच विभिन्न आर्थिक ,सामाजिक और पर्यावरणीय पहलुओं पर बहस चल रही है और लॉक डाउन के प्रभावों का आकलन हो रहा है। बातों की दिशा अक्सर नकारात्मक हुआ करती है। सब लोग डरावनी तस्वीरों के कोलाज पेश कर रहे हैं। हर बात को खारिज करने और उसकी जगह दूसरी बात चस्पां करने की कोशिशें लगातार हो रही हैं। यहां तक कि हिंसक अपराधों को भी लॉक डाउन के कारण पैदा हुए तनाव का परिणाम बताया जा रहा है। लेकिन जरा ध्यान से सोचें कि इस लॉक डाउन का देश के विभिन्न शहरों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। हमारा देश मोटे तौर पर दो भागों में बंटा है - शहरी और ग्रामीण भाग। यहां हम केवल शहरी भाग पर इस लॉक डाउन के प्रभाव और लोगों के दैनिक जीवन का पब्लिक स्पेस से संबंध का आकलन करेंगे। मुंबई में हर व्यक्ति के बीच 1. 28 वर्ग मीटर का स्पेस उपलब्ध है जबकि लंदन में यह 31.68 वर्ग मीटर और न्यूयॉर्क में 26.4 वर्ग मीटर स्पेस उपलब्ध है। भारत में बड़े शहरों में जो स्पेस उपलब्ध हैं वह जन संकुल बाजारों रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर जाकर और कम हो जाता है। लेकिन यही जगह हैं जहां से जिंदगी की गति शुरू होती है। यह सार्वजनिक स्थल आमतौर पर शोर-शराबे से भरे होते हैं। इन जगहों पर जाना और इधर उधर पहुंचने की कोशिश करना हमारे देश के लोगों की जिंदगी का अभिन्न अंग है। यह साधारण सार्वजनिक स्थल सामाजिक इंटरेक्शन के सफल होते हैं जहां से आर्थिक और सामाजिक लाभ हानि का आकलन होता है। इन शहरों के साधनहीन लोग और भी कठिन परिस्थितियों में तथा जन संकुल स्थितियों में रहते हैं। मंगलवार को एक वर्चुअल कॉन्फ्रेंस के बाद विख्यात उद्योगपति रतन टाटा ने कहा था हम जिन पर गर्व करते थे उन्हीं स्थितियों को लेकर शर्मिंदा हैं लोग अभी भी झोपड़ियों में रहते हैं। उन्होंने लोगों को अपनी जरूरतों को बदलने की सलाह दी ताकि सार्वजनिक स्पेस कम से कम रहने लायक तो हो जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी तरह की मिलती-जुलती बात कही थी और स्मार्ट सिटी की परिकल्पना प्रस्तुत की थी। उस समय उनकी कई क्षेत्रों में व्यापक आलोचना हुई। लेकिन आज कई विद्वानों ने प्रधानमंत्री की स्मार्ट सिटी की परिकल्पना का समर्थन किया है विशेषकर नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी और विश्व विख्यात आर्किटेक्ट डेविड सिम ने इस पर विशेष बल दिया है। लेकिन दुर्भाग्यवश शहरी योजना कारों ने इस पर बहुत ध्यान दिया। प्रधानमंत्री नए 2022 तक एक सौ स्मार्ट सिटी बनाने की बात की थी जिसमें पर्याप्त बिजली मोबिलिटी और सफाई की संपूर्ण व्यवस्था हो ताकि शहर रहने लायक हो सके लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है।
आज देश के विख्यात स्थल लॉक डाउन के कारण वीरान हो गए हैं लेकिन तब भी लोग जरूरत की चीजें खरीदने के लिए सड़कों पर निकलते हैं। उनका इस तरह निकलना अक्सर सोशल स्पेस या कह सोशल डिस्टेंसिंग का सरासर उल्लंघन का उदाहरण है। इस प्रक्रिया में जानकारी का अभाव और कुछ जानबूझकर किए जाने का भाव दोनों शामिल है। यह वर्तमान सामाजिक बिहेवियर के तौर-तरीकों में शामिल है। इन बाजारों में अक्सर देखने को मिल सकता है कि दो परिचित लोग यहां तक कि कुछ अपरिचित भी सियासत, खेल और सिनेमा पर बहस कर रहे हैं। जैसा कि लोगों का आचरण होता है और उनके बातचीत के तौर तरीके होते हैं इससे शहरों के चरित्र को समझा जा सकता है। इस चरित्र में बदलाव लोगों की जिंदगी की गुणवत्ता को बढ़ाने में मदद मिल सकती है। कोरोनावायरस के प्रसार से लोगों में एक विशेष किस्म का नवीन पारस्परिक संबंध का विकास हुआ है जैसे एक दूसरे से पूरी दूरी बनाकर कतार में खड़े रहने का धैर्य विकसित हुआ है। अचानक हुए परिवर्तन से शहरों के बहुस्तरीय जीवन में महत्वपूर्ण सुधार लाया जा सकता है। एक बार अगर लॉक डाउन खत्म हो जाता है तो हो सकता है लोगों में अफरा-तफरी मच जाए लेकिन तब भी लोग चाहेंगे की एक दूसरे से दूरी बनी रहे। भारतीय योजनाकारों खासकर शहरों को बनाने योजना में लगे विशेषज्ञों के लिए यह एक अवसर होगा। वे अगर चाहें तो शहरों की पुरानी लय और गति को बदल सकते हैं तथा पूरी तरह से योजनाबद्ध ढंग से तैयार किए गए सार्वजनिक स्पेस अफरा तफरी के बीच एक रचनात्मक धीमापन लाया जा सकता है। प्रधानमंत्री की स्मार्ट सिटी की परिकल्पना को सही ढंग से पूरा किया जा सकता है। इस लॉक डाउन ने हमारी जिंदगी में एक बहुत ही रचनात्मक परिवर्तन का सूत्रपात किया है वह परिवर्तन है कि हम कैसे एक दूसरे से दूरी बनाए रखकर भी बर्ताव को सही रख सकते हैं।
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