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Friday, April 10, 2020

गैरजरूरी या मजबूरी

गैरजरूरी या मजबूरी

21 दिन का लॉकआउट 14 अप्रैल को खत्म होने वाला है। अब इस को आगे बढ़ाने को लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हैहैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां तक कह दिया है कि हालात बहुत मुश्किल हैं। लेकिन, उन्होंने ऐसा कुछ संकेत नहीं दिया है लॉक डाउन को पूरी तरह हटा दिया जाएगा या नहीं। उनके बॉडी लैंग्वेज या उनकी आवाज या बोलने का अंदाज़ यह प्रतिबिंबित करता है कि हो सकता है लॉक डाउन की अवधी बढ़े। देश के अधिकांश राज्य इसे बढ़ाने के पक्ष में हैं केवल कर्नाटक ने स्पष्ट कहा है की जिन इलाकों में संक्रमण का मामला सामने नहीं आया है उनमें लॉक डाउन हटा देना उचित होगा।यद्यपि और कोरोना संक्रमित जिलों में चरणबद्ध तरीके से लॉक डाउन रहे इसके पक्ष में वे भी हैं। लॉक डाउन खत्म हो या उसे आगे बढ़ाया जाए इसको लेकर किये गए एक सर्वे के मुताबिक 63% लोगों की राय है कि लॉक डाउन को कुछ प्रतिबंधों के साथ हटा देना चाहिए। डॉक्टरों का मानना है कि लॉक डाउन कायम रहे। जबकि, अर्थशास्त्रियों का कहना है लॉक डाउन खत्म हो जाए। दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं।
     लॉक डाउन शुरू होते समय प्रधानमंत्री ने कहा था कि इसका  मकसद वायरस के चेन को तोड़ना और इस बीमारी को समझना है। सचमुच दुनिया के लिए यह बीमारी बिल्कुल अनजान है और जब तक इसे समझा ना जाए तब तक इसके रोकथाम तैयारी नहीं की जा सकती। इसके लिए 21 दिन का वक्त माकूल है। लेकिन अर्थशास्त्रियों का कहना है कि आर्थिक हालात बहुत खराब होते जा रहे हैं इसलिए लॉक डाउन खत्म करना जरूरी है। भारत सरकार के पूर्व मुख्य वित्तीय सलाहकार शंकर आचार्य ने सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के आंकड़ों के हवाले से कहते हैं कि शहरों में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले 29% लोग हैं जबकि उपनगरीय इलाकों में इन का अनुपात 36% है और गांव में 47%।  गांव में अधिकांश खेतिहर मजदूर हैं। यह आंकड़े साफ बताते हैं कि अगर लॉक डाउन की अवधि बढ़ी तो रोजगार नहीं मिलेगा और ऐसे में परेशानी और बढ़ेगी। सरकार ने इसके लिए आर्थिक पैकेज की घोषणा की है। लेकिन अभी यह देखा नहीं जा सका है कि आर्थिक पैकेज कितना कारगर है। वैसे रोज कमाने खाने वाले लोगों के सामने एक ही विकल्प है कि उन्हें काम मिले। रोजी नहीं रहेगी तो रोटी मिलेगी नहीं और रोटी मिलेगी नहीं तो वे जीते जी मर जाएंगे। बेशक यह तर्क सही है। लेकिन सरकार की अपनी जिम्मेदारी भी कुछ है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा था कि एक भी आदमी इस बीमारी से मरा तो यह हमारे लिए शर्मिंदगी की बात है। जो व्यक्ति देश की जनता से इतना जुड़ा हुआ है जिसे उनकी इतनी फिक्र है वह बिना सोचे समझे कुछ करेगा, इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती है। हां यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि लॉक डाउन के कारण अर्थव्यवस्था बिगड़ रही है। भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में से एक है और इस श्रृंखला में उसका छठा स्थान है। उसकी यह मजबूरी है कि अपनी इस स्थिति के कारण ना वह विकासशील देश है और ना ही विकसित देश। इस बीमारी से लड़ने के लिए सरकार ने 1.7 लाख करोड़ की आर्थिक मदद की घोषणा की है और साथ ही स्वास्थ्य प्रणाली में सुधार के लिए 15,000 करोड़। यह पूरी रकम हमारी जीडीपी का केवल 0.8 प्रतिशत है। यहां एक चीज स्पष्ट हो रही है कि सरकार के पास इतना धन या  अन्य संसाधन नहीं है कि वह देश की 8 दशकों की बिगड़ी हुई स्वास्थ्य प्रणाली को सुधारे। साथ ही उद्योगपतियों को आर्थिक मदद देने की उसमें आर्थिक क्षमता भी नहीं है।
    देश के मजदूर इस लॉक डाउन से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। सीआईआई के  आंकड़े बताते हैं कि देश के लगभग 80% उद्योग बंद पड़े हैं और उत्पादन बंद होने के कारण होने वाले आर्थिक घाटे का प्रभाव रोजगार पर पड़ेगा। लॉक डाउन बढ़ता है तो ज्यादा रोजगार खत्म होगा और संभवतः भविष्य में मध्यवर्ग के लिए भी आर्थिक पैकेज की घोषणा करनी पड़े।
   इन तर्कों में गंभीरता तो जरूर है पर उस संवेदनशील व्यावहारिकता का अभाव है जिस संवेदनशीलता को बार-बार प्रधानमंत्री ने रेखांकित किया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि रोजगार जाने के इन दलीलों की पृष्ठभूमि में इस बीमारी से मरने वालों की तादाद भी अपनी जगह ठीक है लेकिन इनके पास यह बात भी तो होनी चाहिए की लॉक डाउन खत्म किये जाने से कितनी जाने बच जाएंगी या कितना रोजगार बच जाएगा। यह आंकड़े भी नहीं हैं कि भूख से कितने लोग मरेंगे। लेकिन समस्या गंभीर जरूर है। फर्क है कि हम इसे किस चश्मे से देखते हैं। प्रधानमंत्री जिस चश्मे से देख रहे हैं उसके मुताबिक अभी 21 दिनों में लॉक डाउन का मकसद नहीं पूरा हुआ क्योंकि मजदूरों का पलायन और दिल्ली में तब्लीगीयों की घटना के बाद देशभर में वही स्थिति नहीं रही जैसी उम्मीद की  जाती थी। इसलिए लॉक डाउन को थोड़ा और  बढ़ाने की जरूरत है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में वायरस का एक मरीज 30 दिनों में 400 से अधिक लोगों को संक्रमित कर सकता है। अगर प्रधानमंत्री ने लॉक डाउन की घोषणा नहीं की होती तो देश की तस्वीर कुछ दूसरी होती। ऐसी स्थिति में सुरक्षा ही बचाव है। यद्यपि अभी कुछ तय नहीं हुआ है लेकिन प्रधानमंत्री की बातों से यह संकेत मिल रहा है की सारे तर्कों के बावजूद लॉक डाउन बढ़ाया जाएगा और अगर खोला भी गया तो कुछ प्रतिबंधों के साथ। देश की जनता को बचाने की जिम्मेदारी सरकार पर होती है और यह सरकार की मजबूरी है कि उसे लॉक डाउन बढ़ाने की दिशा में सोचना पड़ रहा है।


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