जो समाज वैज्ञानिक लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं उससे प्रतीत होता है की जो दुनिया पहले थी वह इस महामारी के बाद नहीं रह पाएगी। 9/11 और महामंदी के बाद दुनिया सिकुड़ गई थी अब ऐसा लग रहा है कि हम एक आत्मनिर्भर विश्व की ओर बढ़ रहे हैं। कोई भी ऐसी घटना जो व्यापक स्तर पर विखंडन पैदा करती हो वह कई वर्षों के बाद या कह सकते हैं कि कई दशकों के बाद होती है।कोई ऐसी विखंडन कारी घटना जिसकी उम्मीद ना हो या लंबे समय तक कायम रहे तथा दूर-दूर तक उसका प्रसाद है जैसा कि कोविड-19 के दौरान हो रहा है वैसे ही घटनाएं अक्सर और साधारण परिवर्तन ला देती हैं। बाद में मनोवैज्ञानिक कारक इसमें अपनी भूमिका निभाते हैं। उनकी भूमिकाएं अत्यंत व्यापक होती है। इसके अलावा मौजूदा सामाजिक, तकनीकी, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनकारी तत्व मनोविज्ञान के साथ मिल जाते हैं और व्यापक परिवर्तन लाते हैं। इस मायने में कहा जा सकता है कि विखंडन कारी घटनाएं परिवर्तन को बढ़ावा देती हैं, इसमें आवेग को बल देती हैं तथा एक दिशा में उसे प्रेषित करती हैं। इस दिशा में घटनाएं पहले भी बढ़ती रही हैं लेकिन उनकी दिशा निश्चित नहीं होती है। महामारी से क्या क्या बदलेगा इसे समझने के लिए हमें 9/11 के आतंकी हमले या 2008 के महामंदी के बाद के हालात पर विचार करना होगा।
जरा 11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क में हुए आतंकवादी हमले पर विचार करें। इस हमले ने अमेरिकियों के सोचने का ढंग बदल दिया। न्यूयार्क टाइम्स के अनुसार लगभग आधे अमेरिकियों में ट्राॅमा के उपरांत के तनाव के लक्षण पाए गये और इसका प्रभाव लंबे समय तक देखा गया। लोगों में अपनी सुरक्षा के लिए हमेशा भय बना रहता था धार्मिक तथा राजनीतिक सहिष्णुता गुस्सा इत्यादि तो अन्य प्रक्रियाएं थीं। इसके अलावा लोगों में देश भक्ति के भाव और परिवार से जुड़े रहने की भावनाएं एवं अन्य लोगों से संपर्क बनाए रखने का एक भाव बोध पैदा हो गया था। हमेशा कुछ ऐसी व्यवस्थाएं खोजी जा रही थी जो लोगों में ऑनलाइन बातचीत की सुविधाएं मुहैया कराएं। फेसबुक और व्हाट्सएप इसी अवधि के विकास हैं। एक सोशल नेटवर्किंग साइट “मीटअप” के विकास करने वाले स्कॉट हीफरमैन के अनुसार उन्होंने कभी सोचा नहीं था वे समुदाय में दिलचस्पी रखते हैं लेकिन उस अनुभव ने एक प्रश्न खड़ा किया लोग मुझसे और मैं लोगों से कैसे जुड़ जाऊं । लोग अपने समुदाय से दूर रहकर भी कैसे बात करें और फिर इस साइट का विकास हुआ। यही नहीं जब अमेरिका में मार्क जुकरबर्ग से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मिले और वहां मार्क के माता-पिता मौजूद और नरेंद्र मोदी की मां-बाप के प्रति भावनाओं को सुनकर वह लगभग रो पड़े। अमेरिका जैसे भौतिकवादी देश में लोग आपस में जुड़ने की कोशिश करने लगे। यह मनोवैज्ञानिक फिनोमिना इतना प्रबल हुआ कि आम आदमी सोशल साइट्स में जुड़ कर दोस्त बनने लगा अपने गोपनीयता का खुलासा करने लगा यहां तक कि खरीदारी की आदतों के बारे में भी अभिव्यक्ति आने लगी। हम दूर रहकर भी अजनबियों से मिलकर खुश होते हैं। लोगों ने अपने व्यक्तिगत आयोजनों की तस्वीरें शेयर करनी शुरू कर दीं। सोशल नेटवर्क बहुत तेजी से विकसित हुआ, हम सबके लिए दुनिया सिकुड़ गई।
2008 में महामंदी आई। यह एक तरह से आर्थिक घटना थी लेकिन उसने समाज को मनोवैज्ञानिक और सामाजिक तौर पर बहुत ज्यादा प्रभावित किया। लंबे समय तक आर्थिक अभाव खासकर नौजवानों में कायम आर्थिक अभाव ने मालिकाना और जमा करके रखने की अवधारणा को बदल दिया। मंदी के बाद जब हालत सुधर भी गए तो बहुतों ने मकान खरीदना बंद कर दिया यहां तक कि मोटर गाड़ियों की खरीदारी कम हो गई गई। वाहन निर्माताओं को दूसरे देशों की ओर रुख करना पड़ा। उसी अवधि में उन क्षेत्रों में एप कैब की अवधारणा का विकास हुआ। उस समय एक मंत्र विकसित हुआ कि वस्तुओं की खरीदारी पर कम से कम खर्च किया जाए और अनुभव एवं संचय का ज्यादा से ज्यादा विकास किया जाए।
अब कोविड-19 आया है और उल्टी दिशा में परिवर्तन की ओर इशारा कर रहा है। इसका संकेत वैश्विक से स्थानिक की ओर है। कोविड-19 ने ऐसा परिवर्तन किया है जिसे खत्म नहीं किया जा सकता। सोशल डिस्टेंसिंग और सेल्फ क्वारेंटिंग ने हमारे कार्यक्रमों और जीवन शैली के चारों तरफ छोलदारियां खड़ी कर दी हैं जिससे आम आदमी भौतिक तथा मनोवैज्ञानिक तौर पर आबद्ध हो गया है, हमारा नजरिया संकुचित हो जया है। विचित्र तरह की खरीदारियां और सीमा पार के परिवहन पर पाबंदियों के कारण अंतरराष्ट्रीय सप्लाई चैन बाधित हो गया है। लोग स्थानीय उत्पादित वस्तुओं को प्राथमिकता दे रहे हैं। महामारी ने एक नारा दिया आत्मनिर्भरता, निगरानी तथा व्यक्तिगत सामाजिक जिम्मेदारी। यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया दुबारा बदलाव के लिए उत्प्रेरक का काम करेगी। इसके अलावा पर्यावरण में परिवर्तन साफ दिखाई पड़ रहा है और लोगों के बर्ताव के आकलन के लिए कृत्रिम इंटेलिजेंस का उपयोग शुरू हो गया है।आरोग्य सेतु इसी कृत्रिम इंटेलिजेंस का अंग है। इस महामारी की गंभीरता जो खत्म होगी चाहे उसमें जितना भी वक्त लगे यह दुनिया बदली हुई होगी। आम आदमी स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देगा चाहे वह खेती हो घर का खाना। विदेशी वस्तुओं और ब्रांड के प्रति लोगों में रुझान घटेगा और संदेह बढ़ेगा। अंतरराष्ट्रीय पर्यटन को भी सही होने में वक्त लगेगा। नीति निर्माताओं के लिए यह बड़ा कठिन समय है। उन्हें स्वास्थ सेवा , टैक्स लगाए जाने , सामाजिक सुरक्षा और रोजगार के प्रति ज्यादा संवेदनशील होना पड़ेगा। इन सबके बावजूद राष्ट्रवादी प्रवृतियां बढ़ेंगी। पूरी दुनिया एक ऐसे द्वीपीय स्थल में बदल जाएगी जिसे हम लोगों ने अभी तक न देखा है ना महसूस किया है।
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