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Friday, April 17, 2020

उम्मीदें जरूरी हैं

उम्मीदें जरूरी हैं  

दुनिया के हर कोने से डरावनी खबरें आ रही हैं। पूरी मानवता सशंकित है। कल क्या होगा? इससे जहां तनाव बढ़ रहे हैं वही लोगों में निराशा भी  बढ़ रही है। उम्मीदें बहुत कम दिखाई पड़ रही हैं।  ऐसे में हमारे विश्व के नेता कुछ ऐसे बयान दे रहे हैं जिससे उम्मीदें खत्म होती जा रही हैं। केवल भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बयानों में या अपने भाषणों में लोगों में उम्मीद बढ़ाने का काम किया। इससे बेशक मेडिकल लाभ तो नहीं हुआ लेकिन इस महामारी से दो-दो हाथ करने की क्षमता बढ़ गई।
एक रात आपने उम्मीद पे क्या रखा है
आज तक हमने चिरागों को जला रखा है

नेपोलियन अक्सर कहा करता था , "एक नेता उम्मीदों का व्यवसाई है।" जॉन डब्ल्यू गार्डनर ने  अपनी विख्यात पुस्तक "लीडरशिप" में कहा है कि "किसी नेता का पहला और अंतिम काम लोगों में उम्मीद को जीवित रखना है।" यहां कहा जा सकता है कि वास्तविक नेतृत्व का अर्थ है सही उम्मीद हो बनाए रखना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों ,अपने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए इस उम्मीद को बनाए रखने की पूरी कोशिश की है। चाहे वह ताली या थाली बजाने का आह्वान हो या दिए जलाने का । सब में एक उम्मीद झलक दिखाई पड़ती है।
  लगभग एक सदी पहले दुनिया में एक ऐसी ही  बीमारी आई थी और इस महामारी से भारत में करीब 1.8 करोड़ लोग मारे गए थे। यह भारत की तत्कालीन आबादी का 6% था। उस समय हम गुलाम थे और गुलामों की जान की कोई कीमत नहीं होती। इस बीमारी का नाम स्पेनिश फ्लू दिया गया था। एच वन एन वन वायरस के कारण इस महामारी से पूरी दुनिया की आबादी के एक तिहाई के करीब यानी 50 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे। 1918 में पहली बार एक अमरीकी सैनिक में इसका प्रभाव देखा गया था और इस वायरस की पहचान हुई थी। अमेरिका में ही इसके शिकार होकर 6.75 लाख लोगों की मौत हुई थी। अब कोविड-19 ने पूरी दुनिया में तबाही मचाई है। चीन के वुहान प्रांत से फैले इस वायरस ने दुनिया के 200 देशों में कहर बरपा किया हुआ है और विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक 12 अप्रैल तक 16 लाख 14951 लोगों में कोरोना की पुष्टि हुई है और 99887 लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है। इस हिसाब से देखें तो आज भारत में आबादी के घनत्व की तुलना में प्रभावित लोगों की संख्या कम नजर आ रही है। अभी तक के आंकड़े निसंदेह बेहतर संकेत दे रहे हैं लेकिन भविष्य बेहतर नजर नहीं आ रहा है। कोविड-19 के मामले भारत में जांच बढ़ने के साथ लगातार बढ़ रहे हैं। भारत से पड़ोसी देश चीन से रिश्ते मधुर नहीं रहे। जिसके कारण दोनों देशों में आवाजाही कम हो गयी है। भारत में पहला मामला चीन से आये व्यक्ति का था, लेकिन ज्यादातर मामले उन्हीं लोगों के हैं जो ईरान, इटली, अमेरिका से लौटे हैं। भारत से लोगों के विदेश जाने का लंबा इतिहास है। 2015 तक के आंकड़ों के अनुसार भारत के 156 लाख लोग विदेशों में रहते हैं। अगर हम विस्थापन के वैश्विक आंकड़े को देखें तो भारत से सबसे ज्यादा 35 लाख लोग  संयुक्त अरब अमीरात में गए हैं और दूसरा स्थान पर अमेरिका है जहां 20 लाख लोग हैं। खाड़ी के अन्य देशों में भी बड़े पैमाने पर लोग रोजगार के लिए जाते हैं। उन देशों में कोरोना संकट बढ़ने पर बड़े पैमाने पर भारत के मजदूर अपने देश की ओर भागे। भारत ने सैकड़ों नागरिकों को विमान भेज कर अपने देश में बुला लिया। इनके अलावा  हवाई यातायात  जारी रहने के कारण  बहुत सारे लोग  आए  और  देश की घनी आबादी में मिल गए ।  पता नहीं चला  कौन कहां गया  और  कहां रह रहा है। केवल तबलीगी जमात के मरकज के कुछ सौ सदस्य विदेश गए या विदेश से इस दौरान भारत आए। उन्होंने बीमारी फैलाई। लेकिन आबादी के घनत्व को देखते हुए या बहुत ज्यादा नहीं है फिर भी लोगों में एक आतंक फैल गया। उस आतंक का नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता लेकिन प्रधानमंत्री ने लोगों में उम्मीदें जगा कर और पारस्परिक संवेदना का भाव जगा कर उस प्रभाव को रोकने में सफलता पाई। यहां प्रसंग वश  यह कहना  उचित लगता है  और यह जानकर आश्चर्य भी होता है की पहली बार कोरोनावायरस की खोज करने वाली महिला स्कॉटलैंड के बस ड्राइवर की बेटी थी जिन्होंने 16 वर्ष की आयु में स्कूल छोड़ दिया था। उनका नाम है जून आलमेडा जो वायरस इमेजिंग क्षेत्र के चर्चित लोगों की फेहरिस्त में अपना नाम लिखना चाहती थी। बीमारी ने अपने पंजे फैलाए और दुनिया को ग्रस लिया। सोचिए कि हम लोगों के दिमाग में इस भयानक बीमारी से निपटने के लिए क्या छवि बनती है। हम विज्ञान के बारे में सोचते हैं। हम क्वॉरेंटाइन या मास्क के बारे में सोचते हैं। अथवा फ्लू के वक्त हाथ धोने या छींकते-खांसते वक्त मुंह को ढक लेने के बारे में सोचते हैं।  बुखार के वक्त किसी पेशेवर डॉक्टर से मिलते हैं । लेकिन कोविड-19 से मुकाबले के लिए जो दूसरा तरीका है उसके बारे में हम सोचते नहीं है। वह तरीका है उम्मीद और लोगों में आपसी संवेदना। लोगों के भीतर एक स्वस्थ विश्व बनाने की जरूरत की आशा और प्रधानमंत्री ने इसी जरूरत की आशा को जगाने के लिए और संवेदना को कुरेद कर मनके स्तर पर ले आने के लिए यह सारे प्रयास शुरू किए। यह अत्यंत ही जटिल मनोवैज्ञानिक प्रयोग था। लेकिन प्रधानमंत्री ने इस प्रयोग को इतनी सरलता से उपयोग किया कि लोग सोच नहीं सके। सोचिए कोई बीमारी हमें कई तरीकों से प्रभावित करती है न केवल स्वास्थ्य के स्तर पर बल्कि मानसिक स्वास्थ्य, संदेह , भय और नफरत स्तर पर भी हमें प्रभावित करती है। इसका या किसी भी महामारी का प्रसार मानव द्वेष और आपसी दुराव के कारण भी होता है। यह बीमारी सबसे पहले चीन में फैली और चीन से नफरत के कारण लोगों में धीरे-धीरे बात फैलने लगी और इसके रोकथाम के प्रयास नहीं हुए । नतीजा हुआ इसने महामारी का रूप ले लिया । आपसी संवेदना और स्नेह जरूरी है । यह जरूरत केवल कोविड-19 के लिए नहीं है बल्कि किसी भी बीमारी के लिए है। संवेदना और स्नेह हमें सियासत से दूर एक ऐसा समाज बनाने का अवसर देतें है जो उचित है।  यह लोगों को एक सम्मिलित समाज का निर्माण करने का अवसर भी देता है। यह सब को जोड़ता है। विख्यात मनोवैज्ञानिक सैन्द्रो गैली ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा है कि जब तक कोई कारगर दवा या टीका नहीं बने तब तक पूरे विश्व नेताओं को नरेंद्र मोदी के इन प्रयासों का अनुसरण करना चाहिए। इससे विश्व मानवता को लाभ होगा। इस संकट की घड़ी में हमें प्रेम और उम्मीद की बात करनी चाहिए।
दिल ना उम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है


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