देश ने दिखाया संकल्प की शक्ति
सत्याधारस्तपस्तैलं दयावर्ति: क्षमाशिखा।
अंधकारे प्रवेष्टव्ये दीपो यत्नेन वार्यताम्
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता से अनुरोध किया था कि वह रविवार को रात 9:00 बजे 9 मिनट तक अपने अपने घरों की बत्तियां बुझा दें और दी,ए मोमबत्ती, टॉर्च यहां तक कि मोबाइल फोन के फ्लैशलाइट को जलाए रखें। पूरे देश ने प्रधानमंत्री किस बात का सम्मान किया। रविवार की रात 9:00 बजे सारी बत्तियां बुझा दी गयीं और सभी खिड़कियों पर दीए जलने लगे। दीयों की संख्या को अगर नजरअंदाज कर दें तो ऐसा लगता था कि यह दिवाली ही है। दिवाली से भी कुछ आगे। क्योंकि , इसका वर्तमान में स्पष्ट उद्देश्य था। कह सकते हैं कि जब पूरा विश्व डगमग कर रहा था भारत जगमग कर रहा था। यह दिवाली कुछ ऐसी थी जैसे संपूर्ण देश किसी को चुनौती दे रहा है। सभी जानते हैं की वह चुनौती कोरोना वायरस से मुकाबले के रूप में थी। पूरा देश "तमसो मा ज्योतिर्गमय" की शक्ति महसूस कर रहा था। दीपक या मोमबत्ती या प्रकाश का कोई भी स्वरूप स्वयं में एक ऊर्जा है। विज्ञान कहता है ऊर्जा का नाश नहीं हो सकता, उसका स्वरूप बदल जाता है। दीपक के प्रकाश से निकली ऊर्जा का स्वरूप अगर सूक्ष्म रूप में सामने आएगा तो वह कुछ वैसा ही होगा जैसे कोई धर्म योद्धा युद्ध भूमि में असत से उत्पन्न असुर का विनाश करने के लिए उपस्थित हुआ है और पूर्ण सृष्टि को सत की ओर जाने की प्रेरणा दे रहा है , "आसतो मा सद्गमय"। प्रधानमंत्री के इस आह्वान पर तरह तरह की बातें होने लगीं। कुछ लोग इसमें सियासत करने लगे। कुछ लोग इसे देश को भरमाने वाला बताने लगे। जितनी मुंह और जितने तरह की सोच उसी तरह की बातें। लेकिन इन सबसे अलग इसका एक अपना महत्त्व भी है । हमारे देश में दीपक प्रज्वलन को शुभ मानते हैं। इसीलिए किसी भी शुभ अवसर पर दीप जलाने की परंपरा है। लेकिन पूछ सकते हैं कि कोरोनावायरस से होने वाली मौतों और बीमारियों यह बीच ऐसा शुभ क्या है जिसे प्रधानमंत्री देख रहे हैं? लेकिन है! सचमुच है! पहले तो पूरे देश ने यह बता दिया की संकट की घड़ी में वह ना केवल प्रधानमंत्री के साथ है बल्कि संकट से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार है । दीप केवल प्रकाश का उत्स ही नहीं है बल्कि अंधेरे से संघर्ष की शंख ध्वनि भी है।
सूर्यपुत्र हूं मैं उजाल हूं
मैं उन्नत अंगार भाल हूं
बिंदु बिंदु झरते जाना है
मुझे तिमिर पीते जाना है
बस यह लक्ष्य लिए अर्पित हूं
दीपक हूं मैं लालायित हूं
वैसे प्रधानमंत्री की बात पर सियासत से अलग होकर कुछ सोचें तो इसके स्पष्ट रूप में दो पक्ष सामने आएंगे। पहला इसका अध्यात्मिक पक्ष और दूसरा इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष। आध्यात्मिक पक्ष पर कई बातें हो सकती हैं बहस हो सकती है। लंबे-लंबे व्याख्यान दिए जा सकते हैं। एक दूसरे के तर्कों को काटा जा सकता है । लेकिन मनोवैज्ञानिक पक्ष चूंकि विज्ञान से संबंद्ध है इसलिए इस पर भरोसा किया जा सकता है।
इस महामारी के कारण बेरोजगारी, आर्थिक तंगी जैसी चिंताएं लोगों को सता रही हैं और लोग मानसिक दबाव में हैं । इस माहौल में घबराहट बेचैनी अकेलापन और अवसाद एक गंभीर समस्या बन सकता है। ऐसे में अंधकार में दीपक का जलाना लोगों के भीतर संकल्प की नई ऊर्जा ,नई शक्ति की अभिव्यक्ति होगी और लोग सकारात्मकता से एक दूसरे से जुड़ जाएंगे। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रकाश एक ऐसी शक्ति है जो मनुष्य के वैचारिकता को प्रभावित करती है। अतः प्रकाश "कॉग्निटिव मैप" है और "इमोशनल ड्राइवर" भी। साथ साथ यह "गेस्टालटिक डिवाइस" के रूप में भी काम करता है। जिससे मनुष्य को बाहरी सच्चाई को अपने भीतर देखने और समझने क्षमता पैदा होती है । यह एक तरह से मनुष्य के आचरण में सकारात्मक सोच को विकसित करता है। यही कारण है कि मोदी जी ने अंधेरी रात में बत्तियां बुझा कर एक चिराग जलाने की गुजारिश की। इससे यह महसूस होगा कि हम अपने पीड़ित भाइयों बहनों से पृथक नहीं हैं और ना हमें तथा हमारे प्रयास को अनदेखा किया जा रहा है। यह एक सामूहिक प्रयास था। ऐसी महामारी में समाज जब हारने लगता है तो उसमें लड़ने की क्षमता को विकसित करने के लिए साहस के संचार की आवश्यकता होती है और अगर साहस के साथ संकल्प आ गया तो फिर "पंगु चढ़े गिरीवर गहन।" रोशनी एक तरह से रक्षा कवच है और इससे सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है जिससे इंसान के और समाज के सामूहिक सोच में निरंतरता बनी रहती है।
मोदी जी के आह्वान पर समूचा राष्ट्र उनके साथ हो गया है। इसका मतलब है कि पूरे देश को इस वायरस से मुकाबले की ना केवल इच्छा है बल्कि जिजीविषा भी और इसीलिए देश ने दीपक को जलाना सार्थक समझा।
शुभं करोति कल्याणमारोग्यं धनसंपदा ।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते ॥
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