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Monday, April 20, 2020

मजदूरों का पलायनः सरकार के लिए मौका

मजदूरों  का पलायनः सरकार के लिए मौका

 भारत में कोविड-19 के व्यापक संक्रमण के बाद देशव्यापी   लॉक डाउन ने असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों की ना केवल रोजी छीन ली  बल्कि रोटी के लिए भी मोहताज कर दिया। उनके पास जीने का कोई जरिया नहीं रहा और वह वहां से अपने गांव को चल पड़े। दिहाड़ी पर काम करने वाले यह मजदूर झुंड बनाकर बड़े शहरों को छोड़  रहे हैं ।अपने गांव लौटने के सिवा उनके पास कोई विकल्प नहीं है हालांकि उनका भविष्य गांव में भी निराशाजनक है। सार्वजनिक परिवहन का कोई साधन नहीं होने पर वे बड़े शहरों से भाग रहे हैं। जो साधन उनके पास है लौट रहे हैं।  खबरों की मानें तो कुछ साइकिल से आ रहे हैं तो कोई रिक्शे पर ही अपना पूरा परिवार लेकर आ रहा है तो कोई मोपेड से आ रहा है। बाकी लोग कंधे पर बच्चों को बैठा कर या फिर खाली हाथ पैदल ही आ रहे हैं। इन मजदूरों की दुर्दशा कल्पना से परे है।

        शहर में  उनके वायरस संक्रमित होने की आशंका से  इंकार नहीं किया जा सकता और यह भी हो सकता है कि गांव लौटने पर वे कुछ लोगों को संक्रमित कर दे। हमारे देश के दूरदराज के गांव में ना  अस्पताल है और अगर है भी तो उसमें सुविधाएं नहीं हैं। इससे स्थितियां और बिगड़ जाएंगे। औसतन हमारे देश में गांवों में पंद्रह सौ लोगों पर एक डॉक्टर है और यह कोविड-19 के संक्रमण को रोकने के लिए नाकाफी है।  प्रति वर्ग मील 450 लोगों की आबादी के घनत्व वाले इस देश में अगर प्रधानमंत्री ने संपूर्ण लॉक डाउन की घोषणा करके बहुत ही बड़ा काम किया। उनका फैसला बिल्कुल सही है और संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए इसके सिवा और कोई साधन नहीं है। शहरों में सफाई बनाए रखना बेहद मुश्किल काम  है यहां तक कि झुग्गियों में साबुन से हाथ धोना भी एक समस्या है। आमदनी के अभाव में साबुन खरीदना बहुत बड़ी समस्या है और साथ ही पानी की कमी इससे भी बड़ी समस्या है। 10 फुट की कोठरी में 5 लोगों का रहना और सामाजिक दूरी बनाना कितना कठिन है वही लोग समझ सकते हैं जो इससे दो-चार होते हैं। शहरों में प्रवासी मजदूर अत्यंत ही दयनीय हालत में रहते हैं उनकी  अमानवीय स्थितियां कि सिर्फ कल्पना की जा सकती है ।जरूरी सेवाओं का दबाव पानी शौचालय इत्यादि का अभाव तो उनके जीवन का अनिवार्य अंग है। शहरों में झुग्गी झोपड़ियों हटाए जाने का विरोध होता है सामान्य हालत में इसे अमानवीयता कहेंगे लेकिन यह एक अच्छा विचार है। इससे जरूरी सेवाओं पर भारी दबाव पड़ता है। कुछ शहरों में तो मजदूरों का आगमन घटा है। कोलकाता और हैदराबाद जैसे शहरों में पिछले सालों से  मजदूरों का आना कम हुआ है। पर्यावरण से जुड़ी स्थितियों के कारण जहां निर्माण कार्य कम हुए हैं और इससे रोजगार मिलना कम हो गया है लिहाजा, मजदूर या तो अपने गांव लौट रहे हैं या फिर दूसरे शहरों में जा रहे हैं। कहा जा सकता है कि मजदूरों का स्वैच्छिक पलायन जबरन थोपे गए पलायन की तुलना में कम रहा है। जोखिम उठाने के लिए तैयार कुछ नौजवान दूसरे छोटे शहरों में जा रहे हैं। वे वहां स्टार्टअप और एग्रीटेक के कारण जाते हैं। लेकिन,  उद्यमियों के लिए सही सहकर्मी की तलाश लगातार चुनौती बनी रही है। दूसरी तरफ प्रवासी मजदूरों के लिए पैसे कमाने के कुछ ही विकल्प हैं। गांव में अगर उनके पास जमीन है भी तब भी उनका काम नहीं चल सकता। दैनिक मजदूरी और कारीगरी के काम उस अर्थव्यवस्था में नामुमकिन है जो पहले से ही बोझ तले दबी है। वास्तव में बेरोजगारी की वजह से ग्रामीण डिमांड कम हो रही है। कुछ गांव को छोड़कर कहीं भी छोटे उद्योग नहीं हैं और अक्सर छोटे शहरों से हुए काम की तलाश में बड़े शहरों में चले जाते हैं। हाल के दिनों में ज्यादा  मजदूर छोटे शहरों से बड़े शहरों में गए हैं।

       अगर देखें और ठीक से योजना बने तो हमारे देश के गांव में छोटे-छोटे उद्योग हो सकते हैं खासतौर से खाद्य प्रसंस्करण इत्यादि। भारत फलों और सब्जियों का दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा  उत्पादक देश है। इनका ज्यादातर हिस्सा बर्बाद हो जाता है। क्योंकि, हमारे देश में गांवों में बुनियादी ढांचा या तो है ही नहीं और अगर है भी तो बेहद जर्जर है। ऐसे हालात ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को कमजोर बनाते हैं। दूसरे बाहर के निवेशक गांवों में  निवेश नहीं करते। इसके लिए जरूरी है बिजली की नियमित सप्लाई पानी अच्छी सड़क और कनेक्टिविटी सबसे ज्यादा जरूरी है। यहां तक कि दूरदराज के हिस्सों में भी पक्की सड़क होनी चाहिए। ऐसा नहीं होने पर उन क्षेत्रों में हमेशा पिछड़ापन कायम रहेगा और स्थिति वही रहेगी जो पहले से कायम है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बात याद आती है कि उन्होंने कहा था कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के  बाद ही हम आत्मनिर्भर हो सकते हैं। इसके पहले की सरकारों ने खासकर जवाहरलाल नेहरू ने शोभित ढांचे पर भारी उद्योगों को विकसित करने और तीव्र उद्योगी करण पर जोर दिया जिससे शहरों का विकास तो हुआ लेकिन गांव पीछे छूट गए और गांव से पलायन आरंभ हो गया। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नजरअंदाज किया जाना इस नजरिए से एक तरह से साजिश है। क्योंकि इसमें किसी तीसरे पक्ष के मुनाफे का संदेह होता है। उन मजदूरों को रोजगार देना जो शहर की ओर नहीं जाना चाहते  यह अब सरकार के लिए चुनौती है ऐसा छोटे स्तर पर नोटबंदी के समय हुआ था। अगर सरकार इस ओर नहीं ध्यान देती है तो यह लोग रोजी रोटी के लिए फिर से शहरों की नारकीय जिंदगी में लौट आएंगे। गांव को तेजी से विकसित करना होगा। लॉक डाउन का यह संकट आकस्मिक विपदा है। इससे शहरों में न केवल भीड़ कम होगी बल्कि एक ग्रामीण ग्रामीण मजदूर के पास विकल्प हो कि वह शहर में रहे या गांव में जाए।


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