जितने भी सेक्टर हैं चाहे वह आर्थिक हों या श्रम सभी जगहों से एक ही बात आ रही है कि सरकार को कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे उन 10 करोड़ लोगों को ज्यादा से ज्यादा राहत मिले जिन्होंने कोविड-19 के प्रहार से अपनी नौकरियां या अपना रोजगार गंवाया है। 10 करोड़ का यह अनुमान फिलहाल बहुत ही तर्क सम्मत नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक,अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन, सीएमआईई जैसी संस्थाओं और एजेंसियों में इससे भी बड़े पैमाने पर नौकरिया जाने की आशंका जताई है। सीएमआईई के मुताबिक लॉक डाउन की वजह से शहरों में बेरोजगारी की दर 23% तक जा सकती है। आईएलओ के मुताबिक कोरोनावायरस के संक्रमण से भारत में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले 40 करोड़ लोगों को और गरीबी में पड़ जाना होगा। आईएमएफ का अनुमान है1930 के बाद यह दुनिया की सबसे बड़ी मंदी है। लोगों का सुझाव है कि सरकार व्यवसायियों को बड़ा पैकेज दे, राज्यों को ज्यादा वित्तीय सहायता दे , सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत बनाने के लिए उन पर ज्यादा खर्च करे इत्यादि इत्यादि। विशेषज्ञ लोग भी इस पर एकमत हैं। लेकिन कोई यह बता नहीं रहा है कि पैसा आएगा कहां से। वित्त प्रबंधन को लेकर सियासत शुरू हो गई है। लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर उंगलियां उठा रहे हैं कि वित्त प्रबंधन में वह पिछड़ रहे हैं। लेकिन यह पैसे जो इन सारे कार्यों के लिए आवश्यक है उनकी व्यवस्था कहां से होगी यह कोई नहीं बता रहा है। प्रधानमंत्री इसे लेकर परेशान हैं। सरकार के सामने केवल एक ही विकल्प है कि नोट छापे जाएंऔर खर्च किए जाएं। गरीबों के लिए और परेशान हाल व्यापार जगत के लिए राहत के पैकेज दिए जाए। आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि सामान्य स्थितियों में यह कदम बेहद गैर जिम्मेदाराना है। इससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी और विदेशी मुद्रा का संकट आएगा जैसा कि 1991 में हुआ था। मंगलवार के अखबारों में खबर है कि तेल की कीमतों में रिकॉर्ड गिरावट आई है और सरकार के पास पर्याप्त कोष है इसलिए विदेशी मुद्रा का संकट उतना ज्यादा नहीं है इतना कि बताया जा रहा है। अब जहां तक स्थिति की बात है तो अभी जो हालात हैं उन्हें सामान्य स्थिति नहीं कहेंगे। किसी भी आर्थिक विशेषज्ञ से पूछ लें कि सरकार को इन सारे कामों के लिए कितने रुपयों की जरूरत पड़ेगी, कोई सही नहीं बता सकता लेकिन इसकी संख्या तक पहुंचने के लिए शुरुआत इस विचार को ध्यान में रखते हुए करनी होगी कि आर्थिक वृद्धि की दर क्या है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत की आर्थिक वृद्धि की दर 1.9 प्रतिशत रहने की भविष्यवाणी की है लेकिन यह संदिग्ध है। संदेह का कारण है कि अक्सर आशावादी भविष्यवाणी की जाती है और बाद में उसमें संशोधन किया जाता है। आईएमएफ तो अक्सर ऐसा करता है। भारत के आर्थिक इतिहास को देख ले शायद ही कोई वर्ष इस तरह की गतिविधि से बचा हो।कुछ लोग तो यह बताते हैं कि इस वर्ष आर्थिक वृद्धि की दर में संकुचन होगा क्योंकि सकल घरेलू उत्पाद जिन तत्वों से बनता है उनमें से आधे जैसे मैन्युफैक्चरिंग ,परिवहन एवं व्यापार ,निर्माण, कर्ज देने वाले वित्तीय क्षेत्र, मनोरंजन अथवा आर्थिक क्षेत्र में गतिविधियां बंद हैं। मार्च के आंकड़े बताते हैं यह बिजली के उपभोग में 25% की कमी आई है, बेरोजगारी 3 गुना बढ़कर 24% हो गई है, निर्यात में 35% की गिरावट आई है। यह आंकड़े आशा जनक नहीं है। ऐसी स्थिति में भारत अगर वृद्धि दर्ज करता है तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं होगा।
अब जरा इसके वित्तीय पहलू पर गौर करें। जब सरकार पर मांगों का दबाव पड़ेगा तभी टैक्स का आधार तेजी से संकुचित होगा। अगर टैक्स के मोर्चे पर 10 से 15% की भी कमी आई तब भी कोई खास बात नहीं है। अर्थशास्त्री बताते हैं कि इसका अर्थ होगा लगभग 5 खरब का घाटा, यानी वित्तीय घाटा उस स्तर पर पहुंच जाएगा जहां पहले कभी नहीं था और यही स्थिति 1991 वाली स्थिति से भी हो सकती है। अब अगर सरकार को संकट निवारण के उपायों पर ही खर्च करना पड़े तो इसका मतलब है अतिरिक्त पांच खरब का घाटा । ऐसी स्थिति में सरकार के पास नोट छापने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। यद्यपि नोट छापना जोखिम से मुक्त नहीं होगा क्योंकि असाधारण स्थितियों में उठाए गए कदम आदत बन जाते हैं। आज अमेरिका बहुत बड़े घाटे में पड़ा है लेकिन वह इससे उबर जाएगा। क्योंकि अमेरिका वैश्विक वित्त केंद्र है और वित्त केंद्रों के मुकाबले विकासशील देशों की हालत हमेशा पतली रहती है और ऐसी स्थितियों में उसे भारी कीमत चुकानी पड़ती है। इसी स्थिति को देखते हुए उर्जित पटेल में भारत को नोट छापने से चेतावनी दी है लेकिन वर्तमान जो हालात हैं उसमें शायद इसे कबूल किया जाए। मोदी जी को मालूम है कि हम बहुत ही खतरनाक मोड़ पर खड़े हैं।
कई मामलों में सरकार पर पहले से ही बोझ बढ़ा हुआ है और ऐसे में जब लोग कल्याणकारी राज्य की मांग कर रहे हैं तो इस बोझ में नैतिकता भी जुड़ गई है। प्रधानमंत्री संभावनाओं का विस्तार करते हुए इस संकट से गुजरने का अधिकतम प्रयास कर रहे हैं। लेकिन ऐसे में यह भी ध्यान रखना होगा कि लोगों को पर्याप्त तकलीफें उठानी पड़ेंगी। नोटबंदी के जमाने में तो एक उम्मीद के कारण लोगों ने सहयोग किया परंतु आज की जो स्थिति है उसमें वह उम्मीद का गुणक गायब है। कम आय वाली अर्थव्यवस्था जल जल के दौर से गुजरती है तो उसे इसकी ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है और सबसे ज्यादा बोझ उन पर पड़ता है जो लोग हाशिए पर हैं। क्योंकि उनके पास कोई जमा पूंजी नहीं है और इससे नजरअंदाज करना पलायनवाद कहा जाएगा। उन्हीं लोगों को राहत पहुंचाने के लिए प्रधानमंत्री ने कुछ नोट छापने के दिशा में सोचना आरंभ किया है हालांकि इसके सिवा सरकार के पास कोई विकल्प फिर भी लोग इसकी आलोचना करने पर तुले हुए हैं। प्रधानमंत्री ऐसी आलोचनाओं को नजरअंदाज कर हाशिए पर खड़े लोगों के बारे में सोच रहे हैं यह एक उचित दिशा है।
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