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Thursday, April 2, 2020

लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग

लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में 21 दिन के लॉक डाउन का प्रस्ताव रखा। उसका अंदाज कुछ ऐसा था जैसे आदेश दिया गया हो और संपूर्ण देश ने उस आदेश को स्वीकार किया। सबको अपने जान की चिंता रहती है और उसी चिंता के तहत लोगों ने संपूर्ण लॉक डाउन को स्वीकार कर लिया। यद्यपि सरकार ने इस अवधि में जरूरी सामानों को मुहैया कराने व्यवस्था की थी। एक सीमा के तहत लगभग सभी जरूरी सामान उपलब्ध हो रहे हैं। बस आवागमन और परिवहन सुविधाएं मुल्तवी कर दी गयीं हैं।
     कुछ लोग इसे सरकार का अदूरदर्शिता पूर्ण कदम मान रहे हैं। क्योंकि, 21 दिन की बंदी से देश का मेडिकल ढांचा नहीं सुधर सकता है और जब मेडिकल ढांचा नहीं सुधरेगा तो फिर कैसे इस महामारी का मुकाबला किया जा सकेगा। ऊपर ऊपर सुनने में यह बात तार्किक लग रही है लेकिन एक तरह से इसमें प्रश्न ज्यादा हैं। ऐसे लोगों को संवाद की मर्यादाओं का ख्याल रखना चाहिए। यह ठीक वैसे ही है जैसे तबलीगी जमात के कुछ लोग पकड़े गए और उनके पक्ष में भी कुछ लोग तर्क दिए जा रहे हैं।
    बेशक हमारे देश का मेडिकल ढांचा आबादी की तुलना में अपर्याप्त है और ऐसे में देश की जनता के जीवन की रक्षा के लिए जो संभावित और सरलतम उपाय है वह सरकार ने किया। क्योंकि ऐसे समय में स्वास्थ्य के लिए मेडिकल उपाय करने के बदले अस्वस्थता रोकने के गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए।  उपचार से रोकथाम ज्यादा मुफीद है।  भारत के स्वास्थ्य ढांचे को देखते हुए अगर 130 करोड़ की आबादी तक पहुंचने के प्रयास किए जाएं तो पूरा का पूरा ढांचा और सिस्टम चरमरा कर टूट जाएगा। कुछ विशेषज्ञों का कहना है की 21 दिन में ठीक हो जाने की क्या गारंटी है? टीके की अनुपलब्धता के बरअक्स इस तरह लॉक डाउन सचमुच चुनौतीपूर्ण होगा। लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है यह उम्मीद से कहीं ज्यादा सफल हो। क्योंकि जो लोग इसे गलत बोल रहे हैं उन्हें भी इस बात का कोई इल्म नहीं है कि आगे क्या होगा? सारी चीजें अनुमानों और आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर हो रही हैं।
     भारत में स्वास्थ्य पर व्यय जीडीपी के 3.7% है जिसमें लगभग एक चौथाई भाग ही सरकारी व्यय का है। यह निम्न आय वर्ग वाले देशों के औसत 5.4% से काफी कम है। आंकड़े बताते हैं भारत में मरने वालों  में बड़ी संख्या नौजवानों की है। यही कारण है कि विकास के बावजूद हमारे देश में जीवन की प्रत्याशा कम है । कुछ लोगों का कहना है अपने देश में वायु प्रदूषण ,डायरिया, टीबी, सड़क दुर्घटनाओं में बड़ी संख्या में लोग मारे जाते हैं। यह सोच नकारात्मक है। विभिन्न स्थितियों में मारे जाने वाले लोगों के आंकड़ों का विश्लेषण महामारी के आंकड़ों के साथ देखें इससे ज्यादा गलत कुछ नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री ने 21 दिन की बंदी घोषित कर कम से कम महामारी के प्रसार को अवरुद्ध तो कर दिया है। इस तरह की किसी भी महामारी के प्रसार में कई तरह के कारक तत्व होते हैं। जिनमें सबसे ज्यादा खतरनाक आपस में मिलना जुलना ही होता है। भारत जैसे आबादी के घनत्व वाले देश में जहां वर्जनाओं की अवहेलना करना आदत के साथ-साथ मजबूरी भी है वहां आपस में मिलना जुलना रोकने का लॉक डाउन ही सबसे सरल तरीका है। लॉक डाउन के माध्यम से निवारण और इलाज के  प्रयासों से जुड़े नीतिगत बदलाव के जरिए मौत की संख्या कम की जा सकती है।  मौत के आंकड़े अक्सर जाति ,वर्ग ,क्षेत्र और लिंग के अनुसार बदलते हैं और कोरोना वायरस के साथ भी कुछ ऐसा ही है। सार्वजनिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के उद्देश्य और उसके कार्यान्वयन के बीच एक बड़ा  फासला होता है। इनमें बुनियादी मुद्दों पर ध्यान देना जरूरी होता है। कुछ लोगों का कहना है कि अचानक बंदी के कारण काम धंधे बंद हो गए और लोग अपने अपने घरों से भागने लगे। इसलिए इसलिए जरूरी है कि पलायन करने वाले उन मजदूरों को खाना, कपड़ा और विश्राम की जगह मुहैया कराई जाय। यहां यह गौर करने वाली बात है कि महामारी पर उठ रहे सवाल केवल सवाल नहीं है खुद में जवाब भी हैं । वह सवाल है कि अगर इलाज का ढांचा पर्याप्त नहीं है तो क्या हो? महामारी एक दुर्लभ घटना है और इसमें सरकार से बहुत उम्मीद की जाती है ,लेकिन उन उम्मीदों को पूरे किए जाने के उपाय भी बताना जरूरी है और लोकतंत्र में तो सबसे ज्यादा जरूरी है। इसलिए ऐसे कठिन समय में सरकार की आलोचना कर उसे हतोत्साहित करने के बजाय उपाय बता कर उत्साहित करना चाहिए। मोदी जी का यह कदम सीमित साधनों वाले देश भारत में कारगर साबित  हो रहा है।


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