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Wednesday, April 1, 2020

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः 

आज रामनवमी है। भगवान श्री राम का जन्मदिन और आज ही कोलकाता के सर्वप्रिय समाचार पत्र सन्मार्ग का स्थापना दिवस भी है। बड़ा अजीब संयोग है कि सन्मार्ग की स्थापना उसी दिन हुई थी जिस दिन पुरुषोत्तम राम का आविर्भाव इस धरा पर हुआ था। जिनके बारे में सदियों बाद द्वापर में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कहा है

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।। 

इसी दिन हमारे मनीषियों ने सन्मार्ग की स्थापना भी की थी। आपने सोचा है कि सन्मार्ग क्या है? एक भौतिक अस्तित्व से अलग एक सूक्ष्म और अध्यात्मिक अस्तित्व भी इसमें लिपटा हुआ है। वह अस्तित्व भी ब्रह्मांड की तरह  3 डायमेंशन वाला है। पहला डायमेंशन  खुद में इसका नाम है। यह जानना भी बड़ा दिलचस्प होगा के राम और सन्मार्ग की व्याख्या लगभग समान है। डॉक्टर मंगल त्रिपाठी अपने विष्णु सहस्त्रनाम में लिखा है कि राम विष्णु के 394 वें अवतार हैं और मार्ग स्वयं 397वां अवतार है। जो कि सत्य के संधान की ओर मनुष्य को प्रवृत्त करता है।हमारे मनीषियों ने पुरुषोत्तम को मार्ग से आबद्ध किया और उस मार्ग को सत से आवेशित कर दिया और इसीलिए सन्मार्ग का शिरो वाक्य बना "नमोस्तु रामाय सलक्ष्मणाय .... ।"यहां यह भी गौर करने की बात है की यह सत वह सत्य नहीं है। क्योंकि सत्य एक अवस्था है जो देशकाल और स्थिति के अनुसार परिवर्तित होता है। मसलन पानी बर्फ और भाप तीनों सत्य हैं।तीनों का अपना अस्तित्व है। तीनों के अपने गुणधर्म हैं। जबकि उसका मूलभूत तत्व हर स्थिति में एक ही होता है ,वही सत है । सन्मार्ग शब्द का अर्थ उसी सत के साथ विष्णु का संयोग है। जो खुद में सत है। इसका दूसरा डायमेंशन है कर्म। यह भी गौर करने वाली बात है कि सन्मार्ग की स्थापना करने वाले हमारे मनीषियों ने कर्म तत्व को नहीं अपनाया, क्योंकि  गीता में जिस कर्म की व्याख्या की गई है वह अभिव्यक्ति में अनासक्ति है। सिर्फ प्रयास है, उपलब्धि नहीं है। इसीलिए हमारे पूर्वजों ने "हनुमत प्रयास" के मंत्र को अपनाया। इस मंत्र में जिजीविषा है लक्ष्य है और भगवती सीता का संधान  है। इस का तीसरा डायमेंशन है "सन्मार्ग एव सर्वत्र पूज्यते.....।" मर्यादा के भी यही तीन डायमेंशन हैं और इसी 3 डाइमेंशंस के बीच में पुरुषोत्तम की उत्पत्ति हुई।

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपिचोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः

राम भारतीय अस्मिता और संस्कृति के प्रतीक पुरुष हैं। इसलिए सन्मार्ग की स्थापना के लिए राम जन्म के पवित्र दिवस का चयन किया गया। आज भी सन्मार्ग अपने उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयासरत रहता है। कुछ लोग हमसे पूछते हैं कि कलकत्ता ही क्यों और संस्कृति को बचाना ही क्या जरूरी है। आजादी के बाद हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं शिक्षा प्रणाली और व्यवस्था दूषित हो गई।  यह स्वयं में भयावह दुर्घटना है। इसके साथ एक और प्रश्न है कि कलकत्ता ही क्यों? गंगोत्री से चलकर कल्लोलिनी गंगा कोलकाता से कुछ दूर सागर में समा जाती है और यही उसका उद्देश्य भी खत्म हो जाता है या नहीं भगीरथ ने जिस उद्देश्य के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या की थी वह उद्देश्य पूरा हो गया सगर पुत्रों को मुक्ति मिल गई इसीलिए हमारी व्यथित संस्कृति और सभ्यता को एक दिशा देने के लिए कोलकाता में सन्मार्ग की स्थापना की गई।
     ऊपर कहा गया है की स्वतंत्रता के बाद जो हमारी स्थिति हुई वह स्वयं में एक दुर्घटना है संस्कृति को धर्म संस्थानों से जोड़ दिया गया और हमें आत्म रिक्त होने पर मजबूर कर दिया गया। यह आत्मरिक्तता कुछ ऐसी थी कि हम अपने आदर्शों से गिरने लगे। सन्मार्ग ने सदा यह बताने की कोशिश की है कि अर्थों के भ्रम में नहीं रहना है देवी देवताओं के विभिन्न स्वरूपों के बावजूद सत एक ही है, जो एक भारतीय के "आत्मन" में रहता है ना कि संस्थानों में । इसका बड़ा ही रोचक उदाहरण हमारे पुराणों में मिलता है। ब्रज की  गलियां छोड़कर जब कृष्ण द्वारका चले गए और लौट कर आए तो गोपियों ने उन्हें द्वारकाधीश कह कर पुकारा । यह संबोधन भगवान कृष्ण को उचित नहीं लगा उन्होंने इस पर आपत्ति की तो गोपियों ने कहा कि अब तुम वह नहीं रहे जिन्होंने महज एक गेंद के लिए गोवर्धन उठा लिया था। तुम तो वह कृष्ण हो गए जिसने अपनी आंख के सामने अपनी सेना को मरवा दिया। यह स्पष्ट करता है कि आज भी एक भारतीय का धर्म उसके भीतर होता है, संस्थानों में नहीं। जब तक एक भारतीय की संस्कृति और धर्म संप्रदाय एक दूसरे से प्रेरणा पाते रहे तब तक सब ठीक था जैसे ही प्रेरणा का स्रोत अवरुद्ध हुआ और भारतीयता पर आघात लगा तो विभाजन हो गया। इसका यह एक भौतिक सबूत है । भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जिसकी राष्ट्रीय अस्मिता विनाश से नहीं अपनी सभ्यता के विभिन्न चरित्रों से गढ़ी गई है। पिछले 75 वर्षों से सन्मार्ग इसी परंपरा को कायम रखकर सत की ओर जाने वाले मार्ग पर चल रहा है। हमारे मनीषियों ने 75 वर्ष पहले जिस दीपशिखा को प्रज्वलित किया था उसमें हमारे पाठकों विज्ञापन दाताओं और हितैषी  जनों का "नेह" मिलता रहा है और यह दीपशिखा प्रज्वलित है। इस दीपक को प्रकाश मांग करने में उनकी भूमिका के लिए अत्यंत आभारी हैं।

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