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Sunday, July 31, 2016

नफरत ग्लोबलाइजेशन का दुश्मन है

एक ऐसा मंजर जो पूरी दुनिया में दिख रहा है अपने अलग अलग स्वरूपों में सबमें एक सा जहर है। चाहे वह अमरीका के डोनाल्ड ट्रम्प हों, या ब्रिटेन का ब्रक्सिट या ओलैंडों का नरमेध या पाकिस्तान में ‘ईशनिंदा’ कानून का हिंदुओं के लिये दुरुपयोग या भारत में कथित गो भक्तों की गतिविधि। इन सारे मंजर के पीछे एक ही मनोभाव है वह है – घृणा का भाव। दुनिया की छोड़े और अपने घर में कायम घृशा के इस अंधेरे में एक रोशनी जलाएं और जानने की कोशिश करें कि इस गो भक्ति से घृणा का सूत्रपात कैसे होता है। ये कथित गो भक्त स्यूडो धार्मिक विचार वाले हैं और गायों के प्रति जिनकी आस्था कम है उनसे नफरत करते हैं। इनके निशाने पर गाय खरीदने का धंधा करने वाले और मृत गौओं का चमड़ा निकालने के पुश्तैनी काम करने वाले हैं। हिंदुत्व खेमे के इन गो भक्तों के प्रति कानून चुप है। गोभक्तों के इस गुस्से की पीछे मृत या जीवित गायों के प्रति ‘दुर्व्यवहार’ ही एकमात्र कारण नहीं है। गायों की खरीद बिक्री का धंधा करने वाले या मृत गौओं का चमड़ा उतारने वालें की जाति भी इसका मुख्य कारण है। यह हैरत की बात नहीं है कि झारखंड के लतेहार में गायों को खरीद कर ले जाते हुये जिन लोगों को मौत के घट उतार दिया गया वे मुस्लिम थे और उना में जिन लोगों की पिटाई के बाद उपद्रव हुआ वे दलित थे। केसरिया लहर की हसरत रखने वाले ‘हिंदू गेस्टापो’ के लिये मुस्लिम और दलित दोनो अछूत हैं। यह भी किसी छिपा नहीं है कि भाजपा ने अपने आधुनिक विस्तार काल में नफरत के इस भाव को बढ़ाने की पूरी कोशिश की थी। अयोध्या कांड के बाद अक्सर मथुरा और वाराणसी की मस्जिदों के बारे में जो चेतावनियां सुनीं जाती थीं वह किसी को भी ‘हदसा’ देने के लिये काफी थीं। दूसरे विश्व युद्ध के पहले नाजियों द्वारा यहूदियो के पूजास्थल फूंकने की घटना के बाद इतिहास में यह पहला वाकया था जब किसी अल्प संख्यक समुदाय के आराधनास्थल को किसी राजनीतिक संगठन ने ध्वस्त किया। मुस्लिम आरंभ से हिंदुत्व ब्रिगेड की घृणा की वस्तु रहे हैं। लेकिन भगवाइयों के लिये दलित क्यों नफरत का सबब बन गये बड़ा मुश्किल है समझना खास कर के ऐसे समय में जब अगले साल भाजपा को इन दलितों के वोट की जरूरत पड़ेगी। हो सकता है कि कथित मनुवाद की घृणा को फैलाने की यह साजिश हो। इसका असर ग्लोबल होता जा रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प ने आतंकवाद के बहाने मुस्लिमों पर जहर उगला है। ट्रम्प को वाहवाही भी मिली है। पर टाइम पत्रिका में प्रकाशित आंकड़े बताते हैं कि ट्रम्प का समर्थन करने वाले वे अमरीकी नहीं हैं जिन्होंने उनके मुस्लिम विरोध पर तालियां बजायीं हैं बल्कि वे लोग हैं जो ग्लोबलाइजेशन के मुखालिफ हैं और एकाधिकारवादी हैं। क्योंकि जब अमरीका ने अपने दरवाजे खोले तो यह भी साफ हो गया कि अमरीकीस्ब्रिक्सिट समर्थक भारत या चीन में अपने कारखाने लगा सकते हैं। अब ये ऐसे एकाधिकारवादी और दंभी हैं जो नहीं चाहेंगे कि भारत शासन के अतर्गत काम करें। इधर अमरीका में जब बाहर वालें की बाढ़ आ गयी तो ऐसे विचार वालें के मुश्किलें पैदा हो गयीं। अब यह तो कोई समझ नहीं रहा है कि हर मुसलमान आतंकी नहीं होता लेकिन आंकियों में मुस्लिमों की संख्या के कारण निगमन तर्कशास्त्र के सिद्धंत के अनुसार वे सबको आतंकी ही समझते हैं। यह विचार निहायत निंदनीय है। मुस्लिमों के प्रति यह प्रवृति अमरकियों में चर्चिल के जमाने में भी पायी गयी थी। चर्चिल ने अपनी किताब ‘रिवर वार’ में लिखा हे कि ‘मुस्लिम चूकि धर्मोन्मादी होते हैं इसी लिये दुनिया में कोई पश्चगामी सत्ता नहीं बन पायी है।’  यूरोप और अमरीका में नस्लभाव को बढ़ावा मिलता है और मुस्लिमों को वे विपरीत या दुश्मन नस्ल का मानते हैं। यही भावना यहां उन्हीं नेताओं और उनके समर्थकों ने फैलाई है।  अब बात आती है वर्तमान काल की। दरअसल भारत में जाति नस्ल का देसी संस्करण है। इसलिये साध्वी प्राची जैसे लोगों के नारे इतने घृणा कारक हैं। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस भावना पर रोक लगाने की प्रशंसात्मक कोशिश की है और इस पर रोक लगी भी है। यह जानना जरूरी है कि इस तरह का जहरीला भाव वैवीकरण और स्मार्ट सीटी के सपने को कभी साकार नहीं होने देगा। नफरत ग्लोबलाइजेशन का दुश्मन है। यह मानना जरूरी है कि मुस्लिम या दलित इसी देश के अंग हैं और उन्हें भी उतना ही हक है जितना उन भगवावादियों को है।  इसलिये जरूरी है कि नफरत के इस भाव को मिटाया जाय।

Friday, July 29, 2016

जाना महाश्वेता देवी का

गालिब के एक मशहूर शेर की पंक्ति है , ‘ये मसाइल- ए-तसव्वुफ , ये तेरा बयान गालिब…’  इसके बाद क्षमा याचना सहित कहा जा सकता है कि तू वली होता…। महाश्वेता देवी के बारे में भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है कि धरती का रिश्ता कलम से जोड़ने वाली यह कथाकार – कलमकार संत कही जा सकती है। अचानक उनके देहावसान की खबर उन सभी लोगों को नर्वस कर गयी जो उन्हें किसी भी रूप में जानते हैं। आपने गौर किया होगा कि जब तक कोई इंसान जीवित रहता है तबतक उसकी एक खास छवि दिमाग के फ्रेम में लगी रहती है और जैसे ही उसकी मृत्यु होती है वह चेहरा उस फ्रेम को तोड़ कर बाहर निकल आता है। एक वह चेहरा अनेक चेहरों में बंट जाता है। हर चेहरे की अपनी स्मृति और हर स्मृति का अपना एक चेहरा। मृत्यु जिसे हम एक विराम मानते हैं वह अनेक चेहरों में बंट कर प्रवाहित होते लगता है। दर्शनशास्त्र का अमरत्व यही है।  उनके मरने के बाद जब हम महाश्वेता देवी को याद करमते हैं तो उनकी यही छवियां हमारी स्मृति में आती हैं। जिन्होंने उनका साहित्य पढ़ा होगा उन्होंने लगातार उनके कआ चरित्रों और अनूठे पात्रो की लम्बी चित्र गैलरी अपने दिमाग में जरूर बनायी होगी। हर कथा चरित्र अपने वर्ग, परिवार, शहर और कस्बे और गांव की व्यथा कथा , विसंगति, विद्रूब्पता के पूरे संसार के साथ इस गैलरी के चित्रो में दिखता होगा। महाश्वेता देवी की सादगी , अंतरदृष्टि और सरलीकृत यथार्थवाद उन्हें अपनी रचनाओं की तुलना में विशिष्ट बना देता है और मतवादी आग्रहों से मुक्त कर देता है। जिन्होंने महाश्वेता देवी की साइकी को समझा होगा, उनके कमरे में बिखरे आदिवासी कला नमूनों को उलटा पलटा होगा उन्हे यह जरूर महसूस हुआ होगा कि वे मानवतावादी आदर्श के सम्मोहन से ग्रस्त हैं ओर जब उनकी किसी भी कहानी को पढ़ेंगे तो मनुष्य के जीवन के कठोर यथार्थ को पाकर हैरत में पड़ गये होंगे। उन्होंने अपने भीतर के इस विरोधाभास का कभी सामना नहीं किया, लेकिन इससे उनका शिल्प या हुनर छोटा नहीं हो जाता। भारतीय मध्यवर्ग के अदने इंसान की विडम्बनाओं और विवशताओं में पैठ कर जिन छोटी अच्छाइयों को वे बाहर निकालती थीं वह किसी भी मत या विचार के अमूर्त आदर्शवाद से आच्छादित नहीं होती थी। आपने जब उनका उपन्यास 1084 की मां को पढ़ा होगा तो लगता होगा कि उपन्यास की भीतर का सच उनके अंतर्विरोध को आहत करता है जहां आदर्श की अच्छाई बहुत आश्वस्त नहीं करती। उनके उपन्यासों या अन्य रचनाओं को पढ़ते हुये या उनसे बातें करते हुये ऐसा फील होता है कि एक सत्य किसी दूसरे सत्य की प्रतीक्षा में है। उस सत्य का कभी संधान नहीं हो पाया है। उनको पढ़ने के बाद लगता है सबकुछ सपाट और पुराना वही है जो बदलला नहीं, मध्य वर्गीय जीवन की तरह। लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर सब कुछ पूर्व निधारित है तो उम्मीद और इंतजार किस बात का। उनकी कथाओं में यही उम्मीद और इंतजार साध्य है। महाश्वेता देवी ने अपनी कलम से उन समस्त छलावों और भुलावों को भेदा है जहां इंसान के पतन में खुद मनुष्य तिरस्कृत हुआ है। लेकिन इसके बावजूद वे इस स्तर तक व्यक्तिवादी नहीं हो पातीं, जहां खुद लेखक का व्यक्तित्व विश्लेषण की वस्तु बन जाय। किसी कलमतकार या साहित्यकार का इस तरह होना खुद में इतना क्रूर है जितनी मृत्यु। उनके कथानकों में अर्जित की हुई सच्चाई जरूर मिलती है और अस सच्चाई को तलाशने की अंतर्पीड़ा जरूर मिलती है। एलियास केनेटी ने अपनी रचना ‘कांशस ऑफ वर्डस’ में लिखा है कि ‘एक लेखक जब तलाश की अन्तर्पीड़ा का विश्लेषण करता है तो वह उसकी एक निजी थाती बन जाती है।’ महाश्वेता देवी की रचनाओं में आप इस थाती को महसूस करते होंगे। हर कथा के क्लाइमेक्स में वह दिखती है। जब उनके जीवन का क्लाइमेक्स आया तबतक हम उनकी जिंदादिली और जीवंत उपस्थिति के इतने अभ्यस्त हो गये थे कि यह क्षण उनके जीवन का अवसान हो सकता था हठात विश्वास नहीं हुआ। अपने लम्बे जीवन काल वह रुकी नहीं यह बड़ी बात है और उससे भी बड़ी बात यह है कि उनका जीना उनके लेखन को और अनका लेखन उनके जीवन को परिभाषित करता रहा। इतने सृजनशील जीवन के बाद उनका जाना एक सहज स्वीकृति जान पड़ता है।

Thursday, July 28, 2016

केजरीवाल पर मोदी का कसता शिकंजा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर लगातार शिकंजे कसते जा रहे हें और इसकी पीड़ा से छटपटाते केजरीवाल कुछ का कुछ बयान दे रहे हैं, बिल्कुल अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं। अभी पिछले हफ्तने की बात है कि सी बी आई ने दिल्ली के ख्यिमंत्री के प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार को दुबारा गिरफ्तार किया है। इसके पहले भी उन्हें इसी आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था लेकिन अदालत ने सबूत कमजोर होने के कारण उन्हें रिहा कर दिया और सी बी आई को डांट भी लगायी। इसबार फिर उन्हें सी बी आई ने गिरफ्तार किया है तो यह विश्वास किया जा सकता है कि इस बार सी बी आई ने नये सबूत जमा किये होंगे। अब सबूत क्या है और उसका वजन कितना है यह जानने में तो समय लगेगा पर इस गिरफ्तारी से दिल्ली की अफसरशाही में एक संदेश तो गया ही कि ज्यादा उत्साह दिखाने से दंडित किया जा सकता है।यही नहीं पार्टी को भी संदश गया है कि पंजाब , गोवा और गुजरात में पैर पसारने की तैयारी का नतीज क्या होगा। दिल्ली सरकार में दिल्ली और अंडमान निकोबार सेवा के 300 अफसरों की जगह है जिसपर केवल 135 अफसर भेजे गये हैं और राजेंद्र कुमार की गिरफ्तारी के बाद इन 135 में से 11 का तबादला हो गया है। यानी दिल्ली सरकार के पास महज 124 अफसर हैं जो काम देख रहे हैं। नतीजतन सारे काम देर से होंगे और उससे जन असंतोष बढ़ेगा। मुख्यमंत्री कार्यालय में 5 अफसरों के पद हैं जिनमें दो गिरफ्तार किये जा चुके हैं , एक का तबादला हो गया है और एक स्थाई तौर पर स्टडी लीव पर है। मतलब कि केवल एक अफसर के कंधे पर सारा बोझ है। अब आप वाले यह नहीं समझ पा रहे हैं कि मोदी बदला ले रहे हैं या हमले कर रहे हैं। क्योंकि मोदी पिछले चुनाव में केजरीवाल या कहें आप के हाथों पराजित हो चुके हैं। वैसे भी भाजपा और मोदी जी आप और केजरीवाल को भारी चुनौती महनते हैं और भाजपा के रणनीतिज्ञ यह मानते हैं कि अगर इसके पर अभी नहीं कतरे गये तो आगे बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।  इसलिये माना जा रहा है कि मोदी उन लोगों को छोड़ेंगे नहीं जिनसे डर है कि वे आगे चल कर पंजे लड़ा सकते हैं। केजरीवाल ने 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी के सामने कैसी चुनौती खड़ी कर दी थी यह सबको मालूम है। उन्होंने मोदी के गुजरात मॉडल की यह कह कर पोल खोलनी शुरू की कि इससे केवल अमीरों को ही लाभ मिला है। इसके बाद विधानसभा चुनाव में मोदी अपराजेय छवि के बावजूद केजरीवाल ने उन्हें धूल चटा दी। दिल्ली चुनाव के पहले राजनीतिक मनोविज्ञानी आशीष नंदी ने इकॉनमिस्ट पत्रिका में अपने एक लेख में कहा था ‘जब तक अरविंद समाप्त होंगे मोदी का कद छोटा हो चुका रहेगा।’ बिहार का चुनाव और इसके बाद बंगाल का चुनाव इसकी मिसाल है कि मोदी का जादू कामयाब नहीं हो सका। लेकिन  चुनाव का मैदान ही नही जहां केजरीवाल ने मोदी जी को परेशान किया बल्कि उनके(मोदीजी ) बारे में अनर्गल ट्वीट्स करके भी उनकी गरिमा को आघात पहुंचाया। इस संघर्ष का मूल कारण यह नहीं कि मोदी जी का स्वभाव जरा कठोर है बल्कि यह है कि प्रधानमंत्री केवल शासन का प्रमुख ही नहीं होता उसका देश और पार्टी पर एक अदब भी होता है। इधर केज्रीवाल की बातचीत से ऐसा लगता है कि उनमें सत्ता या अधिकार सम्पनन लोगों की बेअदबी अथवा हेठी करने की आदत है। ऐसा लगता है कि वे राजनीतिक हस्तियों को नीचा दिखाने की लत से ग्रस्त हैं। हालांकि वे भी राजनीतिक समाज से हैं पर उनकी विरोधी छवि ही मशहूर है। वे अपने स्वभाव के कारण ऐसा दिखते हैं मानों राजनीति से दूर एक आम आदमी हैं। इसलिये वे देश के सबसे ताकतवर आदमी को लगातार सुइयां चुभोते रहते हैं और जहां तक मोदी जी का प्रश्न वे केजरीवाल को एक ऐसा आदमी मानते हैं जो ना खुद खेलेगा ना दूसरे को खेलने और खेल बिगाड़ देगा, वे केजरीवाल को एक अराजकतावादी मानते हैं। इसके बावजूद मोदी उन्हें नजरअंदाज कर देते पर चूंकि वो दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं औरर दिल्ली दश की मीडिया का केंद्र है। दानों के बीच की मामूली कहा सुनी भी बड़ी खबर बन जाती है। यही नहीं , आप पार्टी पंजाब और गोवा में भी पैर पसार रही है। देश में भाजपा और कांग्रेस को छोड़ सारी पार्टियां एक राज्य में सिमटी हुईं है। वामपंथी दो राज्यों में हैं। अगर आप ने पंजाब और गोवा में खाता खोल लिया तो वह खुद को राष्ट्रीय पार्टी घोषित कर देगी और एक नया सिरदर्द पैदा हो जायेगा। इसीलिये मोदी और भाजपा ने ‘संशोधनात्मक’ कदम उठाने का फैसला किया है और मोदी तथा केजरीवाल में पंजा लड़ाई का मुख्य कारण यही है। अब गुस्साये केजरीवाल ने अनर्गल बोलना आरंभ कर दिया है।

Wednesday, July 27, 2016

लोकतंत्र में हुकूमत और करप्शन

आंख पर पट्टी रहे अक्ल पर ताला रहे

अपने शाहे वक्त का यूं ही मर्तबा आला रहे

जब मोदी जी की सरकार बनी थी तो उन्होंने एक नारा दिया था कि ‘कम शासन या ज्यादा सुशासन।’ मोदी जी को भारी बहुमत मिला और उसके बाद जब सुशासन की बात आयी तो सरकार और शासन की परिभाषाएं बदल गयीं। विख्यात दार्शनिक बट्रेंड रसल  का कहना था कि सत्ता और सियासत में बड़ा प्रगाढ़ संबंध होता है और उस सम्बंध का कारण होता है दौलत। यह अवधारणा करीब 75 वर्ष पुरानी है पर अभी भी मानेखेज है। क्योंकि सत्ता – सियासत- दौलत , इन तीनों के बिना समाज में भ्रष्टाचार नही पनप सकता है। भ्रष्टाचार एक जहर है जो दौलत का विनाश कर देता है और मानव समुदाय के लिये विपत्तियां पैदा करता है। ब्रिटिश इतिहासकार लार्ड एक्टन ने कहा था ‘सत्ता भ्रष्ट बनाती  है। सत्ता का चरित्र ही भ्रष्ट करना है लेकिन चरम सत्ता चरम तौर पर  भ्रष्ट करती है।’  लार्ड एक्टन ने एक मुहावरा गढ़ा था ‘ग्रेट मेन’ यानी महान हस्तियां। उस समय इस शब्द का इशारा उनलोगों की ओर था जो उच्च पदों पर रहकर सत्ता की धारा को प्रभावित करते थे। आज यह शब्द यकीनन बड़े नेताओं और अफसरशाहों के लिये उपयोग किया जाता है। एक्टन का दावा था कि बड़े लोग यानी महान हस्तियां सदा ही बुरी रहीं हैं हालांकि व्यवहारिक तौर पर वे सही दिखती रहीं हैं।

तालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे

आये दिन अखबार में प्रतिभूति घोटाला रहे

 अगर ऐसा नहीं होता तो लोकतंत्र में जहां सत्ता ताकवतवर होती है वहां गलत लोग कैसे निर्वाचित हो जाते हैं। सत्ता, सियासत, दौलत और करप्शन में विश्लेषणात्मक रिश्ता क्या है? इसका अगर आर्थिक विश्लेषण किया जाय और  संक्षेप में कहा जाय तो कह सकते हैं कि हुकूमत  की ताकत आर्थिक गतिविधियों को प्रबावित कर एक आदमी को दौलत कमाने के मौके मुहय्या कराती है। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि अर्थ व्यवस्था पर हुकूमत की पकड़ जितनी मजबूत होगी सियासत के जरिये दौलत कमाने के मौके उतने ही ज्यादा मिलेंगे। ये मौके ही गलत लोगों को राजनीति की तरफ खींचते हैं।

रहनुमा धृतराष्ट्र के पद चिनह पर चलने लगे

आप चुप बैठे रहें ये कौम की रुस्वाई है

इसको ऐसे समझा जा सकता है कि एक खास राजनीतिक पद के कारण बेहिसाब धन कमाने का अवसर प्राप्त होता है। अब चुनाव में उस पद के लिये जो पूर्ववर्ती आदमी था वह जितनी दौलत खर्च कर सकता है एक ईमानदार आदमी कैसे करेगा। एक भ्रष्ट इंसान ही चुनाव में अपने प्रतिद्वद्वी को धन के बल पर पराजित कर सकता है क्यों कि पद पर पहुंच कर वह उस धन को दुबारा पा सकता है।एक ईमानदार आदमी कहां से उतना धन लायेगा।

जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी​ है

एक पहेली सी दुनिया ये गल्प भी है इतिहास भी है

इसी तरह हुकूमत की ताकत आगे चल कर आर्थिक शक्ति में बदल जाती है। कह सकते हैं इससे अर्थ व्यवस्था का राजनीति करण हो जाता है और आर्थिक नीतियों में वैसी ही बातों को स्थान मिलता है जो राजनतिक रूपसे लाभदायक हों।  इसके कारण समन्वित आर्थिक लाभ मिलता ही नहीं और अगर मिलता भी है तो बहुत सीमित मिलता है। जब अर्थ व्यवस्था का राजनीतिकरण होता है तो इसमें भ्रष्टाचार और आपराधिकता को बढ़ावा मिलता है क्योंकि अंतत: धन ही यह तय  करता है कि चुनाव कौन जीतेगा। यहां कहने का तमलब है कि भ्रष्टाचार अनअभिप्रेत पार्श्व प्रभाव ही नहीं है नियंत्रित अर्थ व्यवस्था द्वारा गढ़ी गयी एक स्थिति है।

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें

संसद बदल गयी है यहां की नखास में

राजनीतिज्ञ अक्सर दावा करते हैं कि वे परोपकार और जनहित के लिये काम करते हैं पर शायद ही कभी वे नीतियों को सामाजिक तौर पर लाभकारी बनाते हैं। इसके दो कारण हैं पहला कि आम जनता को यह मालूम है कि किस तरह की नीतियां  उनके कल्याण के लिये लाभदायक हैं और दूसरा कि राजनीतिक नेता आम जनता की इच्छा के मुताबिक नीतियां तैयार करने को प्रवृत रहते हैं। लेकिन दोनो मामलों में आम आदमी भ्रमित है। उएसे यह गुमान भी नहीं होता कि कौन सी नीति अंतिम तौर पर उसके लिये लाभप्रद होगी और दूसरे वे नहीं जानते कि आम जनता की किस भलाई वाली नीति में नेताओं का लाभ है। यहां कहने का यह अर्थ नहीं है कि अच्छी नीतियां बनतीं ही नहीं। बनती हैं लेकिन अच्छा या भला करना ही प्राथमिक उद्देश्य नहीं होता।

सदन में घूस देकर बच गयी कुर्सी तो देखोगे

वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे

मसलन, अमरीका सबसे धनी मुल्क है और भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र है। निश्चय ही दोनों देशों में अर्थ तंत्र का आकार बहुत व्यापक है और इसके कारण चुनाव में भारी प्रतिद्वंदिता होती है। सरकार का आकार जितना बड़ा होगा प्रतिद्वंदिता उतनी ही ज्यादा होगी। लुडविग ने लिखा है कि लोकतंत्र बहुमत की इच्छा और योजना के अनुसार शासन पद्धति की गारंटी देता है पर साथ ही यह गलत नीतियों और गलत आदर्शों का शिकार होने से बहुमत को नहीं बचा सकता।

जो व्यवस्था को बदलने के लिये बेताब थे

कैद उनके बंगले में इस मुल्क की रानाई है

Tuesday, July 26, 2016

कश्मीर की समस्या भौगोलिक नहीं इन्सानी है

कश्मीर में रमजान के महीने में बुरहान वानी का पुलिस के हाथों मारा जाना और असके बाद वहां हुआ उपद्रव कश्मीर मुलमान की याद्दाश्त में सदा कायम रहेगा। बुरहान वानी कश्मीर में उग्रवाद की मशहूर हस्ती के ऱूप में जाना जाता था। असकी मौत के बाद भड़के गुस्से को ताकत से दबाये जाने की कोशिश, सामूहिक विरोध के हक पर पाबंदी  और घटी के नाराज लोगों के लिये सूचना पर अंकुश के कारण ना केवल गुस्सा बढ़ा बल्कि भारत राष्ट्र के प्रति उनमें दुराव भी पैदा हुआ है। जिस दिन बुरहान मारा गया उस दिन एक बड़े न्यूज चैनल ने बताया कि वह फौजी कार्रवाई में मारा गया जबकि उसकी मौत पुलिस कार्रवाई के दौरान हुई थी। फौजी कार्रवई की सूचना को अफवाह का रूप देकर निहित स्वार्थी तत्वों ने ऐसा वातावरण तैयार किया जिससे घाटी का बुद्धिजीवी समाज बेहद कुपित हो गया और इस स्थिति में भारत के अंदरूनी मामले में पाकिसन की दखलंदाजी ने आग में घी का काम किया। यह मामला पूरी तरह कानून और व्यवस्था का था लेकिन हालात ने उसे इतना खराब कर दिया कि व्यवस्था कायम करने वाले कश्मीर की हकीकत , कश्मीरी मुसलमानों की साइकी और भारत राष्ट्र के खिलाफ  आंदोलन ने कुछ इेसा समां बांधा कि कश्मीरी नौजवान आजादी के नारे लगाते देखे गये।  कश्मीर की सरकार और भारत सरकार दोनों कश्मीरियों को आश्वस्त  करने में नाकामयाब हो गये। बुरहान वानी के मारे जाने के लगभग हफ्ते भर बाद प्रधानमंत्री का बयान आया जो मूलत: सुरक्षा बलों को सलाह थी कि वे संयम से काम लें और इस बात का ध्यान रखें कि नागरिकों को असुविधा ना हो। कश्मीर की हकीकत को बगैर समझे हुये गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने बयान दिया कि यह पाकिस्तान करा रहा है और संघर्ष मूलत: अलगाववादियों और भारष्ट्र के बीच है। कसमीर के लोगों से मिलने के इरादे से 23 जुलाई को उनका कश्मीर दौरा एक तरह से नाकामयाब हो गया। क्योंकि कश्मीर के व्यापार – व्यवसाय के अगुआ लोगों ने गृह मंत्री से मुलाकात नहीं की और इमामों का मुंह ढंककर उनसे मिलने जाना एक तरह से उनके प्रति इन्कार का भाव था। कश्मीर में पी डी पी और भाजपा के गठबंधन की नेता महबूबा मुफ्ती ने कहा कि प्रधानमंत्री होना एक बात है और विरोधी पक्ष में बैठना दूसरी बात है। बुरहान की मृत्यु के बारे में उन्होंने अपनी किसी भूमिका से इंकार किया। इस बात पर कश्मीर मसले के कई विशेषज्ञों ने कहा कहा कि ‘रोजाना की ड्यूटी के लिये सुरक्षा बलों को किसी की मंजूरी नहीं लेनी पड़ती है।’ जब कश्मीर मेंअखबरों पर पाबंदिया लग गयीं और उसके विरोध में चारों तरफ से टीका टिप्पणी होने लगी तो सरकार ने कहा  कि इसमें उसकी कोई भूमिका नहीं है और जो भी हुआ वह ‘मिसकम्युनिकेशन’ का नतीजा है। बाद में प्रेस से उनकी वयक्तिगत क्षमा याचना और हर हाल में प्रेस की आजादी कायम रखने का पक्का आश्वासन के बाद मामला थोड़ा ठंडा हुआ। घाटी में शांति बहाल करने की  अपील करने में महबूबा मुफ्ती को तीन दिन लग गये ओर सर्वदलीय बैठक बुलाने में 10 दिन लग गये। इसमें भी नेशनल कांफ्रेंस शामिल नहीं हुई। अब मुख्यमंत्री ने पी डी पी – भाजपा गठबंधन के सभी पक्षों को जमा कर विकास और समावेश की योजना बनाने में जुटी है। अब अगर इन घटनाओं से हमने कुछ सीखा है तो वह है कि पहचान से जुड़ी मांगों को नजरअंदाज कर दिया जाय तो सुशासन की एक सीमा होती है। वहां चुनाव की प्रक्रिया को कायम रखने और लोकप्रिय सरकार के गठन के बावजूद वहां आजादी की मांग दबी नहीं। अलबत्ता सुशासन ओर विकास के माध्यम से कश्मीर की जातीय गरिमा और पहचान के संकट को थोड़ा कम किया जा सकता है पर इससे वह खत्म नहीं होगा। यहां हर आंदोलन और हर सरकार के साथ मसले बदल जाते हैं। हमारे नेता या इतिहासकार कश्मीर की समस्या को हर बार एक नया रुख दे देते हैं। जरा गौर करें कश्मीर में रायशुमारी या जनमत संग्रह की बात चली फिर वह अचानक स्वायतता में बदल गयी और अब आजादी की मांग उठने लगी है। दर असल कश्मीर की समस्या जमीन या भूगोल की नहीं है यह समस्या इंसानों की है।  मूलत: कश्मीरी जनता में पहचान की एक गहरी चाह है और इसके कारण वे जातीय गरिमा और अपने प्रति न्याय की तलाश में लगे शिद्दत से लगे रहते हैं। जब उस गरिमा को आघात पहुंचता है तो कश्मीरी जनता उसे अपने प्रति अन्याय समझती है और वह गुस्से में बदल जाता है।