पिछले साल बिहार चुनाव में दालों की देश व्यापी ऊंची कीमत का केंद्र सरकार को भारी मोल चुकाना पड़ा। विपक्षी दलों ने ना केवल सरकार की तीखी आलोचना की बल्कि ‘अरहर मोदी’ का नारा भी उठा दिया। यह उसी नारे की पैरोडी जिसमें मोदी के चुनाव के समय कहा गया था ‘घर घर मादी ’ और बनारस में नारे लगे थे ‘हर हर मोदी।’ बिहार चुनाव के दौरान अरहर की दाल देश में कई जगह 200 रुपये किलो बिक रही थी। भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक देश होने के साथ-साथ, दालों का सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है। यहां पांच दालों - अरहर, चना, मूंग, मसूर और उड़द - का सबसे ज्यादा उत्पादन व उपभोग होता है। देश में कुपोषण को खत्म करने के लिये दालों के माध्यम से प्रोटीन का उपभोग लगातार बढ़ते रहना चाहिये था। परन्तु उसके विपरीत, दालों का प्रति व्यक्ति प्रति दिन उपभोग 1961 में 70 ग्राम से घट कर 2001 में 30 ग्राम हो गया है। यह 2011 में 43 ग्राम तक बढ़ा लेकिन उसके बाद वहीं का वहीं रहा और अब फिर घट रहा है। आज इसकी मात्रा महज 37 ग्राम है जबकि डाक्टरों के अनुसार उसकी मात्रा 80 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रति दिन होनी चाहिये। अपने देश के गरीब तबकों में तो प्रोटीन का असली उपभोग इस औसत से भी काफी कम है।अब जबकि दाल उत्पादक क्षेत्रों में अच्छी वर्षा हुई और दलहन के फसल की खेती का रकबा बढ़ा तो दालों की कीमतें गिरने लगीं। अरहर की दाल तो 60 रुपये प्रति किलोग्राम तक गिर गयी। देश में सबसे ज्यादा दलहन की फसल महाराष्ट्र में होती है ओर जुलाई तथा अगस्त में यहां अच्छी वर्षा होने के कारण किसानों ने दलहन बोने का रकबा बढ़ाया। यही नहीं देश बर में कुछ ऐसा ही हुआ। महाराष्ट्र कृषि मंत्रालय के अनुसार राज्य में अरहर की खेती इस वर्ष 123 प्रतिशत बड़ायी गयी है जबकि मूंग और उड़द की खेती क्रमश: 114 और 123 प्रतिशत बड़ाई गयी है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल देश भर में महज 94.14 लाख हेक्टेयर में दाल की खेती हुई थी जो चलू वर्ष में बढ़ कर 110.08 हेक्टेयर कर दी गयी है। किसानों ने कीमतों में तेजी को देखते हुये खेती बढ़ा दी है जबकि व्यापारी मजबूर हो कर दालों की कीमत गिराने लगे हैं। फाटका बाजार में दालों की कीमतों में तेज गिरावट आयी है और इसके फलस्वरूप बाजार में कीमतें गिर गयीं। एक तरफ तो दालों की गिरतीं कीमतें उपभोक्ताओं के नजरिये से अच्छी बात है पर जिस तेजी से कीमतें गिर रहीं हैं ओर देश की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था की जो हालत है उससे तो आशंका पैदा हो रही है। मूंग दाल की कीमतें तो सरकारी समर्थन मूल्यों से नीचे चली गयी है। दालों की कीमतों में इस उतार चढ़ाव ने कई सालों से किसानों को दलहन की खेती के प्रति उदासीन कर दिया था और वे गन्ने की खेती करने लगे थे, क्योंकि इसमें ज्यादा लाभ दिखता था। दालों का कम उत्पादन व लगातार बढ़ती हुई कीमतें केवल खराब योजना या प्रतिकूल मौसम या प्राकृतिक आपदाओं का परिणाम नहीं है। यह दालों की उत्पादकता बढ़ाने के तकनीकी ज्ञान की कमी भी कारण नहीं है। यह तो अर्थव्यवस्था की पूंजीवादपरस्त दिशा का अंजाम है, जो अधिकांश लोगों की जरूरतों को नजरअंदाज करके कुछ लोगों की लालच को पूरा करने की सेवा में लगी रहती है। कृषि का व्यवस्थापन मजदूर जनता के पेट को भरने के लिए या उनको जरूरी पोषण प्रदान करने के लिए नहीं किया गया है। भारतीय राज्य किसानों को जीविका की गारंटी नहीं देता है। इसके बजाय वह किसानों को बाजार में अपने हाल पर छोड़ देता है।अगर सरकार इस साल दालों की कीमतों को ज्यादा गिरने से रोकने में कामयाब नहीं हो पाती हे तो यह तय है कि अगले साल फिर दालों का संकट आयेगा। यह संकट भयानक होगा, क्योंकि गांवों में खेती कर्ज लेकर किसान करते हैं और जब फसल की कीमत नहीं सुधरेगी तो वे कर्ज नहीं चुका सकेंगं दूसरी तरफ मुनाफा खोर अगले साल के संकट को देख कर दालों का स्टॉक कर लेंगे। इससे क्या होगा यह बताने की जरूरत नहीं है। यहां सरकार के लिये जरूरी है कि वह दालों की कीमतों को अचानक गिरने से रोके। इस खतरे को भांपते हुये सरकार ने सभी एजेंसियों से कहा है कि बफर स्टॉक के लिये वे सभी राज्यों से अरहर , मूंग और उड़द दाल खरीदें।
Monday, September 12, 2016
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